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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 51
    ऋषिः - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
    1

    येश्र॒द्धा ध॑नका॒म्या क्र॒व्यादा॑ स॒मास॑ते। ते वा अ॒न्येषां॑ कु॒म्भीं प॒र्याद॑धति सर्व॒दा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । अ॒श्र॒ध्दा: । ध॒न॒ऽका॒म्या । क्र॒व्य॒ऽअदा॑ । स॒म्ऽआस॑ते । ते । वै ।‍ अ॒न्येषा॑म् । कु॒म्भीम् । प॒रि॒ऽआद॑धति । स॒र्व॒दा ॥२.५१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येश्रद्धा धनकाम्या क्रव्यादा समासते। ते वा अन्येषां कुम्भीं पर्यादधति सर्वदा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । अश्रध्दा: । धनऽकाम्या । क्रव्यऽअदा । सम्ऽआसते । ते । वै ।‍ अन्येषाम् । कुम्भीम् । परिऽआदधति । सर्वदा ॥२.५१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 51
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    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (ये) जो (अश्रद्धाः) श्रद्धाहीन (धनकाम्या) धन की कामना से (क्रव्यादा) मांसभक्षक [पाप] के साथ (समासते) मिलकर बैठते हैं। (ते) वे लोग (वै) निश्चय कर के (अन्येषाम्) दूसरों की (कुम्भीम्) हाँडी को (सर्वदा) सदा (पर्यादधति) चढ़ाते हैं ॥५१॥

    भावार्थ

    जो लोग परमेश्वर में श्रद्धा नहीं रखते और कुकर्मों में फँस कर पाप करते हैं, वे निर्धनी होकर पराधीन होते हैं ॥५१॥

    टिप्पणी

    ५१−(ये पुरुषाः) (अश्रद्धाः) श्रद्धाहीनाः (धनकाम्या) वसिवपियजि०। उ० ४।२५। कमु कान्तौ−इञ्। धनस्य कामनया (क्रव्यादा) मांसभक्षकेण पापेन सह (समासते) मिलित्वा तिष्ठन्ति (ते) पुरुषाः (वै) निश्चयेन (अन्येषाम्) (कुम्भीम्) उखाम्। स्थालीम् (पर्य्यादधति) चुल्लिप्रदेशे स्थापयन्ति (सर्वदा) ॥

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    विषय

    पर-कुम्भी का अपहरण

    पदार्थ

    १. (ये) = जो (अश्रद्धा:) = प्रभु तथा धर्मकृत्यों में श्रद्धावाले न होते हुए (धनकाम्या) = धन की कामना से (क्रव्यादा) = मांसाहारी पुरुषों के साथ (समासते) = उठते-बैठते हैं, (ते) = वे (वै) = निश्चय से (सर्वदा) = सदा (अन्येषाम्) = दूसरों की (कुम्भीम् पर्यादधति) = कुम्भी पर ही मन को लगाये रखते हैं। यहाँ 'कुम्भी' शब्द 'छोटे से कोश' के लिए प्रयुक्त हुआ है। ये लोग दूसरों के कोश का अपहरण करना चाहते हैं। इनकी प्रवृत्ति छलछिद्र से पराय धन को लूटने की बन जाती है।

    भावार्थ

    श्रद्धाशून्य व धन की लालसावाला पुरुष मांसाहारियों के संग से दूसरों के धनों को छीनने की मनोवृत्तिवाला बन जाता है।

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    भाषार्थ

    (ये) जो (अश्रद्धाः) श्रद्धा विहीन व्यक्ति (क्रव्याद्) क्रव्याद् के साथ (समासते) रल-मिल कर रहते हैं। (धनकाम्याः) और धन की कामना वाले होते हैं, (ते वै) वे निश्चय से (सर्वदा) सब जीवन काल तक (अन्येषाम्) दूसरों की (कुम्भीम्) हंडियां को (पर्यादधति) अग्नि पर चढ़ाते रहते हैं।

    टिप्पणी

    [जो वेदोपदिष्ट कर्तव्यों पर श्रद्धा नहीं रखते, वे कुकर्मों के मार्ग पर चलते हुए, क्रव्याद् के संगी-साथी बन कर, धन का अपव्यय कर धनविहीन हो जाते, और धनप्राप्ति की कामना से दूसरों की पाकशालाओं में पाचक बने रहते हैं। कुमार्ग पर चलने से व्यक्ति अल्पायु हो जाता है, मानो क्रव्याद् उस पर शीघ्र आक्रमण कर देती है।

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    विषय

    क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (ये) जो लोग (अश्रद्धाः) श्रद्धा, सत्य धारणा से रहित, नास्तिक, उच्छृंखल होकर (धनकाम्याः) धन के लोभी (क्रव्यादा) मांसभक्षी जन के संग (सम् आसते) बैठते और उनका सा पेशा करते हैं (ते वा) वे भी (सर्वदा) सदा (अन्येषाम्) औरों की (कुम्भीम्) हांडी पर ही (परि आदधति) अपनी प्राश बांधे रहते हैं। वे भी सदा के लिये दूसरों के आश्रित रहते हैं, अपना स्वतन्त्र घर न बनाकर दूसरे के पदार्थों पर चोरी करते हैं।

    टिप्पणी

    ‘धनकाम्यान् क्रव्यादसमा’० इति बहुत्र पाठ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yakshma Nashanam

    Meaning

    Those who are void of faith and truth and dedicated to lust for wealth of money align themselves with carnivorous fire, they always put the pan on the fire but the pan as well as the meat belongs of others, invariably.

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    Translation

    Whoever, without faith, from desire of riches then sit together with the flesh-eating one, they verily feed the fire about the pot of others.

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    Translation

    They who are faithless and greedy after wealth and are violent, or living on others cost, always depend or keep their eyes on the cooking caldron of others, not on their own.

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    Translation

    The faithless, full of greed for wealth, who sit together to take meat, for ever set upon the fire the cauldron of others, not their own,

    Footnote

    Faithless, greedy persons, having no resources of their own always depend upon the charity of others.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५१−(ये पुरुषाः) (अश्रद्धाः) श्रद्धाहीनाः (धनकाम्या) वसिवपियजि०। उ० ४।२५। कमु कान्तौ−इञ्। धनस्य कामनया (क्रव्यादा) मांसभक्षकेण पापेन सह (समासते) मिलित्वा तिष्ठन्ति (ते) पुरुषाः (वै) निश्चयेन (अन्येषाम्) (कुम्भीम्) उखाम्। स्थालीम् (पर्य्यादधति) चुल्लिप्रदेशे स्थापयन्ति (सर्वदा) ॥

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