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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 4
    ऋषिः - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
    1

    यद्य॒ग्निः क्र॒व्याद्यदि॒ वा व्या॒घ्र इ॒मं गो॒ष्ठं प्र॑वि॒वेशान्यो॑काः। तं माषा॑ज्यं कृ॒त्वा प्र हि॑णोमि दू॒रं स ग॑च्छत्वप्सु॒षदोऽप्य॒ग्नीन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यदि॑। अ॒ग्नि: । क्र॒व्य॒ऽअत् । यदि॑ । वा॒ । व्या॒घ्र: । इ॒मम् । गो॒ऽस्थम् । प्र॒ऽवि॒वेश॑ । अनि॑ऽओका: । तम् । माष॑ऽआज्यम् । कृ॒त्वा । प्र । हि॒णो॒मि॒ । दू॒रम् । स: । ग॒च्छ॒तु॒ । अ॒प्सु॒ऽसद॑: । अपि॑ । अ॒ग्नीन् ॥२.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्यग्निः क्रव्याद्यदि वा व्याघ्र इमं गोष्ठं प्रविवेशान्योकाः। तं माषाज्यं कृत्वा प्र हिणोमि दूरं स गच्छत्वप्सुषदोऽप्यग्नीन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यदि। अग्नि: । क्रव्यऽअत् । यदि । वा । व्याघ्र: । इमम् । गोऽस्थम् । प्रऽविवेश । अनिऽओका: । तम् । माषऽआज्यम् । कृत्वा । प्र । हिणोमि । दूरम् । स: । गच्छतु । अप्सुऽसद: । अपि । अग्नीन् ॥२.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (यदि) यदि (क्रव्यात्) मांसभक्षक (अग्निः) अग्नि [समान सन्तापक], (यदि वा) अथवा यदि (अन्योकाः) अपनी माँद से निकले हुए (व्याघ्रः) बाघ [समान दुष्ट पुरुष] ने (इमम्) इस (गोष्ठम्) गोष्ठ [वार्तालाप स्थान] में (प्रविवेश) प्रवेश किया है। (तम्) उस [दुष्ट जन] को (माषाज्यम्) वध के साथ संयुक्त (कृत्वा) करके (दूरम्) दूर (प्र हिणोमि) भेजता हूँ, (सः) वह [दुष्ट] (अप्सुषदः) प्राणों में कष्ट देनेवाले (अग्नीन्) अग्नियों [अग्नि के सन्तापों] को (अपि) ही (गच्छतु) पावे ॥४॥

    भावार्थ

    जो दुराचारी छल-बल करके प्रजा के समाज, विद्यालय आदि उन्नतिस्थान में विघ्न डाले, उसको धार्मिक राजा दण्ड द्वारा अनेक सन्ताप देवे ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(यदि) सम्भावनायाम् (अग्निः) अग्निवत् सन्तापकः (क्रव्यात्) मांसभक्षकः क्रूरः पुरुषः (यदि) (वा) अथवा (व्याघ्रः) व्याघ्रवत् क्रूरः (इमम्) (गोष्ठम्) वाचनालयम् (प्रविवेश) (अन्योकाः) ओकसः स्वविलाद् बहिर्भूतः (तम्) (माषाज्यम्) मष वधे−घञ्+आ+अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु−क्यप्। वधेन हननेन सर्वतः संयुक्तम् (कृत्वा) विधाय (प्र हिणोमि) प्रेरयामि (दूरम्) (सः) (गच्छतु) प्राप्नोतु (अप्सुषदः) अप्सु+षद्लृ विषादे−क्विप्। प्राणेषु विषादयितॄन्। अप्सु=प्राणेषु−दयानन्दभाष्ये, यजुः० ८।२५। (अपि) एव (अग्नीन्) अग्निसन्तापान् ॥

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    विषय

    'क्रव्याद् अग्नि व व्याघ्र' का दूरीकरण

    पदार्थ

    १. (यदि) = यदि (क्रव्यात् अग्निः) = प्रजा के मांस को खानेवाला कोई प्रजापीड़क राक्षसीवृत्तिवाला मनुष्य (वा) = अथवा (अनि ओका:) = न निश्चित निवास-स्थानवाला कोई (व्याघ्रः) = व्याघ्र-हिंस्र पशु (इमं गोष्ठं प्रविवेश) = इस गोष्ठ में-गौवों के निवास-स्थान में प्रविष्ट हुआ है तो (तम्) = उसको (माषाज्यं कृत्वा) = [मष् हिंसायाम, आजि-युद्धसाधनं आज्यम्-शस्त्र । अज् गतिक्षेपणयोः । वनो हि आग्यम्-श० १.३.२.१७] हिंसक शस्त्र बनाकर (दूरं प्रहिणोमि) = दूर प्रेरित करता हूँ। तीर [नड] व गोली [सीसे] द्वारा उसे दूर भागता हूँ। २. यह 'क्रव्याद् अग्नि व व्याघ्र'(अप्सुषदः) = प्रजाओं में आसीन होनेवाले (अग्नीन्) = राजपुरुषों की (अपि एतु) = ओर प्राप्त होनेवाला हो, अर्थात् राजपुरुष इन क्रव्याद् अग्नियों व व्याघ्रों को प्रजा से दूर रखने की व्यवस्था करें। ये (अप्सर) = [अप् सर officers] प्रजा में विचरण करते हुए इन क्रव्यादों व व्याघ्रों से प्रजा को पीड़ित न होने दें।

    भावार्थ

    राजपुरुष दुर दफ्तरों में ही न बैठे रहकर प्रजाओं में विचरण करनेवाले बनें। इसप्रकार वे प्रजा में प्रवेश कर जानेवाले क्रव्याद् अग्नि [राक्षसों] व व्याघ्रों से प्रजा को बचाएँ।

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    भाषार्थ

    (यदि क्रव्याद् अग्निः) यदि मांसभक्षक अग्नि, (यदि वा) अथवा (अन्योकाः१) अन्य घर वाला (व्याघ्रः) क्रव्याद् अग्निरूपी व्याघ्र (इमं गोष्ठम्) इस इन्द्रियों के निवास स्थान शरीर में (प्रविवेश) प्रविष्ट हो गया है, तो (तम्) उस क्रव्याद् अग्निरूपी व्याघ्र को, (माषाज्यम्) उर्द और घृतयुक्त या उर्द और अजाघृत युक्त करके (दूरं प्रहिणोमि) मैं दूर करता हूं। (सः) वह क्रव्याद् अग्नि (अप्सु सदः अपि अग्नीन् गच्छतु) जलों में स्थित अग्नियों को भी प्राप्त हो।

    टिप्पणी

    [क्रव्याद्-अग्नि है, यक्ष्मरोग। यह शरीर को खा जाती है, भस्मीभूत कर देती है। यह व्याघ्र रूप है। इस का घर अन्य है, यक्ष्मरोग के कीटाणु१। गोष्ठम् = गावः इन्द्रियाणि+स्थ। माषाज्यम्= उर्द और शुद्ध घृत या अजाघृत के सेवन से यक्ष्मरोगाग्नि दूर हो जाती हैं। कौशिकसूत्र ७१।६ के अनुसार माष, आज्य और शुक्ति (मोती) की आहुतियों का विधान है। आहुतियां बाह्य अग्नि में तथा जाठराग्नि में देनी चाहिये। यक्ष्माग्नि की निवृत्ति के लिये जल चिकित्सा तथा जलों द्वारा प्राप्त वैद्युताग्नि का भी विधान प्रतीत होता है। यथा “अप्सुषदोऽप्यनीन्। व्याघ्रः = अथर्ववेद में व्याघ्र पद गौणार्थक भी है। यथा (१२।२।४३)। तथा चबाने की दो दाढ़ें = व्याघ्रौ (६।१४०।१)। व्याघ्रः = राजा (अथर्व० ४।८।४; ८।५।१२) इत्यादि]। [१. अथवा क्रव्याद्-अग्नि को यतः व्याघ्र कहा है, परन्तु व्याघ्रों का ओकः अर्थात् घर होता है जङ्गल, नकि प्राणियों के शरीर, अतः व्याघ्राग्नि को अन्योकाः कहा है। वेदों में रोग के कीटाणुओं को पिशाच कहा है, अर्थात् पिशित (मांस) की याचना करने वाले। अच= याचने (भ्वादि)।]

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    विषय

    क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (यदि) यदि (क्रव्याद् अग्निः) कच्चा मांस खाने वाला, अग्नि के समान पीड़ाकारी जन, (यदि वा व्याघ्रः) और यदि हिंसक पशु बाघ या बाघ के समान हिंसक और चोर, डाकू पुरुष (अ-नि-ओकः) बिना घरवार का, जंगली या आवारागर्द (इमं गोष्ठम्) इस गोशाला या प्रजानिवेश में (प्रविवेश) आघुसे तो (तम्) उसको (माषाज्यं कृत्वा) (माषाज्यं) मारने योग्य शस्त्र (कृत्वा) तैयार करके (दूरं प्रहिणोमि) हम दूर निकाल जावें। (स) वह (अप्सुषदः) प्रजाओं में अधिकारी रूप से विराजमान शासक (अग्नीन्) अग्नि के समान, अपराधी को दण्डित करने वालों के समक्ष (अपि) भी (गच्छतु) जावे। और अपना दण्ड पावे।

    टिप्पणी

    ‘माष’-‘आज्यम्’—‘मष’ हिंसार्थः (भ्वादि) माषः = हिंसा, आज्यं आजि साधनं आज्यं। युद्ध के साधन शस्त्र का नाम ‘आज्य’ हैं अतः ‘माष-आज्य’ = हिंसाकारी शस्त्र। तेजो वा आज्यम्। ता० १२। १०। १८॥ वज्रो हि आज्यम् शा ० १। ३। २। १७॥ आज्येन वै देवा सर्वान् कामान् अजयन्। कौ० १४। १॥ यदाज्यै देवा जयन्त आयन् तदाज्यानामाज्यत्वम्। ऐ० २। ३६॥ यदाजिमायन् तदाज्यानामाज्यत्वम्। (आज्यानि शास्त्राणि, स्तोत्राणि) तां० ७। २। १। (द्वि०) ‘अन्योकाः प्रविवेश’, (तृ०) ‘तमाषा’ इति मै० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yakshma Nashanam

    Meaning

    If the flesh-eating fire, that is, cancerous disease that consumes the patient’s flesh enters the house or stall like carnivorous beasts on the prowl, I deal with it with Masha paste and ghrta,specially of goat or sheep, and send it far out where it might join other forms of fire such as electric energy in the waters.

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    Translation

    If the flesh-eating Agni, or if the tiger-like, hath entered this stall, being not at home, him having made him to have beans for sacrificial butter, I send far forth; let him go unto the Agnis that have seat in the waters.

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    Translation

    If the fire: fever heat eating the flesh of body enters into body and organic ........ if the tiger leaving its lair enters into the stable of cows, we (in both cases) using fire in medical treatment and making weapon by fire drive away them. Let that fever and tiger go to the fires: electricities which lie in herbs and waters.

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    Translation

    If a meat-eater virulent like fire, or a person violent like a tiger, wandering, having no home, enters our Assembly-Hall, I turn him away with a deadly weapon. Let him appear before the strict officials of the King who rules over his subjects.

    Footnote

    अप्सु: प्रजासु।

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(यदि) सम्भावनायाम् (अग्निः) अग्निवत् सन्तापकः (क्रव्यात्) मांसभक्षकः क्रूरः पुरुषः (यदि) (वा) अथवा (व्याघ्रः) व्याघ्रवत् क्रूरः (इमम्) (गोष्ठम्) वाचनालयम् (प्रविवेश) (अन्योकाः) ओकसः स्वविलाद् बहिर्भूतः (तम्) (माषाज्यम्) मष वधे−घञ्+आ+अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु−क्यप्। वधेन हननेन सर्वतः संयुक्तम् (कृत्वा) विधाय (प्र हिणोमि) प्रेरयामि (दूरम्) (सः) (गच्छतु) प्राप्नोतु (अप्सुषदः) अप्सु+षद्लृ विषादे−क्विप्। प्राणेषु विषादयितॄन्। अप्सु=प्राणेषु−दयानन्दभाष्ये, यजुः० ८।२५। (अपि) एव (अग्नीन्) अग्निसन्तापान् ॥

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