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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 60
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    1

    धनु॒र्हस्ता॑दा॒ददा॑नो मृ॒तस्य॑ स॒ह क्ष॒त्रेण॒ वर्च॑सा॒ बले॑न। स॒मागृ॑भाय॒वसु॑ भूरि पु॒ष्टम॒र्वाङ्त्वमेह्युप॑ जीवलो॒कम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    धनु॑: । हस्ता॑त् । आ॒ऽददा॑न: । मृ॒तस्य॑ । स॒ह । क्षे॒त्रेण॑ । वर्च॑सा । बले॑न । स॒म्ऽआगृ॑भाय । वसु॑ । भूरि॑ । पु॒ष्टम् । अ॒र्वाङ् । त्वम् । आ । इ॒हि॒ । उप॑ । जी॒व॒ऽलो॒कम् ॥२.६०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    धनुर्हस्तादाददानो मृतस्य सह क्षत्रेण वर्चसा बलेन। समागृभायवसु भूरि पुष्टमर्वाङ्त्वमेह्युप जीवलोकम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    धनु: । हस्तात् । आऽददान: । मृतस्य । सह । क्षेत्रेण । वर्चसा । बलेन । सम्ऽआगृभाय । वसु । भूरि । पुष्टम् । अर्वाङ् । त्वम् । आ । इहि । उप । जीवऽलोकम् ॥२.६०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 60
    Acknowledgment

    हिन्दी (2)

    विषय

    सुकर्म करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (मृतस्य) मरे हुए [मरे हुए के समान दुर्बलेन्द्रिय पुरुष] के (हस्तात्) हाथ से (धनुः) धनुष [शासनशक्ति] को (क्षत्रेण) [अपने] क्षत्रियपन, (वर्चसा) तेज और (बलेन सह) बल केसाथ (आददानः) लेता हुआ तू (भूरि) बहुत (पुष्टम्) पुष्ट [पुष्टिकारक] (वसु) धन (सभागृभाय) यथावत् संग्रह कर और (अर्वाङ्) सामने होता हुआ (त्वम्) तू (जीवलोकम्)जीवते हुए [पुरुषार्थी] मनुष्यों के समाज में (उप) आदर से (आ इहि) आ ॥६०॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य धर्म केपालने में पुरुषार्थ न करता हो, उस को अधिकार से हटाकर पुरुषार्थी पुरुष धर्म सेधन का संग्रह करके सब लोगों की वृद्धि करे ॥६०॥

    टिप्पणी

    ६०−(धनुः) चापम्। शासनचिह्नम् (हस्तात्) अधिकारात् (आददानः) गृह्णानः (मृतस्य) मृतकतुल्यस्य दुर्बलेन्द्रियस्य (सह) (क्षत्रेण) क्षत्रियत्वेन (वर्चसा) (बलेन) (सभागृभाय) ग्रह उपादाने−श्ना-प्रत्ययस्य शायजादेशः, हस्य भः। संग्रहेण प्राप्नुहि (वसु) धनम् (भूरि)बहुलम् (पुष्टम्) पोषकम् (अर्वाङ्) अभिमुखः सन् (त्वम्) (एहि) आगच्छ (उप)पूजायाम् (जीवलोकम्) जीवानां जीवितानां पुरुषार्थिनां लोकं समाजम् ॥

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    भाषार्थ

    हे नवनिर्वाचित राजन् ! (मृतस्य) मृतप्राय हुए, निःशक्त हुए पुराने राजा के (हस्तात्) हाथ से, उस के अधिकार से, (क्षत्रेण, वर्चसा, बलेन सह) राष्ट्र धन, राजकीय तेज और सेनाबल के साथ-साथ (अनुः) शस्त्रास्त्रों का (आददानः) आदान करता हुआ, तथा (भूरि) प्रभूत और (पुष्टम्) परिपुष्ट (वसु) कोषसम्पत् (समागृभाय) सम्यक् विधि से अर्थात् नियमानुसार ग्रहण करके (त्वम्) तू (जीवलोकम् अभि) सजीव-प्रजाजनों की (अर्वाक्) ओर (उप एहि) जाया कर।

    टिप्पणी

    [क्षत्रेण = धनेन (निघं० २।१०)। मृतस्य = मृत शब्द गौणार्थ में भी प्रयुक्त होता है। यथा- 'मृतो दरिद्रः पुरुषो मृतं मैथुनमप्रजम्। मृतमश्रोत्रियं श्राद्धं मृतो यज्ञस्त्वदक्षिणः॥ पञ्चतंत्र २।१०१।३।।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Taking over the power and defence forces from the possession of the dead along with the dominion, strength and splendour, taking over fully and appropriately the wealth and finance of the nation, well built, managed and preserved, come forward and move ahead with the people for the welfare of the living world.

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    Translation

    Taking the bow from the hand of the dead man, together with authority, splendor, strength—take thou hold upon much prosperous good; come thou hitherward unto the world of the living.

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    Translation

    O surviving son, you growing with guarding power, splendor and vigor, taking the bow from the possession of the dead man (as his successor), come to these living people with out any hesitation for obtaining the collected wealth.

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    Translation

    Snatch government from the hand of a lifeless ruler, with your martial spirit, dignity and strength. Having collected wealth and ample treasure, come hither to the assembly of enterprising persons.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६०−(धनुः) चापम्। शासनचिह्नम् (हस्तात्) अधिकारात् (आददानः) गृह्णानः (मृतस्य) मृतकतुल्यस्य दुर्बलेन्द्रियस्य (सह) (क्षत्रेण) क्षत्रियत्वेन (वर्चसा) (बलेन) (सभागृभाय) ग्रह उपादाने−श्ना-प्रत्ययस्य शायजादेशः, हस्य भः। संग्रहेण प्राप्नुहि (वसु) धनम् (भूरि)बहुलम् (पुष्टम्) पोषकम् (अर्वाङ्) अभिमुखः सन् (त्वम्) (एहि) आगच्छ (उप)पूजायाम् (जीवलोकम्) जीवानां जीवितानां पुरुषार्थिनां लोकं समाजम् ॥

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