अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 10
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
1
अव॑ सृज॒पुन॑रग्ने पि॒तृभ्यो॒ यस्त॒ आहु॑त॒श्चर॑ति स्व॒धावा॑न्। आयु॒र्वसा॑न॒ उप॑ यातु॒शेषः॒ सं ग॑च्छतां त॒न्वा सु॒वर्चाः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअव॑ । सृ॒ज॒ । पुन॑: । अ॒ग्ने॒ । पि॒तृऽभ्य॑: । य: । ते॒ । आऽहु॑त: । चर॑ति । स्व॒धाऽवा॑न् । आयु॑: । वसा॑न: । उप॑ । या॒तु॒ । शेष॑: । सम् । ग॒च्छ॒ता॒म् । त॒न्वा᳡ । सु॒ऽवर्चा॑: ॥२.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
अव सृजपुनरग्ने पितृभ्यो यस्त आहुतश्चरति स्वधावान्। आयुर्वसान उप यातुशेषः सं गच्छतां तन्वा सुवर्चाः ॥
स्वर रहित पद पाठअव । सृज । पुन: । अग्ने । पितृऽभ्य: । य: । ते । आऽहुत: । चरति । स्वधाऽवान् । आयु: । वसान: । उप । यातु । शेष: । सम् । गच्छताम् । तन्वा । सुऽवर्चा: ॥२.१०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
आचार्य और ब्रह्मचारी के कर्त्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(अग्ने) हे विद्वान्पुरुष ! (पुनः) बारम्बार (पितृभ्यः) पितरों [रक्षक महापुरुषों] को [अपने आत्माका] (अव सृज) दान कर, (यः) जो [आत्मा] (ते) तुझको (आहुतः) यथावत् दिया हुआ (स्वधावान्) अपनी धारण शक्तिवाला (चरति) विचरता है। (शेषः) विशेष गुणी [वहआत्मा] (आयुः) जीवन (वसानः) धारण करता हुआ (उप यातु) आवे और (सुवर्चाः) बड़ातेजस्वी होकर (तन्वा) उपकारशक्ति के साथ (सं गच्छताम्) मिलता रहे ॥१०॥
भावार्थ
मनुष्य विद्वानों कीसेवा और परोपकार में स्वविश्वासी होकर विचरे और अपने जीवन को विशेष गुणी बनाकरलोक-परलोक में कीर्त्ति पावे ॥१०॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।१६।५।और महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि अन्त्येष्टिप्रकरण में उद्धृत है ॥
टिप्पणी
१०−(अव सृज)त्यज। देहि−स्वात्मानमिति शेषः (पुनः) वारंवारम् (अग्ने) हे विद्वन् (पितृभ्यः)रक्षकमहापुरुषाणां हिताय (यः) आत्मा (ते) तुभ्यम् (आहुतः) समन्ताद् दत्तः (चरति)गच्छति (स्वधावान्) स्वधारणशक्तिमान् (आयुः) जीवनम् (वसानः) दधानः (उपयातु)आगच्छतु (शेषः) शिष्लृ विशेषणे-अच्। विशेषगुणी (संगच्छताम्) (तन्वा) उपकारशक्त्या (सुवर्चाः) महातेजस्वी ॥
विषय
पुनः पितरों के प्रति अर्पण व प्रवजित होने की तैयारी
पदार्थ
१. माता-पिता अपने सन्तानों को पितरों [आचार्यों के प्रति सौंपते हैं। आचार्य उन्हें ज्ञानपरिपक्व करके घर वापस भेजते हैं। यहाँ घरों में देवों के साथ अनुकूलता रखते हुए यह स्वस्थ शरीर बनता है, उपासना द्वारा हृदय में प्रभु-दर्शन करता है। अब गृहस्थ को सुन्दरता से समास करके हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव! तू (पुन:) = फिर, वनस्थ होता हुआ, (पितृभ्यः अवसृज) = वनस्थ पितरों के लिए अपने को देनेवाला बन। इनके चरणों में ही तु अपने को संन्यास के लिए तैयार कर पाएगा। उस पितर के लिए तू अपने को अर्पित कर (यः) = जो (ते) = तेरे द्वारा (आहुत:) = आहुत हुआ था, जिसके प्रति तूने अपना अर्पण किया है, वह (स्वधावान् चरति) = आत्मतत्त्व को धारण करनेवाला होकर सब क्रियाएँ करता है। तुझे भी वह आत्मतत्व को धारण के मार्ग पर ले-चलेगा। २. अब (स्वधावान्) = बनकर तू प्रतजित होता है, और (आयुः वासना) = उत्कृष्ट सशक्त व दीप्त-जीवन को धारण करता हुआ (शेषः उप यातु) = अवशिष्ट भोजन को ही [शेषस्-अवशिष्ट] तू प्राप्त करनेवाला हो। सब खा चुकें तब बचे हुए को ही तूने भिक्षा में प्राप्त करना [विधूमे सत्रमुसले]। (सवर्चा:) = संयम द्वारा उत्तम वर्चस् शक्तिवाला तू (तन्वा संगच्छताम्) = शक्तियों के विस्तार से संगत हो। परिपक्व फल की तरह तू अधिक और अधिक दौस होता चल।
भावार्थ
गृहस्थ के बाद वनस्थ होने के समय हम उन पितरों के सम्पर्क में आएँ जो हमें आत्मदर्शन के मार्ग पर ले-चलें। अब अन्त में संन्यस्त होकर हम गृहस्थों के भुक्तावशिष्ट भोजन को ही भिक्षा में प्राप्त करके, किसी पर बोझ न बनते हुए सुवर्चस बनें, शक्तियों के विस्तारवाले हों।
भाषार्थ
(अग्ने) हे जगदग्रणी परमेश्वर ! (यः) जिसने अपने आप को (ते) आप के प्रति (आहुतः) समर्पित कर दिया था, और जो अब (स्वधावान्) निज धारणाशक्ति से सम्पन्न हुआ, मोक्ष पाकर (चरति) आप में विचर रहा है, उसे (पितृभ्यः) मातृशक्ति और पितृशक्ति के प्रति (पुनः) फिर (अवसृज) भेजिये। (शेषः) शरीर के पश्चात् शेष रहा वह अजन्मा जीवात्मा, (आयुः वसानः) आयु धारण कर, (उप यातु) हमारे पास प्राप्त हो। (तन्वा) शरीर के साथ (सं गच्छताम्) संगत हो, (सुवर्चाः) और उत्तम वर्चस्वी हो।
टिप्पणी
[मुक्ति के पश्चात् पुनर्जन्म का वर्णन इस मन्त्र में है। मन्त्र में अल्पकालिक मुक्ति का वर्णन है। अल्पकालिक मुक्ति में लिङ्ग शरीर जीवात्मा के साथ रहता है, जो कि पुनर्जन्म के लिये बीजरूप होता है। स्वधावान् = उणा० ४। १७६ में "स्वधा" का व्युत्पादन बाहुलकात् "स्वद्" धातु से किया है, जिस का अर्थ है "आस्वादन"। इस अर्थ में "स्वधावान्" का अर्थ होगा - "आनन्दरस का आस्वादन करनेवाला"।]
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
O Agni, form, shape out and release once again what, having been given to you, roams around with its own potential and identity so that, surviving, the soul may come to earthly parents and go round with its body and mind, wearing the vestments of life with new lustre and dignity.
Translation
Release again, O Agni, to the Fathers him who goes offered to thee, with svadha; clothing himself in life, let him go unto (his) posterity; let him be united with a body, very splendid.
Translation
O preceptor, return to his father and mother the student who has become accomplished with his learning and called for doing toils in the worldly atmosphere, He attaining long life goes to his parents and as a strong brilliant student possesses good physique.
Translation
O learned Acharya, prepare for serving his parents on return, the disciple, who equipped with semen, devoting himself to thee, leads the life of celibacy! Thy disciple in obedience to thy behest, remaining in thy company, should visit houses, and enjoy the company of householders with his splendid body.
Footnote
See Rig, 10-16-5. Acharya: Teacher, guru, preceptor.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१०−(अव सृज)त्यज। देहि−स्वात्मानमिति शेषः (पुनः) वारंवारम् (अग्ने) हे विद्वन् (पितृभ्यः)रक्षकमहापुरुषाणां हिताय (यः) आत्मा (ते) तुभ्यम् (आहुतः) समन्ताद् दत्तः (चरति)गच्छति (स्वधावान्) स्वधारणशक्तिमान् (आयुः) जीवनम् (वसानः) दधानः (उपयातु)आगच्छतु (शेषः) शिष्लृ विशेषणे-अच्। विशेषगुणी (संगच्छताम्) (तन्वा) उपकारशक्त्या (सुवर्चाः) महातेजस्वी ॥
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