अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 13
उ॑रूण॒साव॑सु॒तृपा॑वुदुम्ब॒लौ य॒मस्य॑ दू॒तौ च॑रतो॒ जनाँ॒ अनु॑। ताव॒स्मभ्यं॑दृ॒शये॒ सूर्या॑य॒ पुन॑र्दाता॒मसु॑म॒द्येह भ॒द्रम् ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒रु॒ऽन॒सौ । अ॒सु॒ऽतृपौ॑ । उ॒दु॒म्ब॒लौ । य॒मस्य॑ । दू॒तौ । च॒र॒त॒:। जना॑न् । अनु॑ । तौ । अ॒स्मभ्य॑म् । दृ॒शये॑ । सूर्या॑य । पुन॑: । दा॒ता॒म् । असु॑म् । अ॒द्य । इ॒ह । भ॒द्रम् ॥२.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
उरूणसावसुतृपावुदुम्बलौ यमस्य दूतौ चरतो जनाँ अनु। तावस्मभ्यंदृशये सूर्याय पुनर्दातामसुमद्येह भद्रम् ॥
स्वर रहित पद पाठउरुऽनसौ । असुऽतृपौ । उदुम्बलौ । यमस्य । दूतौ । चरत:। जनान् । अनु । तौ । अस्मभ्यम् । दृशये । सूर्याय । पुन: । दाताम् । असुम् । अद्य । इह । भद्रम् ॥२.१३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
समय के सुप्रयोग का उपदेश।
पदार्थ
(यमस्य) संयमी पुरुषके (दूतौ) उत्तेजक (उरूणसौ) बड़ी गतिवाले, (असुतृपौ) बुद्धि को तृप्त करनेवाले, (उदुम्बलौ) दृढ़ बलवाले दोनों [राति-दिन] (जनान् अनु) मनुष्यों में (चरतः)विचरते हैं। (तौ) वे दोनों (अस्मभ्यम्) हम लोगों को (सूर्याय दृशये) सर्वप्रेरकपरमात्मा के देखने के लिये (अद्य) अब (इह) यहाँ पर (असुम्) बुद्धि और (भद्रम्)आनन्द (पुनः) बारम्बार (दाताम्) देते रहें ॥१३॥
भावार्थ
सब मनुष्य समय केलक्षणों को पूरा विचार कर ऐसा प्रयत्न करें कि वे दोनों राति-दिन अपने लियेबुद्धि और आनन्द बढ़ाते रहें ॥१३॥
टिप्पणी
१३−(उरूणसौ) णस कौटिल्ये गतौ च-क्विप्।नसतेर्गतिकर्मा-निघ० २।१४। विस्तीर्णगतिमन्तौ (असुतृपौ) प्रज्ञातर्पकौ (उदुम्बलौ) उड संहतौ सौ० धा०-कु, डस्य दः, यद्वा उन्दी क्लेदने-कु+बलसंवरणे-खच्। संहतबलौ। दृढबलौ। रात्रिदिवसौ (यमस्य) संयमिनः पुरुषस्य (दूतौ)दुतनिभ्यां दीर्घश्च। उ० ३।९०। टुदु उपतापे, यद्वा, दु गतौ-क्त। उपतापकौ।उत्तेजकौ (चरतः) विचरतः (जनान्) मनुष्यान् (अनु) अनुलक्ष्य (तौ) तादृशौरात्रिदिवसौ (अस्मभ्यम्) (दृशये) इगुपधात् कित्। उ० ४।१२०। दृशिर् प्रेक्षणे-इप्रत्ययः, कित्। दर्शनाय (सूर्याय) सर्वप्रेरकाय परमेश्वराय (पुनः) वारंवारम् (दाताम्) लोडर्थे लुङ्, अडभावः। दत्ताम् (असुम्) प्रज्ञाम् (अद्य) इदानीन् (इह)अत्र (भद्रम्) कल्याणम् ॥
विषय
'भद्र असु' के प्रदाता यमदूत
पदार्थ
१. गतमन्त्रों में वर्णित 'काम-क्रोध' (उरूणसौ) = बड़ी नाकवाले हैं-सेवन से ये बढ़ते ही जाते हैं अथवा [णस् कौटिल्ये गतौ च] ये बड़ी कुटिल गतिवाले हैं। (अ-सुतपौ) = ये कभी अच्छी प्रकार तृप्त नहीं हो जाते-बढ़ते ही जाते हैं [भूय एवाभिवर्धते] (उदुम्बलौ) = [उरुबलौ] अत्यन्त प्रबल हैं। अपराजित होते हुए ये (यमस्य दूतौ) = यम के दूत हैं-हमें मृत्यु के समीप ले-जाते हैं। ये यमदूत (जनान् अनुचरत:) = सदा मनुष्यों के पीछे चलते हैं। ये किसी का पीछा छोड़ते नहीं। २. अब यदि ये प्रबल हो जाएँ तो ये हमें समाप्त कर देते हैं, अत: इन्हें ज्ञानाग्नि द्वारा भस्मीभूत करना आवश्यक है। यदि हम इन्हें पराजित व संयत कर पाये तो (तौ) = वे काम और क्रोध (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (पुन:) = फिर (अद्य) = अज (इह) = यहाँ (भद्रं असुम्) = शुभ जीवन को (दाताम्) = दें और हम (दुशये सूर्याय) = दीर्घकाल तक सूर्यदर्शन करनेवाले हो सकें-दीर्घजीवी बनें।
भावार्थ
काम-क्रोध अत्यन्त प्रबल हैं। वशीभूत हुए-हुए ये हमारे लिए भद्र जीवन दें, जिससे हम दीर्घकाल तक सूर्यदर्शन करनेवाले हों।
भाषार्थ
(यमस्य) जगन्नियामक के (दूतौ) दो दूत, अर्थात् दो परितापक कुत्ते - जो कि (उरूणसौ) महानासिकावाले वा महाविनाशी, (असुतृपौ) प्राण-भक्षण करके तृप्त होनेवाले, (उदुम्बलौ) महाबली हैं, जो कि (जनान् अनु) सर्वसाधारण जनों में निरन्तर (चरतः) विचर रहे हैं, (तौ) वे दो कुत्ते, (अद्य इह) आज इस जगत् में (अस्मभ्यम्) हमें (भद्रम्) सांसारिक सुखदायक (असुम्) प्राण प्रज्ञा बल (पुनः) फिर (दाताम्) प्रदान करें, (सूर्याय दृशये) ताकि हम सूर्य का दर्शन कर सकें।
टिप्पणी
[संसारी लोग सांसारिक-जीवन से विमुख नहीं होना चाहते, चाहे वे जानते हैं कि रजःप्रधान तमोमय जीवन, तथा तमःप्रधान रजोमय जीवन महाविनाशी तथा प्राणभक्षक हैं। सूर्यास्त होने पर भोगमय जीवन के पश्चात् भोगी जब निद्रा की गोद में विश्राम पाने लगते हैं, तो वे परमेश्वर से प्रार्थनाएं करते हैं कि आज की रात्रि के पश्चात् हमें फिर प्राण प्रज्ञा और बल प्रदान कीजिये, ताकि जागरित होकर हम पुनः सूर्य का दर्शन कर निज सुखमय जीवन व्यतीत कर सकें। उरूणसौ= उरु+नस (= नासिका, तथा नस् कौटिल्ये)। महानासिका द्वारा कुत्तों की तेज सूंघने की शक्ति का वर्णन किया है। ये दो कुत्ते अपनी भोगसामग्री को सूंघ कर सर्वसाधारण को भोगों में प्रवृत्त करते रहते हैं, और व्यक्तियों को कुटिल मार्ग पर चलाते रहते हैं। उदुम्बलौ = तैतिरीय आरण्यक ६।३।२ की ऋचा में उलुम्बलौ पाठ है, और इस का अर्थ किया है - "प्रभूतबलयुक्तौ”। सम्भवतः उलुम् = उरुम्। अतः उदुम्=उलुम् = उरुम्, अर्थात् " उरु”। दूतौ=दू उपतापे।]
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
Those two, night and day, are the most perceptive, abundant and alert, mighty strong and relentless watch dogs of Yama, lord of time and karmic dispensation, immediately close ahead and on the heels of people. Let them now, again, give us happiness and well-being full of bubbling energy so that we may see the light of the sun, giver of life and light.
Translation
Broad-nosed, feeding on lives, copper-colored, Yama's two messengers go about after men; let them give us back here today excellent life, to see the sun. [Also REg.X.I4.12]
Translation
These two the day and night of All-controlling Divinity are of broad access, strong, iniatiate and are the messengers of Yama, the time. They roam among the people, let these two grant us frequently in this life and world good vitality to see the sun for long.
Translation
Ever-fleeting, developers of intellect, highly powerful, God’s two envoys roam among the people. May they restore to us again and again a fair existence here in this world, so that we may realize God.
Footnote
See Rig, 10-14-12. Two envoys: Day and Night असुऽतृपौ: may also mean that feed on the breath of man,- and daily diminish the duration of his existence. They are insatiate, असु means प्रजा, intellect as well. They are the developers of intellect.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१३−(उरूणसौ) णस कौटिल्ये गतौ च-क्विप्।नसतेर्गतिकर्मा-निघ० २।१४। विस्तीर्णगतिमन्तौ (असुतृपौ) प्रज्ञातर्पकौ (उदुम्बलौ) उड संहतौ सौ० धा०-कु, डस्य दः, यद्वा उन्दी क्लेदने-कु+बलसंवरणे-खच्। संहतबलौ। दृढबलौ। रात्रिदिवसौ (यमस्य) संयमिनः पुरुषस्य (दूतौ)दुतनिभ्यां दीर्घश्च। उ० ३।९०। टुदु उपतापे, यद्वा, दु गतौ-क्त। उपतापकौ।उत्तेजकौ (चरतः) विचरतः (जनान्) मनुष्यान् (अनु) अनुलक्ष्य (तौ) तादृशौरात्रिदिवसौ (अस्मभ्यम्) (दृशये) इगुपधात् कित्। उ० ४।१२०। दृशिर् प्रेक्षणे-इप्रत्ययः, कित्। दर्शनाय (सूर्याय) सर्वप्रेरकाय परमेश्वराय (पुनः) वारंवारम् (दाताम्) लोडर्थे लुङ्, अडभावः। दत्ताम् (असुम्) प्रज्ञाम् (अद्य) इदानीन् (इह)अत्र (भद्रम्) कल्याणम् ॥
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