अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 11
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
1
अति॑ द्रव॒श्वानौ॑ सारमे॒यौ च॑तुर॒क्षौ श॒बलौ॑ सा॒धुना॑ प॒था। अधा॑पि॒तॄन्त्सु॑वि॒दत्राँ॒ अपी॑हि य॒मेन॒ ये स॑ध॒मादं॒ मद॑न्ति ॥
स्वर सहित पद पाठअति॑ । द्र॒व॒ । श्वानौ॑ । सा॒र॒मे॒यौ । च॒तु॒:ऽअ॒क्षौ । श॒बलौ॑ । सा॒धुना॑ । प॒था । अध॑ । पि॒तॄन् । सु॒ऽवि॒दत्रा॑न् । अपि॑ । इ॒हि॒ । य॒मेन॑ । ये । स॒ध॒ऽमाद॑म् । मद॑न्ति ॥२.११॥
स्वर रहित मन्त्र
अति द्रवश्वानौ सारमेयौ चतुरक्षौ शबलौ साधुना पथा। अधापितॄन्त्सुविदत्राँ अपीहि यमेन ये सधमादं मदन्ति ॥
स्वर रहित पद पाठअति । द्रव । श्वानौ । सारमेयौ । चतु:ऽअक्षौ । शबलौ । साधुना । पथा । अध । पितॄन् । सुऽविदत्रान् । अपि । इहि । यमेन । ये । सधऽमादम् । मदन्ति ॥२.११॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
समय के सुप्रयोग का उपदेश।
पदार्थ
[हे जीव !] तू (सारमेयौ) सार कर्मों से प्रमाण करने योग्य, (चतुरक्षौ) चार दिशाओं में व्यापक, (शबलौ) चितकबरे (श्वानौ) दो चलनेवाले [राति-दिन] को (साधुना) धर्म के साधनेवाले (पथा) मार्ग से (अति) पार करके (द्रव) चल। (अध) तब (सुविदत्रान्) बड़े ज्ञानी (पितॄन्) पितरों [रक्षक महापुरुषों] को (अपि) निश्चय करके (इहि) प्राप्त हो, (वे) जो [पितर] (यमेन) न्यायकारी परमात्मा के साथ (सधमादम्) मिले हुए हर्ष को (मदन्ति) भोगते हैं ॥११॥
भावार्थ
जो मनुष्य गमनशील समयका धर्ममार्ग में सुप्रयोग करते हैं, वे महाविद्वानों के समान परमात्मा सेमिलकर मोक्षसुख भोगते हैं ॥११॥मन्त्र ११-१३ कुछ भेद से ऋग्वेद में हैं−१०।१४।१०-१२ ॥
टिप्पणी
११−(अति) अतीत्य (द्रव) गच्छ (श्वानौ) श्वन्नुक्षन्पूषन्०। उ०१।१५९। टुओश्वि गतिवृद्ध्योः-कनिन्। गमनशीलौ रात्रिदिवसौ (सारमेयौ) सार+माङ्माने-यत्। ईद्यति। पा० ६।४।६५। इति ईत्त्वम्। सारकर्मभिः प्रमेयौ प्रतिपादनीयौबोधनीयौ (चतुरक्षौ) अक्षू व्याप्तौ-अच्। चतसृषु दिक्षु व्यापकौ (शबलौ)कर्बूरवर्णौ। श्यामश्वेतौ (साधुना) साध संसिद्धौ-उण्। धर्मसाधकेन (पथा) मार्गेण (अध) अथ। अनन्तरम् (पितॄन्) पालकान् महापुरुषान् (सुविदत्रान्) महाज्ञानान् (अपि) अवश्यम् (इहि) प्राप्नुहि (यमेन) न्यायकारिणा परमात्मना (ये) पितरः (सधमादम्) सहहर्षम् (मदन्ति) हर्षन्ति। सेवन्ते ॥
विषय
सारमेयो श्वानौ
पदार्थ
१. हमारे जीवन में 'काम-क्रोध' उन दो श्वानों के समान हैं जो (सारमेयौ) = सरमा के पुत्र हैं। स गती' गति के पुत्र हैं, अर्थात् अत्यन्त चञ्चल हैं। (श्वानौ) = [शिव वृद्धौ] ये निरन्तर बढ़ते ही चलते हैं। 'काम' उपभोग से शान्त न होकर बढ़ता ही जाता है, जैसेकि हवि के द्वारा 'अग्नि'। (चतुरक्षौ) = ये चार आँखेंबाले हैं। इन्हें जरा-सा अवसर मिला और इन्होंने हमारे घर पर आक्रमण किया। हम सदा सावधान रहेंगे और उत्तम कर्मों में लगे रहेंगे तभी इनसे बच सकेंगे। (शबलौ) -=ये रंगबिरंगे हैं-नानारूपों में ये प्रकट होते हैं। प्रभु कहते हैं कि साधुना पथा उत्तम मार्ग से इनको (अतिद्रव) = लाँघ जा। सदा उत्तम कर्मों में लगे रहने से ही हम इन्हें जीत पाते हैं । २. (अधा) = और अब (सु-विदत्रान्) = उत्तम ज्ञान के द्वारा त्राण करनेवाले पितन-पितरों की (अपीहि) = ओर आनेवाला हो। इनका सत्संग तुझे ज्ञान की रुचिवाला तथा उत्तम कर्मों को करनेवाला बनाएगा। उन पितरों के समीप उपस्थित हो (ये) = जोकि (यमेन) = सर्वनियन्ता प्रभु के (सधमादं मदन्ति) = साथ आनन्द का अनुभव करते हैं। इन प्रभु के उपासकों के सम्पर्क में तू भी प्रभु के उपासन की वृत्तिवाला बनेगा। हम ज्ञानी [सुविदत्रान्] रक्षणात्मक कर्मों में प्रवृत्त [पित्न्] प्रभु के उपासकों [यमेन सधमादम्] के सम्पर्क में उन-जैसे ही बनेंगे। इनके सम्पर्क में हम काम, क्रोधरूप यम के श्वानों को लौष सकेंगे।
भावार्थ
हम ज्ञानी, कर्मशील, उपासक पितरों के सम्पर्क में इन-जैसे ही बनते हुए, सदा सुपथ से चलते हुए, काम, क्रोध को जीतनेवाले बनें।
भाषार्थ
हे आत्मोन्नति चाहनेवाले ! तू (साधुना पथा) सुपथ द्वारा, (सारमेयौ) चञ्चल लक्ष्मी के मानो पुत्रों को, -अर्थात् (चतुरक्षी) चार-चार आंखोंवाले, तथा (शबलौ) संस्काररूप में शयनकारी और बलशाली (श्वानौ) दो कुत्तों को (अति द्रव) द्रुतगति से अतिक्रमण कर जा, लांघ जा। (अधा) तदनन्तर तू (सुविदत्रान्) सुविज्ञ (पितॄन्) पितरों को (अपीहि) प्राप्त हो, (ये) जो पितर कि (यमेन) जगन्नियामक परमेश्वर के साथ (सधमादं मदन्ति) पारस्परिक मोद अर्थात् हर्ष में हर्षित रहते हैं।
टिप्पणी
[सारमेयौ = सरमापुत्रौ। सरमा = सर (=सरण करनेवाली, चञ्चल) + मा (= लक्ष्मी)। शबलौ = श (=शयन) + बल। श्वानौ= "रजःप्रधान तमस्" और "तमःप्रधान रजस्" ये दो कुत्ते हैं। "रजःप्रधान तमस्" अर्थोन्मुखी होता है, और "तमःप्रधान रजस्" कामोन्मुखी होता है। वस्तुतः ये दोनों ही "अर्थ और कामप्रधान" होते हैं। लक्ष्मी के लालची पुत्र हैं- "रजःप्रधान तमोगुणी" व्यक्ति, तथा "तमःप्रधान रजोगुणी" व्यक्ति। ये दोनों दो कुत्तों के सदृश हैं। कुत्ते लोभी और कामी होते हैं। अंग्रेजी शब्द "conine-appetite - कुत्ते के लोभ को दर्शाता है। तथा "श्वेवैकः कपिरिवैकः कुमारः सर्वकेशकः। प्रियो दृश इव भूत्वा गन्धर्वः सचते स्त्रियस्तमितो नाशयामसि ब्रह्मणा वीर्यावता॥" (अथर्व० ४।३७।११) में श्व-वृत्ति व्यक्ति को स्त्रीभोगी अर्थात् कामी कहा है। चतुरक्षौ= श्व-प्रवृत्तिवाले दो प्रकार के व्यक्ति अर्थात् रजःप्रधान तमोगुणी व्यक्ति और तमःप्रधान रजोगुणी व्यक्ति यद्यपि होते हैं - अर्थोन्मुखी और कामोन्मुखी, तब भी इन की दृष्टियों में धर्म अर्थ काम मोक्ष ये चारों रहते हैं। इस दृष्टि से इन्हें चतुरक्षौ कहा है। "साधुना पथा"-इन कुत्तों से बचने का उपाय है "सुपथ" का अवलम्बन। अर्थात् धर्मानुसार अर्थ कमाना, और त्यागपूर्वक उस का भोग करना। यथा-"अग्ने नय सुपथा रायेऽअस्मान्” (यजु० ४०।१६); तथा "तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः” (यजु० ४०।१)। सुपथ के अवलम्बन का परिणाम यह होता है कि सुपथगामी भी उस स्थान को पाने का अधिकारी बन जाता है, जिस स्थान को "सुविदत्र" पितरों ने प्राप्त किया हुआ है।]
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
O soul, go forward by paths of divine law and rectitude to a life of day-night cycle, each being of twelve hour duration of colourful beauty, both children of dynamic energy, alert and on the move, lighted by the sun and moon, go past and come back to the auspicious enlightened parents who rejoice in the yajnic home with the lord of time and divine laws, Yama.
Translation
Run thou past the two four-eyed, brindled dogs of Sarama by a happy road; then go unto the beneficent Fathers, who revel in common revelry with Yama. {Also Rg X.14.10]
Translation
O Man, pass your swiftly passing night and day by good path or way. These two are like two dogs and having four quarters as eyes. You attend the elders who are well-experienced and enjoy happiness attaining communion with Yama, the All-controlling God.
Translation
O man, pass with devotion, ever fleeting day and night, born of Dawn, pervading all the four directions, bright and dark in appearance! Go near the learned gurus, who remain in pleasure in the company of God.
Footnote
See Rig, 10-14-10.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
११−(अति) अतीत्य (द्रव) गच्छ (श्वानौ) श्वन्नुक्षन्पूषन्०। उ०१।१५९। टुओश्वि गतिवृद्ध्योः-कनिन्। गमनशीलौ रात्रिदिवसौ (सारमेयौ) सार+माङ्माने-यत्। ईद्यति। पा० ६।४।६५। इति ईत्त्वम्। सारकर्मभिः प्रमेयौ प्रतिपादनीयौबोधनीयौ (चतुरक्षौ) अक्षू व्याप्तौ-अच्। चतसृषु दिक्षु व्यापकौ (शबलौ)कर्बूरवर्णौ। श्यामश्वेतौ (साधुना) साध संसिद्धौ-उण्। धर्मसाधकेन (पथा) मार्गेण (अध) अथ। अनन्तरम् (पितॄन्) पालकान् महापुरुषान् (सुविदत्रान्) महाज्ञानान् (अपि) अवश्यम् (इहि) प्राप्नुहि (यमेन) न्यायकारिणा परमात्मना (ये) पितरः (सधमादम्) सहहर्षम् (मदन्ति) हर्षन्ति। सेवन्ते ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal