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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 54
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    1

    पू॒षात्वे॒तश्च्या॑वयतु॒ प्र वि॒द्वानन॑ष्टपशु॒र्भुव॑नस्य गो॒पाः। स त्वै॒तेभ्यः॒परि॑ ददत्पि॒तृभ्यो॒ऽग्निर्दे॒वेभ्यः॑ सुविद॒त्रिये॑भ्यः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पू॒षा । त्वा॒ । इ॒त: । च्य॒व॒य॒तु॒ । प्र । वि॒द्वान् । अन॑ष्टऽपशु: । भुव॑नस्य । गो॒पा: । स: । त्वा॒ । ए॒तेभ्य॑: । परि॑ । द॒द॒त् । पि॒तृऽभ्य॑: । अ॒ग्नि: । दे॒वेभ्य॑: । सु॒ऽवि॒द॒त्रिये॑भ्य: ॥२.५४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पूषात्वेतश्च्यावयतु प्र विद्वाननष्टपशुर्भुवनस्य गोपाः। स त्वैतेभ्यःपरि ददत्पितृभ्योऽग्निर्देवेभ्यः सुविदत्रियेभ्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पूषा । त्वा । इत: । च्यवयतु । प्र । विद्वान् । अनष्टऽपशु: । भुवनस्य । गोपा: । स: । त्वा । एतेभ्य: । परि । ददत् । पितृऽभ्य: । अग्नि: । देवेभ्य: । सुऽविदत्रियेभ्य: ॥२.५४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 54
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    सत्पुरुषों के मार्ग पर चलने का उपदेश।

    पदार्थ

    (विद्वान्) सबजाननेवाला, (अनष्टपशुः) जीवों का नाश नहीं करनेवाला, (भुवनस्य) संसार का (गोपाः)रक्षक, (पूषा) पोषक परमात्मा (त्वा) तुझे (इतः) यहाँ से [इस दशा से] (प्रच्यावयतु) आगे को बढ़ावे। (सः) वह (अग्निः) ज्ञानवान् परमेश्वर (त्वा) तुझे (एतेभ्यः) इन (देवेभ्यः) विद्वान् (सुविदत्रियेभ्यः) बड़े धनवाले (पितृभ्यः)पितरों [रक्षक महात्माओं] को (परि) सब प्रकार (ददत्) देवे ॥५४॥

    भावार्थ

    मनुष्य सर्वदर्शक, सर्वरक्षक, सर्वनियामक, जगदीश्वर की उपासना करके आगे बढ़े, जिस से वह बड़े-बड़ेविद्वानों में स्थान पावे ॥५४॥मन्त्र ५४ अभेद से और मन्त्र ५५ कुछ भेद से ऋग्वेदमें हैं−१०।१७।३, ४ ॥

    टिप्पणी

    ५४−(पूषा) पोषकः परमात्मा (त्वा) त्वामुपासकम् (च्यावयतु)गमयतु (प्र) प्रकर्षेण (विद्वान्) (अनष्टपशुः) अनष्टा अहताः पशवः प्राणिनो येन सतथोक्तः (भुवनस्य) संसारस्य (गोपाः) गुपू रक्षणे-आय-प्रत्यये कृते क्विप्, अल्लोपयलोपौ। गोपायिता। रक्षकः (त्वा) (एतेभ्यः) (परि) सर्वतः (ददत्) दद्यात् (पितृभ्यः) पालकेभ्यो महात्मभ्यः (अग्निः) ज्ञानवान् परमेश्वरः (देवेभ्यः)विद्वद्भ्यः (सुविदत्रियेभ्यः) सुविदत्र-घ प्रत्ययः। सुविदत्रं धनं भवतिविन्दतेः-निरु० ७।९। बहुधनार्हेभ्यः। महाधनिभ्यः ॥

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    विषय

    इतः प्रच्यावयतु

    पदार्थ

    १. (पूषा) = वह पोषक प्रभु (त्वा) = तुझे (इतः प्रच्यवतु) = इस भौतिक संग से पृथक् करे। वह प्रभु जो (विद्वान्) = ज्ञानी है, (अनष्टपशुः) = अपने प्राणियों को नष्ट नहीं होने देता। साधकों का कल्याण करनेवाला है। (भुवनस्य गोपा:) = सम्पूर्ण भुवन का रक्षक है। २. (स:) = वह (अग्नि:) = अग्रणी प्रभु ही (त्वा) = तुझे (एतेभ्यः) = इन (सुविदत्रियेभ्यः) = उत्तम ज्ञान के द्वारा रक्षा करनेवाले, (देवेभ्यः) = देववृत्तिवाले (पितृभ्यः) = पितरों के लिए (परिददत्) = प्राप्त कराता है। इनके रक्षण से तू भी उत्तम ज्ञान को प्राप्त करता हुआ देववृत्ति का बनता है।

    भावार्थ

    वह पोषक प्रभु हमें भौतिक संग में डूबने से बचाता है। इसी उद्देश्य से प्रभु हमें ज्ञानी, देववृत्तिवाले पितरों को प्राप्त कराते हैं। इनके रक्षण में हम भी देव बन पाते हैं।

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    भाषार्थ

    (पूषा) पुष्टिकर्ता, (विद्वान्) सर्वज्ञ, (अनष्टपशुः) प्राणियों का अविनाशक, (भुवनस्य) उत्पन्न जगत् का रक्षक परमेश्वर, हे सद्गृहस्थी ! (त्वा) तुझे, निज प्रेरणा द्वारा, (इतः) इस गृहस्थ-कर्म से (प्रच्यावयतु) प्रच्युत करे, हटाए। (सः) वह (अग्निः) जगदग्रणी (त्वा) तुझे (सुविदत्रियेभ्यः) सुविज्ञ (एभ्यः) इन (पितृभ्यः देवेभ्यः) पितृदेवों के प्रति (परि ददत्) सुपुर्द करे।

    टिप्पणी

    [अभिप्राय यह है कि गृहस्थ आदि के धन्धों से छुटकारा१, और अगले आश्रमों में जाकर सद्गुरुओं की प्राप्ति परमेश्वरीय कृपा और अनुग्रह का परिणाम है। अनष्टपशु = वेद में पशुओं के ५ विभाग किये हैं, -गावः, अश्वाः,पुरुषाः, अजावयः (अथर्व ११।२॥९), यथा "तवेमे पञ्च पशवो विभक्ता गावो अश्वा पुरुषा अजावयः"। जब तक मनुष्य का मोक्ष नहीं होता, तब तक वे पशुसमान होते हैं। आहार, निद्रा, भय, राग द्वेष आदि की दृष्टि से वे पशुसमान ही होते हैं। ऐसी अवस्था में इन की मत्यु और नए-नए जन्म होते रहते हैं। इन मृत्युओं में इन का विनाश न समझना चाहिए। जन्म-मरण-परम्परा जीवात्माओं की समुन्नति के लिये होती है, और इस परम्परा का अवसान मोक्ष में होता है।] [१. अथवा पुष्टिकर्ता परमेश्वर तुझे इस शरीर से छुटकारा सुविज्ञ पितृदेवों के घर तुझे नया जन्म दे।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    O man on the rising path of life, may the omniscient lord of life, protector of the world, Pusha, giver of nourishment, who promotes life and never destroys any living being, move you forward to advancement from here, and may Agni, lord and leader of advancement, hand you over to these parental, enlightened and gracious masters of the wealth of noble knowledge.

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    Translation

    Let Pusan, knowing, urge thee forth from here-he, the shepherd of creation who loses no cattle: may he commit thee to those Fathers, (and) Agni to the beneficent gods.

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    Translation

    The sun whose creatures are never extinct and is the preserver of world, O Jiva, this having you in contact carries you from this earth. This fire gives you to these rays in the space which are splendid and givers of agricultural wealth etc.

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    Translation

    O soul, may the Omniscient God, the Non-destroyer of soul, the Guardian of the world, uplift thee. May the Wise God, consign thee to these learned wealthy parents and teachers!

    Footnote

    See Rig, 10-17-3.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५४−(पूषा) पोषकः परमात्मा (त्वा) त्वामुपासकम् (च्यावयतु)गमयतु (प्र) प्रकर्षेण (विद्वान्) (अनष्टपशुः) अनष्टा अहताः पशवः प्राणिनो येन सतथोक्तः (भुवनस्य) संसारस्य (गोपाः) गुपू रक्षणे-आय-प्रत्यये कृते क्विप्, अल्लोपयलोपौ। गोपायिता। रक्षकः (त्वा) (एतेभ्यः) (परि) सर्वतः (ददत्) दद्यात् (पितृभ्यः) पालकेभ्यो महात्मभ्यः (अग्निः) ज्ञानवान् परमेश्वरः (देवेभ्यः)विद्वद्भ्यः (सुविदत्रियेभ्यः) सुविदत्र-घ प्रत्ययः। सुविदत्रं धनं भवतिविन्दतेः-निरु० ७।९। बहुधनार्हेभ्यः। महाधनिभ्यः ॥

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