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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 27
    ऋषिः - भृगुः देवता - मृत्युः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
    1

    उत्ति॑ष्ठता॒ प्र त॑रता सखा॒योऽश्म॑न्वती न॒दी स्य॑न्दत इ॒यम्। अत्रा॑ जहीत॒ ये अस॒न्नशि॑वाः शि॒वान्त्स्यो॒नानुत्त॑रेमा॒भि वाजा॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । ति॒ष्ठ॒त॒ । प्र । त॒र॒त॒ । स॒खा॒य॒: । अश्म॑न्ऽवती । न॒दी । स्य॒न्द॒ते॒ । इ॒यम् । अत्र॑ । ज॒ही॒त॒ । ये । अस॑न् । अशि॑वा: । शि॒वान् । स्यो॒नान् । उत् । त॒रे॒म॒ । अ॒भि । वाजा॑न् ॥२.२७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्तिष्ठता प्र तरता सखायोऽश्मन्वती नदी स्यन्दत इयम्। अत्रा जहीत ये असन्नशिवाः शिवान्त्स्योनानुत्तरेमाभि वाजान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । तिष्ठत । प्र । तरत । सखाय: । अश्मन्ऽवती । नदी । स्यन्दते । इयम् । अत्र । जहीत । ये । असन् । अशिवा: । शिवान् । स्योनान् । उत् । तरेम । अभि । वाजान् ॥२.२७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 27
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (सखायः) हे मित्रो ! (उत् तिष्ठत) उठो, और (प्र तरत) उतर चलो, (इयम्) यह (अश्मन्वती) [बहुत पत्थरोंवाली] [दुस्तर] (नदी) नदी (स्यन्दते) बहती है। (ये) जो [पदार्थ] (अत्र) यहाँ [इस जगह वा समय] (अशिवाः) अमङ्गलकारी (असन्) होवें, [उन्हें] (जहीत) छोड़ो, (शिवान्) मङ्गलकारी और (स्योनान्) आनन्दकारी (वाजान् अभि) अन्न आदि भोगों की ओर (उत्तरेम) हम उतरें ॥२७॥

    भावार्थ

    जैसे मनुष्य बड़े दुर्गम्य समुद्र आदि को नौका आदि से पार करते हैं, वैसे ही उद्योगी मनुष्य प्रयत्न करके शुभ आचरणों के साथ दुःख से पार होकर आनन्द पाते हैं ॥२७॥ इस मन्त्र में मन्त्र २६ में वर्णित मन्त्रों के कुछ भाग हैं ॥

    टिप्पणी

    २७−(उत् तिष्ठत) उत्थिता भवत (उत्तरत) पारयत (सखायः) हे सुहृदः (अश्मन्वती) बहुपाषाणवती। दुस्तरा (नदी) (स्यन्दते) स्रवति (इयम्) (अत्र) अस्मिन् स्थाने समये वा (जहीत) त्यजत (ये) पदार्थाः (असन्) भवन्तु (अशिवाः) अमङ्गलाः (शिवान्) मङ्गलकरान् (स्योनान्) सुखप्रदान् (उत्तरेम) पारयेम (अभि) अभिलक्ष्य (वाजान्) अन्नादिभोगान् ॥

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    विषय

    अशिव-त्याग व शिव-प्राप्ति

    पदार्थ

    १. हे (सखायः) = मित्रो! (उत्तिष्ठत) = उठो-आलस्य को छोड़ो। (प्रतरत) = इस नदी को तैरने के लिए यत्नशील होओ। (इयम्) = यह (अश्मन्वती) = पथरीली-प्रलोभन-पाषाणों से परिपूर्ण (नदी) = संसाररूप नदी (स्यन्दते) = बह रही है। २. (ये अशिवा: असन्) = जो भी अकल्याणकर पदार्थ हों, (अत्रा जहीत) = उन्हें यहाँ ही छोड़ जाओ। (स्योनान्) = सुखकर (शिवान्) = कल्याण के साधक (वाजान् अभि) = बलों का लक्ष्य करके (उत्तरेम) = हम नदी को पार कर जाएँ। अशुभ कर्मों का बोझ हमें इस नदी में डुबोएगा ही-परस्पर लड़ते हुए भी हम इस नदी में डूबेंगे ही, अतः सखा बनकर तथा अशिवों को छोड़कर हम इस नदी को तैरने का प्रयत्न करें।

    भावार्थ

    इस संसार-नदी को तैरने के लिए आवश्यक है कि [क] आलस्य को छोड़ा जाए [ख] मित्रभाव से सबके साथ वर्ता जाए [ग] अशुभों को छोड़ने का प्रयत्न किया जाए।

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    भाषार्थ

    (सखायः) हे मित्रो ! (उत्तिष्ठत) उठो, (प्रतरता) और तैरो, (इयम्) यह (अश्मन्वती) पथरीली (नदी) रोगाक्रान्त जीवनरूप नदी (स्यन्दते) बह रही है। (अत्रा) यहीं अर्थात् इस संगठन में ही (जहीत) छोड़ दो, त्याग दो (ये) जो कि (अशिवाः असन्) अकल्याणकारी कर्म हैं, (शिवान्) कल्याणकारी (स्योनान्) और सुखदायक (वाजान्) अन्नों को (अभि) लक्ष्य करके (उत्तरेम) हम तैर जायें, पार हो जायें।

    टिप्पणी

    [अशिवाः = रोग और तज्जन्य कर्म। शिवान् =स्वास्थ्यकारी, अन्न, औषध, तथा कर्म। तरेम = रोग के कष्टों से पार हो जायें]।

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    विषय

    क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (सखायः) मित्रो ! (इयम्) यह संसार रूप साक्षात् (अश्मन्वती) पत्थरों और शिलाओं से भरी (नदी) नदी (स्यन्दते) बह रही है। (उत्तिष्ठत) उठो और (प्र तरत) अच्छी प्रकार तैरो और पार करो। (ये) जो (शिवाः) अमङ्गलकारी, बुरे लोग (असन्) हैं उनको (अत्रा) यहां ही (जहीत) छोड़ दो। (शिवान्) शिव, मङ्गलकारी (वाचान् = वाजान्) सुखमय लोकों को (उत्तरेम) प्राप्त हों। पूर्व मन्त्र के साथ तुलना करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yakshma Nashanam

    Meaning

    Arise friends, heave the boat together and cross to the shore. This rocky stream now rises in storm. Here itself throw off all those things which are no good, and let us cross over to win the good, the beautiful, and the grand prizes of victory in truth.

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    Translation

    Stand up, pass over, O friends; the stony river here runs; quit ye here them that are unpropitious; may we pass up unto propitious pleasant powers.

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    Translation

    O my worldly companions, rise up erect, cross over, the river (in the form of world present to us) that flows before us is stony. Abandon here the powers which are ungracious and let us cross to powers auspicious and favorable.

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    Translation

    O friends, rise up erect, this stormy stream of the world is flowing fast before us. Abandon in it your malignant sins, let us obtain powers benign and friendly.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २७−(उत् तिष्ठत) उत्थिता भवत (उत्तरत) पारयत (सखायः) हे सुहृदः (अश्मन्वती) बहुपाषाणवती। दुस्तरा (नदी) (स्यन्दते) स्रवति (इयम्) (अत्र) अस्मिन् स्थाने समये वा (जहीत) त्यजत (ये) पदार्थाः (असन्) भवन्तु (अशिवाः) अमङ्गलाः (शिवान्) मङ्गलकरान् (स्योनान्) सुखप्रदान् (उत्तरेम) पारयेम (अभि) अभिलक्ष्य (वाजान्) अन्नादिभोगान् ॥

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