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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 44
    ऋषिः - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - एकावसाना द्विपदार्ची बृहती सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
    1

    अ॑न्त॒र्धिर्दे॒वानां॑ परि॒धिर्म॑नु॒ष्याणाम॒ग्निर्गा॑र्ह्पत्य उ॒भया॑नन्त॒रा श्रि॒तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒न्त॒:ऽधि: । दे॒वाना॑म् । प॒रि॒ऽधि: । म॒नु॒ष्या᳡णाम् । अ॒ग्नि: । गार्ह॑ऽपत्य: । उ॒भया॑न् । अ॒न्त॒रा । श्रि॒त: ॥२.४४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्तर्धिर्देवानां परिधिर्मनुष्याणामग्निर्गार्ह्पत्य उभयानन्तरा श्रितः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अन्त:ऽधि: । देवानाम् । परिऽधि: । मनुष्याणाम् । अग्नि: । गार्हऽपत्य: । उभयान् । अन्तरा । श्रित: ॥२.४४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 44
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    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    [जो] (देवानाम्) उत्तम गुणों का और (मनुष्याणाम्) [मननशील] मनुष्यों का (अन्तर्धिः) भीतर से धारण करनेवाला और (परिधिः) सब ओर से धारण करनेवाला है, [वह] (गार्हपत्यः) गृहपतियों से संयुक्त (अग्निः) ज्ञानस्वरूप [परमेश्वर] (उभयान् अन्तरा) दोनों पक्षों [उत्तम गुणों और मनुष्यों] के भीतर (श्रितः) ठहरा है ॥४४॥

    भावार्थ

    परमात्मा सब के भीतर और बाहिर व्यापक होकर सर्वनियन्ता है, उसे गृहपति विद्वान् लोग साक्षात् करके सुख पाते हैं ॥४४॥

    टिप्पणी

    ४४−(अन्तर्धिः) उपसर्गे घोः कि। पा० ३।३।९२। श्रदन्तरोरुपसर्गवद्वृतिः। वा० पा० ३।१०६। अन्तर्+डुधाञ् धारणपोषणयोः−कि। मध्ये धारकः (देवानाम्) दिव्यगुणानाम् (परिधिः) सर्वतो धारकः (मनुष्याणाम्) मननशीलानां जनानाम् (अग्निः) ज्ञानस्वरूपः परमेश्वरः (गार्हपत्यः) गृहपतिभिः संयुक्तः (उभयान्) देवमनुष्यान् (अन्तरा) मध्ये (श्रितः) स्थितः ॥

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    विषय

    अन्तर्धि-परिधि

    पदार्थ

    १. 'गार्हपत्य अग्नि' शब्द 'पिता' के लिए भी प्रयुक्त होता है ('पिता वै गार्हपत्योऽग्निः') मनु०। यह पिता जब प्रभु का उपासन करता है तब इस गृहपति से युक्त 'प्रभु' भी 'गार्हपत्य अग्नि' है। यह प्रभुरूप गार्हपत्य अग्नि (देवानां अन्तर्थि:) = देवों को अन्दर धारण करनेवाला है। प्रभुस्मरण से दिव्यगुणों का धारण होता है। यह गार्हपत्य अग्नि (मनुष्याणां परिधि:) = मनुष्यों का चारों ओर से धारण व रक्षण करनेवाला है। प्रभु उपासकों का रक्षण करते ही हैं। २. (गार्हपत्यः  अग्निः) = यह उपासना करनेवाले गृहपतियों से संयुक्त अग्रणी प्रभु (उभयान् अन्तरा श्रित:) = दोनों के बीच में श्रित हैं-स्थित हैं। ये प्रभु एक ओर हमें 'देव' बनाते हैं, दूसरी ओर 'मनुष्य'। प्रभु का उपासक देव तो बनता ही है-महादेव के सम्पर्क में देव नहीं बनेगा तो क्या बनेगा? यह उपासक इस प्राकृतिक संसार में भी सब कार्यों को मननपूर्वक करता है। मननपूर्वक कार्यों को करता हुआ ऐश्वर्यवान् तो बनता है, परन्तु उस ऐश्वर्य में फँसता नहीं।

    भावार्थ

    प्रभु 'गार्हपत्य अग्नि' हैं-प्रत्येक गृहपति से उपासना के योग्य हैं। यह उपासना उसे 'देव' व 'मनुष्य' बनाएगी।

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    भाषार्थ

    (अग्निः गार्हपत्यः) गार्हपत्य अग्नि (देवानाम्) देवों के (अन्तर्धिः) भीतर अर्थात् जीवन या आत्मा में स्थित होकर उनका धारण-पोषण करती है, और (मनुष्याणाम्) मनुष्यों के (परिधिः) बाहर स्थिर होकर उन का धारण-पोषण करती है, और (उभयान् अन्तरा) दोनों-रोगी होने वाले मनुष्य और रोग,–को व्यवहित करती हुई (श्रितः) रहती है।

    टिप्पणी

    [गार्हपत्य अग्नि में पुष्टिप्रद और रोगविनाशक पदार्थों की नियमपूर्वक आहूतियों द्वारा रोग, मनुष्य से दूर रहता है। संन्यासी हैं, देवकोटि के लोग। गार्हपत्य अग्नि इन की आत्माओं में आरोपित रहती है। यथा "आत्मन्यग्नीन् समारोप्य ब्राह्मणः प्रव्रजेद् गृहात्"। "ब्राह्मण अर्थात् ब्रह्मोपासक वेदानुसारी जीवन वाला व्यक्ति, निज आत्मा में अग्नियों को आरोपित कर गृहजीवन से ही प्रव्रज्या अर्थात् संन्यास धारण करले"]।

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    विषय

    क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (गार्हपत्यः अग्निः) गार्हपत्य अग्नि (देवनाम्) देवों के छिपने का स्थान या रक्षास्थान और (मनुष्याणाम्) मनुष्यों का (परिधिः) रक्षा स्थान या नगर के कोटके समान है। वह (उभयान्) देव और मनुष्य दोनों के (अन्तरा) बीच में (श्रितः) विराजमान हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yakshma Nashanam

    Meaning

    Garhapatyagni, yajnic fire of the home, cosmic home maintained by nature and the individual home maintained by humans, is vested within, in the creative and recuperative powers of nature, and in the heart-core of men of divine disposition. And this Agni, also, is the border line of conduct for humans (because while it works in nature as divinely programmed within the border lines determined, it works in humans by choice which is open to observance as well as to violation).

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    Translation

    Concealment of the gods, defense of men, the householder’s fire is set between both classes.

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    Translation

    This house-hold fire is rampart of learned men and Yajna devas, the physical forces (concerned with Yajna) it is the wall of defense for the men. Thus it stands between both of them.

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    Translation

    God, Who is worshiped by the house-holders, holds the sages within Himself, is the rampart and defence of men, stands between them both.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४४−(अन्तर्धिः) उपसर्गे घोः कि। पा० ३।३।९२। श्रदन्तरोरुपसर्गवद्वृतिः। वा० पा० ३।१०६। अन्तर्+डुधाञ् धारणपोषणयोः−कि। मध्ये धारकः (देवानाम्) दिव्यगुणानाम् (परिधिः) सर्वतो धारकः (मनुष्याणाम्) मननशीलानां जनानाम् (अग्निः) ज्ञानस्वरूपः परमेश्वरः (गार्हपत्यः) गृहपतिभिः संयुक्तः (उभयान्) देवमनुष्यान् (अन्तरा) मध्ये (श्रितः) स्थितः ॥

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