अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 35
ऋषिः - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
1
द्वि॑भागध॒नमा॒दाय॒ प्र क्षि॑णा॒त्यव॑र्त्या। अ॒ग्निः पु॒त्रस्य॑ ज्ये॒ष्ठस्य॒ यः क्र॒व्यादनि॑राहितः ॥
स्वर सहित पद पाठद्वि॒भा॒ग॒ऽध॒नम् । आ॒ऽदाय॑ । प्र । क्षि॒णा॒ति॒ । अव॑र्त्या । अ॒ग्नि: । पु॒त्रस्य॑ । ज्ये॒ष्ठस्य॑ । य: । क्र॒व्य॒ऽअत् । अनि॑:ऽआहित: ॥२,३५॥
स्वर रहित मन्त्र
द्विभागधनमादाय प्र क्षिणात्यवर्त्या। अग्निः पुत्रस्य ज्येष्ठस्य यः क्रव्यादनिराहितः ॥
स्वर रहित पद पाठद्विभागऽधनम् । आऽदाय । प्र । क्षिणाति । अवर्त्या । अग्नि: । पुत्रस्य । ज्येष्ठस्य । य: । क्रव्यऽअत् । अनि:ऽआहित: ॥२,३५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो (क्रव्यात्) मांसभक्षक (अग्निः) अग्नि [समान सन्तापकारी दोष] (अनिराहितः) नहीं निकाला गया है, वह [दोष] (ज्येष्ठस्य) श्रेष्ठ (पुत्रस्य) संशोधक पुरुष के (द्विभागधनम्) दोनों [संचित और क्रियमाण] भागवाले धन को (आदाय) छीनकर (अवर्त्या) वृत्ति [जीविका] के विना [उसको] (प्र क्षिणाति) नाश कर डालता है ॥३५॥
भावार्थ
जो बड़े-बड़े महात्मा अपने दोष को नहीं मिटाते, वे पूर्व जन्म के और इस जन्म के पुण्य को नाश करके अपना मनुष्यजीवन नाश कर देते हैं ॥३५॥
टिप्पणी
३५−(द्विभागधनम्) सञ्चितक्रियमाणपुण्यभागयुक्तं धनम् (आदाय) गृहीत्वा (प्र) सर्वथा (क्षिणाति) क्षि हिंसायाम्−लट्। क्षिणोति। नाशयति (अवर्त्या) वृतु−इन्। वृत्या जीविकाया राहित्येन (अग्निः) अग्निवत्सन्तापको दोषः (पुत्रस्य) पुवो ह्रस्वश्च। उ० ४।१६५। पूञ् शोधने−क्त। शोधकस्य पुरुषस्य (ज्येष्ठस्य) प्रशस्य−इष्ठन्, ज्य च। प्रशस्यतमस्य। श्रेष्ठस्य (यः) (क्रव्यात्) मांसभक्षकः (अनिराहितः) दधातेः−क्त। अबहिष्कृतः ॥
विषय
मांसभक्षण का परिणाम
पदार्थ
१. (य:) = जो (क्रव्यात् अग्नि:) = मांसभक्षक अग्नि (अनिराहितः) = बाहर स्थापित नहीं किया जाता, अर्थात् यदि हममें मांसभक्षण की प्रवृत्ति आ जाती है, तो यह भक्षण प्रवृत्ति (ज्येष्ठस्य पुत्रस्य) = ज्येष्ठ पुत्र के (द्विभागधनम् आदाय) = दुगने भाग में प्राप्त हुए-हुए धन को भी (अवर्त्या प्रक्षिणाति) = दरिद्रता से विनाश कर देती है। [अवर्ति Bad fortune, poverty]। २. मांसभक्षण की प्रवृत्ति भाइयों के पारस्परिक प्रेम को भी कम कर देती है। उनके दायविभाग में भी कलह उत्पन्न हो जाते हैं। बड़ा भाई दुगुना हड़पने की वृत्तिवाला बनता है, परन्तु यह दुगुना धन भी उसका मांसभक्षण आदि दुर्व्यसनों में समाप्त हो जाता है। इस घर में दरिद्रता व दौर्भाग्य का राज्य हो जाता है।
भावार्थ
मांसभक्षण से परस्पर प्रेम नहीं रहता। भाई आपस में दायविभाग पर ही लड़ पड़ते हैं। यदि अन्याय से बड़ा लड़का दुगना धन ले भी लेता है, तो भी वह शीघ्र ही धन को व्यसनों में समाप्त करके दरिद्र हो जाता है।
भाषार्थ
(यः) जो (क्रव्याद् अग्निः) मांस-मक्षक अग्नि (अनिराहितः) निराहित नहीं की गई, हटाई नहीं गई, वह (ज्येष्ठस्य पुत्रस्य) बड़े पुत्र के (द्विभागधनम्) दो भागों के धन को (आदाय) छीन कर, (अवर्त्या) वृत्ति के अभाव द्वारा (प्रक्षिणाति) उसे क्षीण करती रहती हैं।
टिप्पणी
[अनिराहितः; निर्+आहितः= आहित अग्नि को निकाल देना। अ+ निराहितः= आहित अग्नि को न निकालना, न पृथक करना। मन्त्र में "क्रव्याद्" द्वारा, क्रव्याद् के हेतुभूत यक्ष्मरोग का वर्णन किया है। दोनों ही क्रव्याद है मांसभक्षक हैं। क्रव्याद् अर्थात् शवाग्नि तो स्पष्टतया मांसभक्षक है ही, जोकि हमारे संमुख ही शव का भक्षण कर रही होती है। यही अवस्था यक्ष्मरोग की है। यक्ष्म रोग शनैः-शनैः रोगी के मांस को खाता जाता है इस लिये मन्त्र में यक्ष्म को भी क्रव्याद् कहा है। यक्ष्मरोग भयानक होता है। उग्रावस्था में यह रोग रोगी के समग्र धन का भी व्यय करा देता है। यदि बड़े भाई को यह रोग हो जाय तो दायभाग में मिले उस के दुगने धन को भी चिकित्सा में व्यतीत करा कर, उसे वृत्तिरहित कर, क्षीण कर देता है। अतः अग्निरूप इस भक्षक यक्ष्मरोग को, शरीर से यथासम्भव अनुग्रावस्था में ही पृथक करने का यत्न करना चाहिये। मन्त्र में पिता की जायदाद के बटवारे में ज्येष्ठ पुत्र को दो भाग देने का विधान किया है, और अन्यों को एक-एक भाग। अवर्तिः = अ + वर्तिः (उणा० ४।१४२]।
विषय
क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(यः) जो (क्रव्याद्) शव को खाने वाला (अग्निः) अग्नि (अ निर् आहितः) गार्हपत्य अग्नि से पृथक् न किया जाय तो वह (ज्येष्ठस्य) जेठे (पुत्रस्य) पुत्र का (द्विभागं धनम्) दो भाग, दुगुना धन (आदाय) लेकर (अवर्त्या) असत्, उपद्रव और विनाश से (प्र क्षिणाति) विनाश कह देता है। अर्थात् पिता आदि का और्ध्वदौहिक कार्य भी घर के सामान्य धन में से किया जाय, नहीं तो बाद में परस्पर भाई भाई फूटकर लोग परस्पर उपद्रव से नष्ट हो जाते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Yakshma Nashanam
Meaning
Kravyadagni, unless it is propitiated, exhausted and extinguished by elimination of the cause, continues to consume and deplete the wealth of the eldest son upto the double of his share of wealth, savings and earnings both, and thus reduces him to utter poverty.
Translation
The flesh-eating Agni that is unremoved, taking to himseif the double-portioned riches of the oldest son, destroys him with ruin.
Translation
The Kravyad fire not separated from house-hold and this used in the place of house-hold takes the double share of wealth of the eldest son and spoils him with poverty.
Translation
A voracious vice, not banished, snatches double the wealth of a great reformer, and crushes him with poverty.
Footnote
Double wealth: The fruit of good acts performed in the past life and present one. Reformers should purge themselves of all vices. Even one vice unaverted is adequate to bring about his fall.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३५−(द्विभागधनम्) सञ्चितक्रियमाणपुण्यभागयुक्तं धनम् (आदाय) गृहीत्वा (प्र) सर्वथा (क्षिणाति) क्षि हिंसायाम्−लट्। क्षिणोति। नाशयति (अवर्त्या) वृतु−इन्। वृत्या जीविकाया राहित्येन (अग्निः) अग्निवत्सन्तापको दोषः (पुत्रस्य) पुवो ह्रस्वश्च। उ० ४।१६५। पूञ् शोधने−क्त। शोधकस्य पुरुषस्य (ज्येष्ठस्य) प्रशस्य−इष्ठन्, ज्य च। प्रशस्यतमस्य। श्रेष्ठस्य (यः) (क्रव्यात्) मांसभक्षकः (अनिराहितः) दधातेः−क्त। अबहिष्कृतः ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal