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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 27
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    2

    अपे॒मं जी॒वाअ॑रुधन्गृ॒हेभ्य॒स्तं निर्व॑हत॒ परि॒ ग्रामा॑दि॒तः। मृ॒त्युर्य॒मस्या॑सीद्दू॒तःप्रचे॑ता॒ असू॑न्पि॒तृभ्यो॑ गम॒यां च॑कार ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अप॑ । इ॒मम् । जी॒वा: । अ॒रु॒ध॒न् । गृ॒हेभ्य॑: । तम् । नि: । व॒ह॒त॒ । परि॑ । ग्रामा॑त् । इ॒त: । मृ॒त्यु: । य॒मस्य॑ । आ॒सी॒त् । दू॒त: । प्रऽचे॑ता: । असू॑न् । पि॒तृऽभ्य॑: । ग॒म॒याम् । च॒का॒र॒ ॥२.२७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपेमं जीवाअरुधन्गृहेभ्यस्तं निर्वहत परि ग्रामादितः। मृत्युर्यमस्यासीद्दूतःप्रचेता असून्पितृभ्यो गमयां चकार ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अप । इमम् । जीवा: । अरुधन् । गृहेभ्य: । तम् । नि: । वहत । परि । ग्रामात् । इत: । मृत्यु: । यमस्य । आसीत् । दूत: । प्रऽचेता: । असून् । पितृऽभ्य: । गमयाम् । चकार ॥२.२७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 27
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    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्यों का पितरों के साथ कर्त्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (इमम्) इस [ब्रह्मचारी] को (जीवाः) प्राणधारी [आचार्य आदि] लोगों ने (गृहेभ्यः) घरों केहित के लिये (अप) आनन्द से (अरुधन्) रोका था, (तम्) उस [ब्रह्मचारी] को (इतः) इस (ग्रामात्) ग्राम [विद्यालय] से (परि) सब ओर को (निः) निश्चय करके (वहत) तुम लेजाओ। (मृत्युः) मृत्यु [आत्मत्याग] (यमस्य) संयमी पुरुष का (दूतः) उत्तेजक, (प्रचेतः) ज्ञान करनेवाला (आसीत्) हुआ है, उसने (पितृभ्यः) पितरों [रक्षकमहात्माओं] को (असून्) प्राण (गमयाम् चकार) भेजे हैं ॥२७॥

    भावार्थ

    आचार्य लोगब्रह्मचारियों को विद्यालय में उत्तम शिक्षा देने तक रक्खें और विद्यासमाप्तिपर उन को उपदेश करें कि वे परिश्रम के साथ आत्मत्याग करके अर्थात् आपा छोड़ करसंसार का उपकार करें, जैसे कि महात्मा लोग आपा छोड़कर विद्या द्वारा आत्मबलप्राप्त करके उपकारी होते हैं ॥२७॥यह मन्त्र महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधिअन्त्येष्टिप्रकरण में उद्धृत है ॥

    टिप्पणी

    २७−(अप) आनन्दे (इमम्) ब्रह्मचारिणम् (जीवाः)प्राणधारकाः। महात्मानः (अरुधन्) अवरोधेन धारितवन्तः (गृहेभ्यः) गृहाणां हिताय (तम्) ब्रह्मचारिणम् (निः) निश्चयेन (वहत) नयत (परि) परितः (ग्रामात्) समूहात्।विद्यालयमध्यात् (इतः) अस्मात् (मृत्युः) प्राणत्यागः। आत्मत्यागः (यमस्य)संयमिनः पुरुषस्य (आसीत्) अभवत् (दूतः) उत्तापकः। उत्तेजकः (प्रचेताः)प्रकृष्टानि चेतांसि यस्य सः। प्रचेतयिता। प्रज्ञापयिता (असून्) प्राणान् (पितृभ्यः) पालकमहात्मभ्यः (गमयांचकार) प्रेषयामास ॥

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    विषय

    आचार्यकल में प्रवेश तथा वहाँ से समावर्त्तन

    पदार्थ

    १.(जीवा:) = जीवन धारण करनेवाले सब गृहस्थ (इमम्) = इस अपने सन्तान को (गृहेभ्यः) = घरों से (अप अरुधन्) = दूर ही निरुद्ध करते हैं। घरों से दूर आचार्यकुलों में अपने इस सन्तान को रखते हैं। (तम्) = उस सन्तान को (इतः ग्रामात्) = यहाँ ग्राम से (परि निर्वहत) = दुर बाहर आचार्यकुल में प्राप्त कराओ। माता-पिता कहें-अब तुझे 'मृत्यवे त्वा ददामीति' मृत्यु [आचार्य] के लिए सौंपते हैं। मोहवश सन्तानों को घरों में ही रक्खे रखना ठीक नहीं। २. (मृत्युः) [आचार्यों मृत्युर्वरुणः सोम ओषधयः पयः०] = यह आचार्य (यमस्य) = उस सर्वनियन्ता प्रभु का (दूतः आसीत्) = दूत है-सन्देशहर है। यह विद्यार्थी के लिए ज्ञान का सन्देश सुनाता है। (प्रचेता:) = प्रकृष्ट ज्ञानवाला है। ज्ञान ही तो इस आचार्य की वास्तविक सम्पत्ति है। यह विद्यार्थियों को खूब शक्तिसम्पन्न व ज्ञानी बनाकर इन (असून्) = [असु-प्राणशक्ति+प्रज्ञा] प्राणशक्ति व प्रज्ञा के पुञ्जभूत स्नातकों को (पितृभ्यः) = माता-पिता के लिए (गमयांचकार) = भेजता है। यही इनका समावर्तन होता है।

    भावार्थ

    गृहस्थ सन्तानों को आचार्यकुलों में भेज दें। आचार्य उन्हें संयमी विद्वान् बनाकर पुनः पितरों के समीप पास करानेवाले हों।

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    भाषार्थ

    (गृहेभ्यः) गृहों और गृहवासियों को छोड़कर वानप्रस्थोन्मुख (इमम्) इस व्यक्ति को (जीवाः) इस के जीवित बन्धुओं ने (अप अरुधन्) रोक रखा है। (तम्) उसे हे वानप्रस्थियो ! (इतः ग्रामात् परि) इस ग्राम से हटाकर वन की ओर (निर्वहत) ले जाओ। क्योंकि इसने समझ लिया है कि (यमस्य) जगन्नियन्ता परमेश्वर द्वारा नियत की गई (मृत्युः) अवश्यंभावी मृत्यु, (दूतः) नियन्ता का दूत बन कर (प्रचेता आसीत्) सब को सचेत करती रही है। इसलिये मृत्यु ने (पितृभ्यः) गृहत्यागी पितरों को (असून्) नवजीवन और नवप्रज्ञा (गमयांचकार) प्रदान की है। [गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत्"।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Living ones have released him from the home and the inmates, Take him away from the village here. Death, messenger of Yama, lord of life and time, as universal warner and notifier has sent his life breath away to the sun rays.

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    Translation

    The living have excluded this man from their houses; carry ye him out, forth from this village; death was the kindly messenger of Yama; he made his life-breaths: go to the Fathers,

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    Translation

    O Men, leave this dead one whom you have surrounded up to yet under affection you live with others in group and lead the life in this world. You know and realize that the death is the messenger of God, All-controlling and it has made the vital breaths of the living one leave and go to the rays of sun and moon.

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    Translation

    Sentient preceptors made the Brahmchari refrain from enjoyment for the good of his householders. You can take him out of his seminary in all directions for service. Self-abnegation is the goader and educator of an ascetic. This imparts spiritual life to the sages.

    Footnote

    A pupil, during the period of education should abstain from worldly pleasures. After finishing his education, he should go out of his place of education and serve humanity. Self-abnegation is the best inciter and educator of a self-restrained person. Self-abnegation alone give spiritual life to the learned sages.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २७−(अप) आनन्दे (इमम्) ब्रह्मचारिणम् (जीवाः)प्राणधारकाः। महात्मानः (अरुधन्) अवरोधेन धारितवन्तः (गृहेभ्यः) गृहाणां हिताय (तम्) ब्रह्मचारिणम् (निः) निश्चयेन (वहत) नयत (परि) परितः (ग्रामात्) समूहात्।विद्यालयमध्यात् (इतः) अस्मात् (मृत्युः) प्राणत्यागः। आत्मत्यागः (यमस्य)संयमिनः पुरुषस्य (आसीत्) अभवत् (दूतः) उत्तापकः। उत्तेजकः (प्रचेताः)प्रकृष्टानि चेतांसि यस्य सः। प्रचेतयिता। प्रज्ञापयिता (असून्) प्राणान् (पितृभ्यः) पालकमहात्मभ्यः (गमयांचकार) प्रेषयामास ॥

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