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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 28
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    1

    ये दस्य॑वःपि॒तृषु॒ प्रवि॑ष्टा ज्ञा॒तिमु॑खा अहु॒ताद॒श्चर॑न्ति। प॑रा॒पुरो॑ नि॒पुरो॒ येभर॑न्त्य॒ग्निष्टान॒स्मात्प्र ध॑माति य॒ज्ञात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । दस्य॑व: । पि॒तृषु॑ । प्रऽवि॑ष्टा: । ज्ञा॒ति॒ऽमु॒खा: । अ॒हु॒त॒ऽअद॑: । चर॑न्ति । प॒रा॒ऽपुर॑: । नि॒ऽपुर॑:। ये । भर॑न्ति । अ॒ग्नि: । तान् । अ॒स्मात् । प्र । ध॒मा॒ति॒ । य॒ज्ञात् ॥२.२८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये दस्यवःपितृषु प्रविष्टा ज्ञातिमुखा अहुतादश्चरन्ति। परापुरो निपुरो येभरन्त्यग्निष्टानस्मात्प्र धमाति यज्ञात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । दस्यव: । पितृषु । प्रऽविष्टा: । ज्ञातिऽमुखा: । अहुतऽअद: । चरन्ति । पराऽपुर: । निऽपुर:। ये । भरन्ति । अग्नि: । तान् । अस्मात् । प्र । धमाति । यज्ञात् ॥२.२८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 28
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    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्यों का पितरों के साथ कर्त्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (ये) जो (ज्ञातिमुखाः)बन्धुओं के समान मुखवाले [छल से हित बोलनेवाले], (अहुतादः) बिना दिया हुआखानेवाले (दस्यवः) डाकू लोग (पितृषु) पितरों [रक्षक महात्माओं] में (प्रविष्टाः)प्रविष्ट होकर (चरन्ति) विचरते हैं। और (ये) जो [दुराचारी] (परापुरः) उलटेपन सेपालन स्वभावों को और (निपुरः) नीचपन से अगुआ होने की क्रियाओं को (भरन्ति) धारणकरते हैं, (अग्निः) ज्ञानवान् पुरुष (तान्) उन [दुष्टों] को (अस्मात्) इस (यज्ञात्) पूजास्थान से (प्र धमाति) दूर भेजे ॥२८॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य ऊपर से मीठाबोलकर दूसरों के पदार्थों को खा जावें और शिष्ट पुरुषों में मिलकर छल करें।विद्वान् राजा आदि प्रधान पुरुष उन अन्यायियों को दण्ड देकर निकाल देवे ॥२८॥यहमन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है−२।३० ॥

    टिप्पणी

    २८−(ये) (दस्यवः)महासाहसिकाश्चौरादयः (पितृषु) पालकमहात्मसु (प्रविष्टाः) (ज्ञातिमुखाः)ज्ञातीनां मुखं वचनमिव वचनं येषां ते (अहुतादः) अहुतस्य अदत्तस्य भक्षकाः (चरन्ति) विचरन्ति (परापुरः) परा+पॄ पालनपूरणयोः-क्विप्। उदोष्ठ्यपूर्वस्य। पा०७।१।१०२। इत्युत्त्वम्। परा प्रातिकूल्येन पालनस्वभावान् (निपुरः) नि+पुरअग्रगतौ-क्विप्। निकृष्टभावेन अग्रगमनक्रियाः (ये) (भरन्ति) धरन्ति (अग्निः)ज्ञानवान् पुरुषः (तान्) दुष्टान् (अस्मात्) (प्रधमाति) धमतिर्गतिकर्मा-निघ०२।१४, वधकर्मा २।१९। बहिर्गमयेत् (यज्ञात्) पूजास्थानात् ॥

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    विषय

    पितरों के रूप में दस्यु

    पदार्थ

    १. (ये) = जो (दस्यवः) = [दस् उपक्षये] हमारा विनाश करनेवाले, (पितृषु प्रविष्टा:) = पितरों की श्रेणी में किसी प्रकार प्रविष्ट हो गये हैं, (ज्ञातिमुखा:) = [ज्ञातीनां मुखमिव मुखं येषाम्] हमारे सम्बन्धी प्रतीत होनेवाले (अहुतादः) = यज्ञों को किये बिना सब-कुछ खा जानेवाले (चरन्ति) = वहाँ समाज में विचरते हैं। (ये) = जो (परापुरः) = [पिण्डोदकं परापृणन्ति-पुत्राः, निपुणन्ति-पौत्रा:, नियमेन पृणन्ति] हमारे पुत्रों को तथा (निपुर:) = पौत्रों को (भरन्ति) = अपहत कर लेते है, अर्थात् उनके जीवनों को बिगाड़ देते हैं। (अग्नि:) = राष्ट्र का संचालक (तान्) = उन दुष्टों को (अस्मात् यज्ञात्) = इस राष्ट्रयज्ञ से [संघ से बने हुए राष्ट्र से] (प्रधमाति) = बाहर करदे [धमतिर्गतिकर्मा]। २. राजा का यह कर्तव्य है कि जो पितर अपना कर्तव्यपालन न करें, उन्हें दण्डित करे । इनके लिए सर्वोत्तम दण्ड यही है कि इन्हें राष्ट्र से निष्कासित कर दिया जाए। ये पितर वे हैं जोकि रक्षणात्मक कार्य के स्थान पर भक्षणात्मक कार्यों में प्रवृत्त होते हैं। बन्धु का रूप धारण करके सब-कुछ खा जाते हैं और हमारे पुत्रों व पौत्रों का जीवन बिगाड़ देते हैं।

    भावार्थ

    राजा का यह कर्तव्य है कि दुष्ट पितरों को दण्डित करे, उन्हें राष्ट्र से निर्वासित ही कर दे।

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    भाषार्थ

    पितृयज्ञ में (ये) जो (दस्यवः) दस्यु, (पितृषु) पितरों में (प्रविष्टाः) प्रविष्ट हो गए हैं, जो कि (ज्ञातिमुखाः) जाने-पहिचाने चेहरोंवाले हैं, और (अहुतादः) विना आहुति दिये खानेवाले (चरन्ति) पितरों में विचरते हैं, (ये) जो कि (परापुरः) स्थूलकायों को, (निपुरः) तथा छोटे कायों को (भरन्ति) धारण करते हैं, (तान्) उन्हें (अग्निः) यज्ञाग्नि (अस्मात् यज्ञात्) इस यज्ञ से (प्र धमति) निकाल देती है।

    टिप्पणी

    [दस्यवः = जो विना यज्ञ किये भोजन ग्रहण करते, वे 'दस्यु' कहाते हैं। पितृयज्ञ में पितरों का सत्कार अन्न आदि द्वारा करना होता है। अतः ये पितर जीवित प्रतीत होते हैं, मृत नहीं। इन पितरों में यदि नास्तिक लोग भी विना निमन्त्रण के आ घुसें, तो उन्हें पितृयज्ञ से निकाल देना चाहिये। पुरः शरीर।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Those negative elements and personalities who live in the garb of close-knit relations, eat without offering anything for yajna but proudly roam around and join the company of our parental seniors, who bear heavy or smart figures and strain our children and grand children, all these, let Agni, leading light of life and knowledge, eliminate from our yajna and yajnic community.

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    Translation

    What barbarians, having entered among the Fathers, having faces of acquaintances, go about, eating what is not sacrificed, who bear parapur (and) nipur —Agni shall blast them forth from this sacrifice.

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    Translation

    The Chief-priest make get out from this Yajna those men who destroy all the good deeds, who appearing akin enter among elders, who are the caters of food without performance of Yajna, who seem to be in near relation and some ones in far relation. walk and maintain them.

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    Translation

    Those fiends who eat our oblations snatching them forcibly, and come in the garb of friends and relatives, mingled fraudulently with our elders, those who abduct out sons and grandsons should be exiled from the country by a strict ruler.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २८−(ये) (दस्यवः)महासाहसिकाश्चौरादयः (पितृषु) पालकमहात्मसु (प्रविष्टाः) (ज्ञातिमुखाः)ज्ञातीनां मुखं वचनमिव वचनं येषां ते (अहुतादः) अहुतस्य अदत्तस्य भक्षकाः (चरन्ति) विचरन्ति (परापुरः) परा+पॄ पालनपूरणयोः-क्विप्। उदोष्ठ्यपूर्वस्य। पा०७।१।१०२। इत्युत्त्वम्। परा प्रातिकूल्येन पालनस्वभावान् (निपुरः) नि+पुरअग्रगतौ-क्विप्। निकृष्टभावेन अग्रगमनक्रियाः (ये) (भरन्ति) धरन्ति (अग्निः)ज्ञानवान् पुरुषः (तान्) दुष्टान् (अस्मात्) (प्रधमाति) धमतिर्गतिकर्मा-निघ०२।१४, वधकर्मा २।१९। बहिर्गमयेत् (यज्ञात्) पूजास्थानात् ॥

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