अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 29
सं वि॑शन्त्वि॒हपि॒तरः॒ स्वा नः॑ स्यो॒नं कृ॒ण्वन्तः॑ प्रति॒रन्त॒ आयुः॑। तेभ्यः॑ शकेम ह॒विषा॒नक्ष॑माणा॒ ज्योग्जीव॑न्तः श॒रदः॑ पुरू॒चीः ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । वि॒श॒न्तु॒ । इ॒ह । पि॒तर॑: । स्वा: । न॒: ।स्यो॒नम् । कृ॒ण्वन्त॑: । प्र॒ऽति॒रन्त॑: । आयु॑: । तेभ्य॑: । श॒के॒म॒ । ह॒विषा॑ । नक्ष॑माणा: । ज्योक् । जीव॑न्त: । श॒रद॑: । पु॒रू॒ची: ॥२.२९॥
स्वर रहित मन्त्र
सं विशन्त्विहपितरः स्वा नः स्योनं कृण्वन्तः प्रतिरन्त आयुः। तेभ्यः शकेम हविषानक्षमाणा ज्योग्जीवन्तः शरदः पुरूचीः ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । विशन्तु । इह । पितर: । स्वा: । न: ।स्योनम् । कृण्वन्त: । प्रऽतिरन्त: । आयु: । तेभ्य: । शकेम । हविषा । नक्षमाणा: । ज्योक् । जीवन्त: । शरद: । पुरूची: ॥२.२९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्यों का पितरों के साथ कर्त्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(नः) हमारे लिये (स्योनम्) सुख (कृण्वन्तः) करते हुए और (आयुः) जीवन (प्रतिरन्तः) बढ़ाते हुए (पितरः) रक्षा करनेवाले (स्वाः) बान्धव लोग (इह) यहाँ (सम्) मिलकर (विशन्तु)प्रवेश करें। (हविषा) भक्ति के साथ (नक्षमाणाः) चलते हुए और (ज्योक्) बहुत कालतक (पुरुचीः) अनेक (शरदः) वर्षों तक (जीवन्तः) जीवते हुए हम लोग (तेभ्यः) उन [बान्धवों] के लिये (शकेम) समर्थ होवें ॥२९॥
भावार्थ
मनुष्य अपने माता-पिता आदि के प्रयत्न और आशीर्वाद से उन्नति करके और कीर्ति बढ़ा कर उनकी सेवा करतेरहें ॥२९॥
टिप्पणी
२९−(सम्) संगत्य (विशन्तु) प्रविशन्तु (इह) अस्मासु (पितरः) पालकाः (स्वाः) ज्ञातयः। बान्धवाः (नः) अस्मभ्यम् (स्योनम्) सुखम् (कृण्वन्तः)कुर्वन्तः (प्रतिरन्तः) वर्धयन्तः (आयुः) जीवनम् (तेभ्यः) स्वेभ्यः (शकेम)शक्ताः समर्था भवेम सेवितुम् (हविषा) आत्मदाने। भक्त्या (नक्षमाणाः) गच्छन्तः (ज्योक्) चिरकालम् (जीवन्तः) प्राणान् धारयन्तः (शरदः) संवत्सरान् (पुरूचीः)पुरु+अञ्चु गतिपूजनयोः-क्विन्। बह्वीः ॥
विषय
स्वाः पितरः
पदार्थ
१. (इह) = यहाँ-इस जीवन में (नः) = हमारे लिए (स्वाः पितर:) = अपने ही पितर-जो वानप्रस्थाश्रम में गये हुए 'पिता, पितामह व प्रपितामह' (संविशन्तु) = घरों में सम्यक् प्रविष्ट हों। समय-समय पर हमारे बुलाने पर ये अवश्य आएँ। ये पितर (स्योनं कृण्वन्तः) = सुख प्रदान करते हुए (आयुः प्रतिरन्त) = हमारे आयुष्य को बढ़ाते हैं। २. (तेभ्य:) = अनके लिए हविषा यज्ञिय भोजन से (नक्षमाणा:) = प्राप्त होते हुए हम (शकेम) = शक्तिशाली बनें। हम (ज्योग्जीवन्तः) = दीर्घकाल तक जीते हुए (पुरुची: शरदः) = अत्यन्त गतिशील वर्षांवाले हों [पुरु अञ्च्]। खाट पर लेटे हुए न हों। अकर्मण्य जीवन, जीवन नहीं है।
भावार्थ
हमारे वनस्थ पितर समय-समय पर घरों पर आएँ। वे उचित परामर्शों द्वारा हमारे जीवन को सुखी करें, हमें दीर्घजीवी बनाएँ और हमारा जीवन अत्यन्त गतिमाय हो।
भाषार्थ
(इह) इस पितृयज्ञ में (नः) हमारे (स्वाः) अपने (पितरः) पिता आदि (सं विशन्तु) प्रवेश पाएं। वे (स्योनम्) हमारे लिये सुखमय मार्ग का (कृण्वन्तः) उपदेश करते हुए (आयुः) हमारी आयु को (प्रतिरन्ते) बढ़ा देते हैं। (हविषा) भोज्यान्नों के साथ (नक्षमाणाः) विचरते हुए हम, (तेभ्यः) उन पितरों के लिये (शकेम) यथाशक्ति सेवा प्रदान करें। (पुरूचीः शरदः) बहुत वर्षों तक (ज्योग् जीवन्तः) दीर्घजीवी होते हुए हम उनकी सेवाएं करते रहें।
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
May our parental seniors, one with us, join our yajna here doing us good and promoting our life and health. And may we too, joining them with love and devotion, serving them with liberal hospitality, be able to live a full hundred years of life.
Subject
Pitrah
Translation
Let there enter together here our own Fathers, doing what is pleasant, lengthening (our) life-time; may we be able to reach them with oblation, living long for numerous autumns.
Translation
Our fore-fathers doing good for us, and giving us health live among us in this world. We living many autumns, providing food to them grow to strength.
Translation
Bringing us delight, prolonging our existence, let our own elders dwell here together. Serving them with full devotion, let us live long lives for many years.
Footnote
Elders: Father, grandfather, mother, grandmother. Here; In this world
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२९−(सम्) संगत्य (विशन्तु) प्रविशन्तु (इह) अस्मासु (पितरः) पालकाः (स्वाः) ज्ञातयः। बान्धवाः (नः) अस्मभ्यम् (स्योनम्) सुखम् (कृण्वन्तः)कुर्वन्तः (प्रतिरन्तः) वर्धयन्तः (आयुः) जीवनम् (तेभ्यः) स्वेभ्यः (शकेम)शक्ताः समर्था भवेम सेवितुम् (हविषा) आत्मदाने। भक्त्या (नक्षमाणाः) गच्छन्तः (ज्योक्) चिरकालम् (जीवन्तः) प्राणान् धारयन्तः (शरदः) संवत्सरान् (पुरूचीः)पुरु+अञ्चु गतिपूजनयोः-क्विन्। बह्वीः ॥
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