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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 42
    ऋषिः - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिपदैकावसाना भुरिगार्ची गायत्री सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
    1

    अग्ने॑ अक्रव्या॒न्निः क्र॒व्यादं॑ नु॒दा दे॑व॒यज॑नं वह ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । अ॒क्र॒व्य॒ऽअ॒त् । नि: । क्र॒व्य॒ऽअद॑म् । नु॒द॒ । आ । दे॒व॒ऽयज॑नम् । व॒ह॒ ॥२.४२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने अक्रव्यान्निः क्रव्यादं नुदा देवयजनं वह ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने । अक्रव्यऽअत् । नि: । क्रव्यऽअदम् । नुद । आ । देवऽयजनम् । वह ॥२.४२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 42
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (अक्रव्यात्) हे अमांसभक्षक ! [शान्तस्वभाव] (अग्ने) अग्नि [समान तेजस्वी पुरुष !] (क्रव्यादम्) मांसभक्षक [दोष] को (निः नुद) बाहर ढकेल दे, और (देवयजनम्) विद्वानों के सत्कारयोग्य व्यवहार को (आ वह) यहाँ ला ॥४२॥

    भावार्थ

    विद्वान् लोग दुष्ट व्यवहारों को छोड़ कर वैदिक व्यवहारों का प्रचार करें ॥४२॥

    टिप्पणी

    ४२−(अग्ने) हे अग्निवत्तेजस्विन् विद्वन् (अक्रव्यात्) हे अमांसभक्षक ! शान्तस्वभाव (क्रव्यादम्) मांसभक्षकं दोषम् (निर्णुद) निःसारय (देवयजनम्) देव+यज−ल्यु। विद्वद्भिः पूजितव्यवहारम् (आ वह) प्रापय ॥

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    विषय

    देवयजन की प्राप्ति

    पदार्थ

    १.हे (अक्रव्यात् अग्ने) = अमांसभक्षक-सात्विक अन्न का सेवन करनेवाले अग्नणी पुरुष! तू ज्ञानोपदेश के द्वारा (क्रव्याद नुद) = मांसभक्षक अग्नि को हमसे दूर कर-हमें मांसभोजन की प्रवृत्ति से बचा और इसप्रकार (देवयजनं आवह) = देवयजन को सब प्रकार से प्राप्त करा। हम आपके द्वारा ज्ञान को प्राप्त करके देवों के समान यज्ञशील बन जाएँ। २. मांसभक्षण हमें स्वार्थी बनाकर देवयजन से दूर करता है। इस मांसभक्षण-प्रवृत्ति से ऊपर उठकर हम पुनः देवों की तरह यज्ञमय जीवनवाले बनें-हम औरों के लिए जीना सीखें।

    भावार्थ

    क्रव्याद् अग्नि को दूर करके हम देवयजन को प्राप्त करें, मांसभोजन से ऊपर उठकर हम यज्ञशील बनें।

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    भाषार्थ

    (अक्रव्याद) हे अक्रव्याद् अर्थात् मांस भक्षक अग्नि से भिन्न अग्नि ! तू (क्रव्यादम् निः नुद) मांस भक्षक अग्नि को निकाल फैक, और (देवयजनम् आ वह) देवयजन अग्नि को हमें प्राप्त करा।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में तीन अग्नियों का वर्णन किया है (१) अक्रव्याद्, (२) क्रव्याद्, (३) देवयजन ! यक्ष्मरोग के निवारण के प्रकरणानुसार, यक्ष्म यतः शारीरिक रोग है, इसलिये इसका परिणाम है मांसभक्षक क्रव्याद् अर्थात् श्मशानाग्नि। सूक्तोक्त अग्नियों में शारीरिक अग्नि जाठराग्नि तथा शरीर के तापमान को बनाए रखने वाली रक्तगत "आप्य-अग्नि"। यह सम्भवतः अक्रव्याद् अभिप्रेत है। देवयजन का अर्थ है "देवों का यजन", अर्थात् शारीरिक देवों,– ऐन्द्रियिक तथा बौद्धिक दिव्य शक्तियों का, संगठन अर्थात् शरीर के साथ संगति बनाए रखने वाली अग्नि। यह दिव्यअग्नि है आत्माग्नि, जीवात्माग्नि तथा परमात्माग्नि। यजन= यज् देवपूजा, संगतिकरण, दान। अथवा देवयजन= गार्हपत्य या आहबनीय अग्नि (मन्त्र ४४)]।

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    विषय

    क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) अग्ने ! परमेश्वर ! तू (अक्रव्याद्) कष्यात्, मांसाहारी व्याघ्र या हिंसक जन के समान नहीं होकर भी (क्रव्यादं) मांसभक्षी जनों को (निः नुद) परे कर। और (देवयजनम्) देवों की उपासना करने वाले सत्पुरुष को (वह) हमें प्राप्त करा। अथवा—हे परमात्मन् ! (क्रव्यादं निः नुद) देह के मांस को खाने वाले मृत्यु को दूर कर और (देवयजनं वह) देव, परमेश्वर की संगति प्राप्त कराने वाले आत्मस्वरूप को प्राप्त करा।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yakshma Nashanam

    Meaning

    O Akravyadagni, fire of renewal (which by healing counters the fire that eats into the vitals of life), dispel the Kravyadagni and bring in the Deva-yajani fire which would continue the yajna of life and living anew. (This mantra also suggests the efficacy of medication and healing by fumes and aroma.)

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    Translation

    O non-flesh-eating Agni, push out the flesh-eating one; bring the god-sacrificing one..

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    Translation

    Let this Akravyad fire (pure fire) drive away the Kravyad one. Let this carry the oblations to physical elements for whom these have been offered in the fire of vedi.

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    Translation

    O God, Who behavest not like a flesh-eating animal or man, drive away the meat-eater, and bring unto us a noble person, the devotee of the learned.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४२−(अग्ने) हे अग्निवत्तेजस्विन् विद्वन् (अक्रव्यात्) हे अमांसभक्षक ! शान्तस्वभाव (क्रव्यादम्) मांसभक्षकं दोषम् (निर्णुद) निःसारय (देवयजनम्) देव+यज−ल्यु। विद्वद्भिः पूजितव्यवहारम् (आ वह) प्रापय ॥

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