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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 9
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - जगती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    1

    यास्ते॑ शो॒चयो॒रंह॑यो जातवेदो॒ याभि॑रापृ॒णासि॒ दिव॑म॒न्तरि॑क्षम्। अ॒जं यन्त॒मनु॒ ताःसमृ॑ण्वता॒मथेत॑राभिः शि॒वत॑माभिः शृ॒तं कृ॑धि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या: । ते॒ । शो॒चय॑: । रंह॑य: । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । याभि॑: । आ॒ऽपृ॒णासि॑ । दिव॑म् । अ॒न्तरि॑क्षम् । अ॒जम् । यन्त॑म् । अनु॑ । ता: । सम् । ऋ॒ण्व॒ता॒म् । अथ॑ । इत॑राभि: । शि॒वऽत॑माभि: । शृ॒तम् । कृ॒धि॒ ॥२.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यास्ते शोचयोरंहयो जातवेदो याभिरापृणासि दिवमन्तरिक्षम्। अजं यन्तमनु ताःसमृण्वतामथेतराभिः शिवतमाभिः शृतं कृधि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    या: । ते । शोचय: । रंहय: । जातऽवेद: । याभि: । आऽपृणासि । दिवम् । अन्तरिक्षम् । अजम् । यन्तम् । अनु । ता: । सम् । ऋण्वताम् । अथ । इतराभि: । शिवऽतमाभि: । शृतम् । कृधि ॥२.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 9
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    आचार्य और ब्रह्मचारी के कर्त्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (जातवेदः) हे बड़ेविद्वान् ! [मनुष्य] (याः) जो (ते) तेरी (शोचयः) पवित्र क्रियाएँ और (रंहयः)वेग क्रियाएँ हैं और (याभिः) जिन [क्रियाओं] से (दिवम्) व्यवहारकुशल [वागतिमान्] (अन्तरिक्षम्) मध्यवर्ती हृदय को (आपृणासि) तू सब ओर से पूर्ण करता है। (ताः) वे [सब क्रियाएँ] (यन्तम्) चलते हुए (अजम् अनु) अजन्मे [वा गतिशीलजीवात्मा] के अनुकूल होकर (सम्) ठीक-ठीक (ऋण्वताम्) चलें, (अथ) फिर तू (इतराभिः)दूसरी [ईश्वर की प्राप्तिवाली] (शिवतमाभिः) अत्यन्त कल्याणकारी [क्रियाओं] से [जीवात्मा] को (शृतम्) परिपक्व (कृधि) कर ॥९॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य अपनी शुद्धऔर वेगवाली वृत्तियों को व्यवहारकुशल वा गतिमान् मन में ठहराकर पुरुषार्थीजीवात्मा को खोजते हैं, वे ही फिर परमात्मा को पाकर पक्के ज्ञानी होते हैं॥९॥

    टिप्पणी

    ९−(याः) (ते) तव (शोचयः) शुचिक्रियाः (रंहयः) रहि गतौ-इ प्रत्ययः। वेगक्रियाः (जातवेदः) हे प्रसिद्धज्ञान महाविद्वन् (याभिः) पूर्वोक्ताभिः (आपृणासि)समन्तात् पूरयसि (दिवम्) दिवु व्यवहारे गतौ च-क। व्यवहारकुशलम्। गतियुक्तम् (अन्तरिक्षम्) मध्ये दृश्यमानं हृदयम् (अजम्) अजन्मानं गतिमन्तं वा जीवात्मानम् (यन्तम्) इण् गतौ-शतृ। गच्छन्तम्। (ताः) पूर्वोक्ताः क्रियाः (ऋण्वताम्) ऋणगतौ-लोट्। गच्छन्तु (अथ) पुनः। जीवात्मप्राप्तिपश्चात् (इतराभिः)जीवात्मभिन्नाभिः परमात्मप्राप्तिक्रियाभिः (शिवतमाभिः) अत्यन्तसुखकराभिः (शृतम्) परिपक्वज्ञानम् (कृधि) कुरु−जीवात्मानमिति शेषः ॥

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    विषय

    शोचयः-रंहयः

    पदार्थ

    १. हे (जातवेदः) = उत्पन्न ज्ञानवाले उपासक! (यः) = जो (ते) = तेरी (शोचयः) = पवित्रताएँ व ज्ञानदीसियाँ तथा (रहयः) = वेगवती क्रियाएँ हैं, (याभि:) = जिनसे तू (दिवम्) = मस्तिष्करूप द्युलोक को तथा (अन्तरिक्षम्) = हृदयान्तरिक्ष को (आपृणासि) = परिपूरित करता है, ज्ञान दीसियों से मस्तिष्कको तथा क्रियासङ्कल्पों से हृदयान्तरिक्ष को तू व्याप्त करता है। (ता:) = वे सब ज्ञानदीप्तियाँ व वेगवती क्रियाएँ (अजम् अनु यन्तम्) = प्रभु के पीछे चलते हुए तुझे (समृण्वताम्) = सम्यक् प्राप्त हों। प्रभु की उपासना ही तुझे इन ज्ञानदीप्तियों को तथा वेगवती क्रियाओं को प्राप्त कराएगी। २. हे उपासक। (अथ) = अब इस प्रभु के उपासन के बाद, तू (इतराभिः) = अन्य विलक्षण (शिवतमाभिः) = अत्यन्त कल्याणकारिणी ज्ञानदीतियों व वेगवती क्रियाओं से (भूतं कृधि:) = अपने को पूर्ण परिपक्व बना।

    भावार्थ

    प्रभु की उपासना का ही यह परिणाम होता है कि हम ज्ञानदीसियों से मस्तिष्क को परिपूर्ण कर पाते हैं और क्रियासंकल्पों से हृदयान्तरिक्ष को। इन विलक्षण दीप्तियों व क्रियाओं से ही हम अपने को परिपक्व करते हैं।

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    भाषार्थ

    (जातवेदः) हे समग्र पदार्थों में विद्यमान सर्वव्यापक जगदीश्वर ! (ते) आप की (याः) जो (शुचयः) पवित्र करनेवाली (रहयः) अनुग्रहात्मक प्रवृत्तियां हैं, (याभिः) जिनके द्वारा आप (दिवम्) द्युलोक की ओर (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्षलोक को (आपृणासि) परिपालित तथा परिपूर्ण कर रहे हैं, (ताः) आप की वे अनुग्रहात्मक प्रवृत्तियां (यन्तम्) मोक्ष की ओर जाते हुए (अजम्) अजन्मा जीवात्मा के (अनु) अनुकूल (सम् ऋण्वताम्) सुसङ्गत हो जाय। और यदि जीवात्मा ने पुनर्जन्म ग्रहण करना हो, तब आप की (इतराभिः शिवतमाभिः) अनुग्रहात्मक प्रवृत्तियों से भिन्न जो निग्रहात्मक अत्यन्त कल्याणकारिणी प्रवृत्तियाँ हैं, उनके द्वारा, (शृतम्) इस जीवात्मा को जन्म देकर आप मोक्ष के निमित्त इसका परिपाक (कृधि) कीजिये।

    टिप्पणी

    [अन्त्येष्टि के पश्चात् या मृत्यु के पश्चात्, अज जीवात्मा की दो गतियां हो सकती हैं–या तो जीवात्मा मोक्ष को प्राप्त हो और परमेश्वर की अनुग्रहात्मक प्रवृत्तियों का पात्र बने, या कर्मानुसार पुनः जन्म ग्रहण करे और अपने कर्मों का परिपाक प्राप्त करे। परमेश्वर की यह निग्रहात्मक प्रवृत्तियां भी जीवात्मा का कल्याण करनेवाली होती हैं। कर्मों का परिपाक भुगतकर जीवात्मा पवित्र होकर मोक्ष के अधिकारी बन सकते हैं। कर्मपरिपाक = सुख और दुःख।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    O Jataveda, let all those flames of light with which you radiate and pervade the heavens, the firmament and all spaces, follow and abide by this dynamic immortal soul on its onward journey, and by other holy and blissful powers and disciplines, purify and season it to perfection.

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    Translation

    What ardors, swifinesses are thine, O Jatavedas, with which thou fillest the sky, the atmosphere, let them collect after the goat as he goes; then with other most propitious ones make him propitious.

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    Translation

    O Omniscient Lord, may follow the eternal soul leaving this body all these lights and active forces which are yours and with which you fill the firmament and heaven and make him ripe with other auspicious sources.

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    Translation

    O Omniscient God, let the flames of Thy knowledge and Thy kinetic forces, wherewith Thou pervadest heaven and earth’s mid-region be easily procurable to the unborn soul, that works in obedience to them! Make the soul devout, patient, and perfect, through Thy other annoying but auspicious forces.

    Footnote

    Them: Knowledge and forces of God.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ९−(याः) (ते) तव (शोचयः) शुचिक्रियाः (रंहयः) रहि गतौ-इ प्रत्ययः। वेगक्रियाः (जातवेदः) हे प्रसिद्धज्ञान महाविद्वन् (याभिः) पूर्वोक्ताभिः (आपृणासि)समन्तात् पूरयसि (दिवम्) दिवु व्यवहारे गतौ च-क। व्यवहारकुशलम्। गतियुक्तम् (अन्तरिक्षम्) मध्ये दृश्यमानं हृदयम् (अजम्) अजन्मानं गतिमन्तं वा जीवात्मानम् (यन्तम्) इण् गतौ-शतृ। गच्छन्तम्। (ताः) पूर्वोक्ताः क्रियाः (ऋण्वताम्) ऋणगतौ-लोट्। गच्छन्तु (अथ) पुनः। जीवात्मप्राप्तिपश्चात् (इतराभिः)जीवात्मभिन्नाभिः परमात्मप्राप्तिक्रियाभिः (शिवतमाभिः) अत्यन्तसुखकराभिः (शृतम्) परिपक्वज्ञानम् (कृधि) कुरु−जीवात्मानमिति शेषः ॥

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