अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 22
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
1
उत्त्वा॑ वहन्तुम॒रुत॑ उदवा॒हा उ॑द॒प्रुतः॑। अ॒जेन॑ कृ॒ण्वन्तः॑ शी॒तं व॒र्षेणो॑क्षन्तु॒बालिति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । त्वा॒ । व॒ह॒न्तु॒ । म॒रुत॑: । उ॒द॒ऽवा॒हा: । उ॒द॒ऽप्रुत॑: । अ॒जेन॑ । कृ॒ण्वन्त॑: । शी॒तम् । व॒र्षेण॑ । उ॒क्ष॒न्तु॒ । बाल् । इति॑ ॥२.२२॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्त्वा वहन्तुमरुत उदवाहा उदप्रुतः। अजेन कृण्वन्तः शीतं वर्षेणोक्षन्तुबालिति ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । त्वा । वहन्तु । मरुत: । उदऽवाहा: । उदऽप्रुत: । अजेन । कृण्वन्त: । शीतम् । वर्षेण । उक्षन्तु । बाल् । इति ॥२.२२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्यों का पितरों के साथ कर्त्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्य !] (उदवाहाः) जल पहुँचानेवाले, (उदप्रुतः) जल में चलनेवाले (मरुतः) पवनरूपविद्वान् लोग (त्वा) तुझे (उत् वहन्तु) ऊँचा पहुँचावें। और (अजेन) अजन्मेपरमात्मा के साथ (वर्षेण) वृष्टि से (शीतम्) शीतलता (कृण्वन्तः) करते हुए वे [तुझको] (उक्षन्तु) बढ़ावें−(बाल् इति) यही बल है ॥२२॥
भावार्थ
जैसे पवन अपने झकोरोंसे मेघों को चला वृष्टि करके ताप हटाकर संसार को सुख पहुँचाता है, वैसे हीविद्वान् लोग अज्ञान मिटा शान्ति के साथ मनुष्यों को ऊँचा करके शक्तिमान् करें॥२२॥
टिप्पणी
२२−(उत्) ऊर्ध्वम् (त्वा) (वहन्तु) प्रापयन्तु (मरुतः) मरुतोऋत्विङ्नाम-निघ० ३।१८। पवना इव विद्वांसः (उदवाहाः) कर्मण्यण्। पा० ३।२।१।उदक+वह प्रापणे-अण्, उदकस्य उदभावः। जलस्य वोढारः प्रापयितारः (उदप्रुतः) प्रुङ्गतौ-क्विप्। जले गन्तारः (अजेन) अजन्मना परमात्मना (कृण्वन्तः) कुर्वन्तः (शीतम्) शैत्यम् (वर्षेण) वृष्टिजलेन (उक्षन्तु) उक्षण उक्षतेर्वृद्धिकर्मणः-निरु०१२।९। वर्धयन्तु (बाल्) क्विब् वचिप्रच्छिश्रिस्रुद्रुप्रुज्वांदीर्घोऽसम्प्रसारणं च। उ० २।५७। बल दाने जीवने वधे च-क्विप्, दीर्घश्च। बलम् (इति) एवम् ॥
विषय
उदवाहा मरुतः
पदार्थ
१. (उदमत:) = जल के साथ गति करनेवाले (उदवाहा:) = जल का वहन करनेवाले ये (मरुतः) = वृष्टि लानेवाले वायु (त्वा) = हे साधक! तुझे (उद् वहन्तु) = उत्कृष्ट स्थिति में प्राप्त कराएँ। ठीक समय पर वृष्टि होकर जीवन के लिए अन्नादि की किसी प्रकार से कमी न हो। २. (अजेन) = [अज गतिक्षेपणयोः] गति के द्वारा व वृष्टिजल के क्षेपण के द्वारा (शीतंकृण्वन्त:) = सर्दी को करते हुए ये मरुत् (वर्षेन) = वृष्टि से (उक्षन्तु) = भूमि को सिक्क करें, बाल (इति) = जिससे [बल जीवने] सब प्राणियों को जीवनधारण के लिए अन्न प्राप्त हो सके।
भावार्थ
वृष्टि लानेवाले वायु [मरुत] ठीक से बहते हुए हमारी स्थिति को उत्कृष्ट बनाएँ। ये वृष्टि द्वारा ग्रीष्म के सन्ताप को दूर करने के साथ अन्नोत्पादन का साधन बनते हुए हमारे लिए जीवनप्रद हों।
भाषार्थ
हे प्रजाजन ! (उदबाहाः) जलवाही, (उदप्रुतः) जलों से उछलती हुई अर्थात् जलभरी (मरुतः) मानसून वायुएं (त्वा) तुझे (उद् वहन्तु) समुन्नत करें। वे मानसून वायुएं (अजेन) अन्नों द्वारा (शीतम्) तेरी भूख को शान्त करें, या तेरी वृद्धि करें। और (वर्षेण) वर्षा द्वारा (बाः) जल (उक्षन्तु) सींचें। [अजेन = "अजसंज्ञानि बीजानि” (महाभारत, शान्तिपर्व अध्याय ३३७। शीतम् = भूख अथवा "श्येङ्” वृद्धौ। बाः =वाः =वारि, जल।]
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
Let winds laden with vapour, rising from the oceans, raise you high up, soothing you to cool comfort of the soul and bless you with showers of rain.
Translation
Let the water-carrying, water-floating Maruts carry thee up, making (thee) with rain, splash.
Translation
O man, may the winds carrying moisture, moistened with waters blow for you and causing coolness through rich rain moisten you. This is your life.
Translation
O man, let learned persons quick like the wind, who dig streams for water, and float in water, uplift thee. May they with the help of the unborn God, advance thy mental peace, as clouds cool the earth with their falling rain!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२२−(उत्) ऊर्ध्वम् (त्वा) (वहन्तु) प्रापयन्तु (मरुतः) मरुतोऋत्विङ्नाम-निघ० ३।१८। पवना इव विद्वांसः (उदवाहाः) कर्मण्यण्। पा० ३।२।१।उदक+वह प्रापणे-अण्, उदकस्य उदभावः। जलस्य वोढारः प्रापयितारः (उदप्रुतः) प्रुङ्गतौ-क्विप्। जले गन्तारः (अजेन) अजन्मना परमात्मना (कृण्वन्तः) कुर्वन्तः (शीतम्) शैत्यम् (वर्षेण) वृष्टिजलेन (उक्षन्तु) उक्षण उक्षतेर्वृद्धिकर्मणः-निरु०१२।९। वर्धयन्तु (बाल्) क्विब् वचिप्रच्छिश्रिस्रुद्रुप्रुज्वांदीर्घोऽसम्प्रसारणं च। उ० २।५७। बल दाने जीवने वधे च-क्विप्, दीर्घश्च। बलम् (इति) एवम् ॥
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