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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 18
    ऋषिः - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - निचृदनुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
    1

    समि॑द्धो अग्न आहुत॒ स नो॒ माभ्यप॑क्रमीः। अत्रै॒व दी॑दिहि॒ द्यवि॒ ज्योक्च॒ सूर्यं॑ दृ॒शे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम्ऽइ॑ध्द: । अ॒ग्ने॒ । आ॒ऽहु॒त॒: । स: । न॒: । मा । अ॒भि॒ऽअप॑क्रमी: । अत्र॑ । ए॒व । दी॒दि॒हि॒ । द्यवि॑ । ज्योक् । च॒ । सूर्य॑म् । दृ॒शे ॥२.१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समिद्धो अग्न आहुत स नो माभ्यपक्रमीः। अत्रैव दीदिहि द्यवि ज्योक्च सूर्यं दृशे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्ऽइध्द: । अग्ने । आऽहुत: । स: । न: । मा । अभिऽअपक्रमी: । अत्र । एव । दीदिहि । द्यवि । ज्योक् । च । सूर्यम् । दृशे ॥२.१८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 18
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (अग्ने) हे अग्नि [समान तेजस्वी पुरुष !] (सः) सो तू (समिद्धः) यथावत् प्रकाशित और (आहुतः) आहुति दिया गया [भक्ति किया गया] होकर (नः) हमें (मा अभ्यपक्रमीः) छोड़कर मत जा, (अत्र एव) यहाँ ही [इस जन्म में] (द्यवि) प्रत्येक व्यवहार में [वर्तमान] (सूर्यम्) सूर्य [सब के चलानेवाले परमेश्वर] के (दृशे) देखने के लिये (ज्योक्) बहुत काल तक (च) निश्चय करके (दीदिहि) प्रकाशमान हो ॥१८॥

    भावार्थ

    मनुष्य को उचित है कि परमात्मा के ज्ञानपूर्वक विद्या शूरता आदि गुणों से तेजस्वी होकर कीर्ति प्राप्त करे ॥१८॥ इस मन्त्र का अन्तिम पाद आ चुका है−अ० १।६।३ ॥

    टिप्पणी

    १८−(समिद्धः) प्रकाशितः (अग्ने) हे अग्निवत्तेजस्विन् पुरुष (आहुतः) आहुत्या भक्त्या पूजितः (सः) स त्वम् (नः) अस्मान् (मा अभ्यपक्रमीः) अपक्रम्य मा गच्छ (अत्र) अस्मिञ्जन्मनि (एव) अवश्यम् (दीदिहि) अ० २।६।१। दीप्यस्व (द्यवि) दिवु व्यवहारे−डिवि। प्रत्येकव्यवहारे (ज्योक्) अ० १।६।३। चिरकालम् (च) निश्चयेन (सूर्यम्) जगतः प्रेरकं परमात्मानम् (दृशे) द्रष्टुम् ॥

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    विषय

    मा अपक्रमी:

    पदार्थ

    १. हे (आहुत) = [आ हुतं यस्य] समन्तात् विविध दानोंवाले (अग्ने) = अग्नणी प्रभो ! (समिद्धः) = आप हमारे द्वारा हृदयदेश में समिद्ध किये गये हो। (स:) = वे आप (न:) = हमसे (मा अभि अपक्रमी:) = दूर न होओ। हम आपसे कभी पृथक् न हों। २. (अत्र एव) = यहाँ हमारे हृदयों में ही (छवि दीदिहि) = अपने प्रकाशमयरूप में प्रदीप्त होओ। हम हदयों में आपके प्रकाश को सदा देखें। (च) = और (ज्योक्) = दीर्घकाल तक सूर्य दुशे सूर्य के दर्शन के लिए हों, अर्थात् दीर्घजीवी बनें।

    भावार्थ

    हम हदयों में सदा प्रभु के प्रकाश को देखें, प्रभु से कभी दूर न हों और इस प्रकार दीर्घजीवन को प्राप्त करें।

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    भाषार्थ

    (आहुत अग्ने) आहूति प्राप्त हे अग्नि ! (सः) वह तू (नः) हमारे (मा अभि अपक्रमीः) अभिमुख होकर क्रव्याद् रूप में निन्दनीय आक्रमण मत कर। (द्यवि) प्रतिदिन (अत्र) इस पृथिवी पर (एव) ही (दीदिहि) प्रकाशित हो, ताकि (ज्योक्) चिरकाल तक (सूर्यम् दृशे) सूर्य को हम देखें।

    टिप्पणी

    [द्यवि = द्यवि द्यवि अहर्नाम (निघं० १।९); तथा द्युः अहर्नाम (निघं० १।९); अग्नि में यदि यथोचित आहुतियां दी जांय तो यक्ष्म आदि से हमारी अकालमृत्युएं नहीं होती। अन्यथा क्रव्याद् का निन्दनीय अवाञ्छित आक्रमण होता रहता है। इसी लिये गार्हपत्याग्नि सदा घर में रहनी चाहिये,—ऐसा विधान है]।

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    विषय

    क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (आहुत) आहवनीय अग्ने ! परम पूजनीय परमात्मन् ! तू (सः) वह परम स्वरूप (समिद्धः) अत्यन्त दीप्त, तेजोमय है। (नः) तू हमें (मा) छोड़ कर मत (अभि अपक्रमीः) जा। तू (अत्र एव) हमारे घर में, प्रकाशमान यज्ञाग्नि के समान हमारे इस अन्तःकरण में (दीदिहि) प्रकाशित हो, जिससे (ज्योक् च) हम भी चिरकाल तक (द्यवि) आकाश में (सूर्यम्) सर्वप्रकाशक सूर्य के समान प्रकाशमान तुझ सूर्य को अपने अन्तःकरण में (दृशे) दर्शन करते रहें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yakshma Nashanam

    Meaning

    O sacred fire of Ahavaniyagni, kindled, raised and served with oblations of ghrta, pray do not neglect us, do not bypass us, nor assail us as Kravyadagni. Shine for us here itself in this very heaven on earth so that we may see the sun, light of heaven, right now for all time in our journey of life.

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    Translation

    Being kindled, O Agni, thou to whom oblations are made, go thou not away against us; shine just here by day, and that (we) long see the sun.

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    Translation

    Let not this fire which is enkindled and served with oblations leave us, let it blaze here in heavenly region and may we see long the sun.

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    Translation

    O Adorable God, Resplendent art Thou, Desert us not. Remain here in our heart, so that we may see Thee for long, as we see the lustrous Sun in heaven!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १८−(समिद्धः) प्रकाशितः (अग्ने) हे अग्निवत्तेजस्विन् पुरुष (आहुतः) आहुत्या भक्त्या पूजितः (सः) स त्वम् (नः) अस्मान् (मा अभ्यपक्रमीः) अपक्रम्य मा गच्छ (अत्र) अस्मिञ्जन्मनि (एव) अवश्यम् (दीदिहि) अ० २।६।१। दीप्यस्व (द्यवि) दिवु व्यवहारे−डिवि। प्रत्येकव्यवहारे (ज्योक्) अ० १।६।३। चिरकालम् (च) निश्चयेन (सूर्यम्) जगतः प्रेरकं परमात्मानम् (दृशे) द्रष्टुम् ॥

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