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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 47
    ऋषिः - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
    1

    इ॒ममिन्द्रं॒ वह्निं॒ पप्रि॑म॒न्वार॑भध्वं॒ स वो॒ निर्व॑क्षद्दुरि॒ताद॑व॒द्यात्। तेनाप॑ हत॒ शरु॑मा॒पत॑न्तं॒ तेन॑ रु॒द्रस्य॒ परि॑ पाता॒स्ताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम् । इन्द्र॑म् । वह्नि॑म् । पप्रि॑म् । अ॒नु॒ऽआर॑भध्वम् । स: । व॒: । नि: । व॒क्ष॒त् । दु॒:ऽइ॒तात्। अ॒व॒द्यात् । तेन॑ । अप॑ । ह॒त॒ । शरु॑म् । आ॒ऽपत॑न्तम् । तेन॑ । रु॒द्रस्य॑ । परि॑ । पा॒त॒ । अ॒स्ताम्॥२.४७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इममिन्द्रं वह्निं पप्रिमन्वारभध्वं स वो निर्वक्षद्दुरितादवद्यात्। तेनाप हत शरुमापतन्तं तेन रुद्रस्य परि पातास्ताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमम् । इन्द्रम् । वह्निम् । पप्रिम् । अनुऽआरभध्वम् । स: । व: । नि: । वक्षत् । दु:ऽइतात्। अवद्यात् । तेन । अप । हत । शरुम् । आऽपतन्तम् । तेन । रुद्रस्य । परि । पात । अस्ताम्॥२.४७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 47
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे मनुष्यों !] (वह्निम्) सब को चलानेवाले, (पप्रिम्) पूर्ण करनेवाले (इमम्) इस (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले जगदीश्वर] का (अन्वारभध्वम्) निरन्तर सहारा लो, (सः) वह (वः) तुम को (अवद्यात्) निन्दा से और (दुरितात्) कष्ट से (निः वक्षत्) निकालेगा। (तेन) उस [परमेश्वर] के साथ ही, (आपतन्तम्) आ पड़ते हुए (शरुम्) वज्र को (अप हत) नष्ट कर दो, (तेन) उसी के साथ, (रुद्रस्य) ज्ञाननाशक [शत्रु] के (अस्ताम्) चलाये हुए [तीर] को (परि पात) पृथक् रक्खो ॥४७॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य परमात्मा का आश्रय लेकर अपना कर्त्तव्य करते हैं, वे बुराइयों से बचकर दुष्टों के फन्दों में नहीं फँसते ॥४७॥

    टिप्पणी

    ४७−[इमम्] पूर्वोक्तम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं जगदीश्वरम् (वह्निम्) सर्ववोढारम् (पप्रिम्) आदृगमहनजनः किकिनौ लिट् च। पा० ३।२।१७१। प्रा पूरणे−किन्। पूरकम् (अन्वारभध्वम्) निरन्तरमवलम्बध्वम् (सः) परमेश्वरः (वः) युष्मान् (निर्वक्षत्) वहतेर्लेटि सिप्। निर्वहेत् (दुरितात्) कष्टात् (अवद्यात्) निन्द्यव्यवहारात् (तेन) इन्द्रेण सह (अपहत) नाशयत (शरुम्) वज्रम् (आपतन्तम्) (तेन) (रुद्रस्य) अ० २।२७।६। रु गतौ−क्विप्, तुक्+रु वधे−ड। रुत् ज्ञानं रवते नाशयतीति रुद्रः, तस्य ज्ञाननाशकस्य शत्रोः (परि) पृथग्भावे (पात) रक्षत (अस्ताम्) क्षिप्तामिषुम् ॥

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    विषय

    'पप्रि-वह्नि' प्रभु

    पदार्थ

    १.(इमन) = इस (इन्द्रम) = परमैश्वर्यशाली, (वहिम्) = लक्ष्य-स्थान पर पहुँचानेवाले [वह प्रापणे] (पप्रिम्) = सबका पालन व पूरण करनेवाले प्रभु के (अनु) = साथ (आरभध्वम्) = प्रत्येक कार्य का प्रारम्भ करो-प्रभुस्मरणपूर्वक प्रत्येक कार्य को करो। (सः) = वे प्रभु (वः) = तुम्हें (दुरितात्) = दुराचरण से व (अवद्यात) = सब निन्द्य कर्मों से (निर्वक्षत्) = दूर करेंगे। (तेन) = उस प्रभु के साथ, अर्थात् प्रभु की उपासना करते हुए तुमपर (आपतन्तं शरूम्) = गिरता हुआ अस्त्र (अपहत) = दूर नष्ट होता है। (तेन) = उस प्रभु के साथ होते हुए तुम (रुद्रस्य अस्ताम्) = [अस्तां-An arrow] रुद्र से फेंके गये बाण से (परिपात) = चारों ओर से बचाओ। ऐसा प्रयत्न करो कि यह रुद्र का बाण तुमपर न पड़े। प्रभु की उपासना हमें अन्त:शत्रुओं के आक्रमण व आधिदैविक आपत्तियों से बचाएगी।

    भावार्थ

    प्रभु हमें लक्ष्य-स्थान पर पहुँचानेवाले हैं, वे हमारा पालन व पूरण करनेवाले हैं। प्रभु हमें पापों से बचाते हैं। प्रभु की उपासना हमें आक्रमणकारी शत्रुओं से बचाती है तथा हम प्रभु के क्रोध-पात्र नहीं बनते।

     

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    भाषार्थ

    (वह्निम्) रोग को प्रवाहित करने वाले, (पप्रिम्) रोग द्वारा उत्पन्न क्षति को पूरित करने वाले (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवान् परमेश्वर का (अनु आरभध्वम्) निरन्तर आलम्बन करो, (सः) वह (वः) तुम्हें (अवद्यात्) गर्ह्य अर्थात् निन्दनीय (दुरितान्) दुःखफलक रोग से (निर्वक्षत्) छुड़ाएगा, निर्मुक्त करेगा। (तेन) उस की कृपा द्वारा (आपतन्तम्) आक्रमणकारी (शरुम्) जीर्ण-शीर्ण कर देने वाले रोग को (अपहत) दूर करो या उस का पूर्णतया हनन करो, (तेन) उस की कृपा द्वारा (रुद्रस्य) रुद्ररूपी रोगकीटाणु के (अस्ताम्) फैंके (शरुम्) विनाशक बाण को (अपहत) दूर करो या उस का पूर्णतया हनन करो, और (परि पात) अपनी सब ओर से, रक्षा करो (४७)

    टिप्पणी

    [पप्रिम् = प्रा यूरणे। शरुम्= शॄ हिंसायाम्। परमेश्वरोपासना द्वारा उसकी कृपा का आह्वान कर, दुःखों से छुटकारा पाने का यत्न करते रहना चाहिये]।

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    विषय

    क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (इमम्) इस (इन्द्रम्) ऐश्वर्यशील (वन्हिम्) राज्य-कार्य के भार को उठाने में समर्थ, नरपुङ्गव, (पप्रिम्) सब के पालक राजा को (अनु आ-रभध्वम्) उसके अनुकूल होकर, उसके समीप जाकर सब प्रकार से उसे प्राप्त करो उसे अपनाओ। (सः) वह राजा (वः) हमें (अवद्यात्) गर्हणीय, निन्दनीय (दुरितात्) दुष्ट, दुखदायी, पापाचरण से (निर् वक्षत्) पृथक् रखे। हे प्रजाजनो ! (तेन) उस राजा के बल से (शरुम्) हिंसक पुरुष को (अप हत) मारो। और (तेन) उसीके बल पर (रुद्रस्य) प्रजा को रुलाने वाले, उग्र चोर डाकू के (अस्ताम्) फेंके हुए शस्त्र अस्त्र से (परि पात) प्रजा की सब प्रकार से रक्षा करो। अथवा राजा के प्रबन्ध से ही रुद्र की फेंकी शक्ति वज्र = विद्युत् आदि देवी विपत्ति से भी प्रजा की रक्षा करे।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘स यो विद्वान् वि जहाति मृत्युम्’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yakshma Nashanam

    Meaning

    Take on to the love, protection and support of this Indra, divine power and potential. It takes you across all cancerous onslaughts of negativity, adversity and misfortune, makes up your loss and deficiency, and gives you total fulfilment. It saves and releases you from despicable evils and suffering. With that power, ward off the deadly darts of impending calamities and protect yourself from the punitive shots of Rudra, nature’s punishments for the violations of its law and discipline. (These are gifts of divine Garhapatyagni.)

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    Translation

    Take ye hold after this saving carrier Indra : he shall carry you out of difficulty and reproach; by him smite away the on-flying shaft; by him ward off Rudra’s hurled missile.

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    Translation

    Ye men, you utilize into your ventures the mighty, defensive fire and that may save you from acts of fatal nature. By this fire kill the enemy attacking you and protect you on all sides from the weapon used by the cruel enemy.

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    Translation

    Follow this king, the bearer of the burden of administration and the nourisher of his subjects. He will release you from trouble, and vice. With his help, O men, drive back the shaft that flies against you, with his aid, ward off the missile shot by a ferocious dacoit.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४७−[इमम्] पूर्वोक्तम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं जगदीश्वरम् (वह्निम्) सर्ववोढारम् (पप्रिम्) आदृगमहनजनः किकिनौ लिट् च। पा० ३।२।१७१। प्रा पूरणे−किन्। पूरकम् (अन्वारभध्वम्) निरन्तरमवलम्बध्वम् (सः) परमेश्वरः (वः) युष्मान् (निर्वक्षत्) वहतेर्लेटि सिप्। निर्वहेत् (दुरितात्) कष्टात् (अवद्यात्) निन्द्यव्यवहारात् (तेन) इन्द्रेण सह (अपहत) नाशयत (शरुम्) वज्रम् (आपतन्तम्) (तेन) (रुद्रस्य) अ० २।२७।६। रु गतौ−क्विप्, तुक्+रु वधे−ड। रुत् ज्ञानं रवते नाशयतीति रुद्रः, तस्य ज्ञाननाशकस्य शत्रोः (परि) पृथग्भावे (पात) रक्षत (अस्ताम्) क्षिप्तामिषुम् ॥

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