अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 23
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
1
उद॑ह्व॒मायु॒रायु॑षे॒ क्रत्वे॒ दक्षा॑य जी॒वसे॑। स्वान्ग॑च्छतु ते॒ मनो॒ अधा॑पि॒तॄँरुप॑ द्रव ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । अ॒ह्व॒म् ।आयु॑: । आयु॑षे । क्रत्वे॑ । दक्षा॑य । जी॒वसे॑ । स्वान् । ग॒च्छ॒तु॒ । ते॒ । मन॑: । अध॑ । पि॒तॄन् । उप॑ । द्र॒व॒ ॥२.२३॥
स्वर रहित मन्त्र
उदह्वमायुरायुषे क्रत्वे दक्षाय जीवसे। स्वान्गच्छतु ते मनो अधापितॄँरुप द्रव ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । अह्वम् ।आयु: । आयुषे । क्रत्वे । दक्षाय । जीवसे । स्वान् । गच्छतु । ते । मन: । अध । पितॄन् । उप । द्रव ॥२.२३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्यों का पितरों के साथ कर्त्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
[हे विद्वान् !] (आयुः) [तेरे] जीवन को (आयुषे) [अपने] जीवन के लिये, (क्रत्वे) बुद्धि वा कर्मके लिये, (दक्षाय) बल के लिये और (जीवसे) प्राणधारण [पराक्रम] के लिये (उत्)उत्तमता से (अह्वम्) मैंने बुलाया है। (ते) तेरा (मनः) मन (स्वान्) अपने लोगोंमें (गच्छतु) जावे, (अध) और तू (पितॄन्) पितरों [रक्षक महात्माओं] को (उप) आदरसे (द्रव) दौड़ जा ॥२३॥
भावार्थ
मनुष्य विद्वानों केसत्सङ्ग से अपना आचरण, अपना ज्ञान, अपना शारीरिक और आत्मिक बल ठीक रख कर माता-पिता आदि और सब महात्माओं के सदा कृतज्ञ रहें ॥२३॥
टिप्पणी
२३−(उत्) उत्तमतया (अह्वम्)आहूतवानस्मि (आयुः) तव जीवनम् (आयुषे) स्वजीवनहिताय (क्रत्वे) क्रतुःकर्मनाम-निघ० २।१, प्रज्ञानाम ३।९। क्रतवे। प्रज्ञायै, कर्मणे (दक्षाय) बलाय (जीवसे) प्राणधारणाय। पराक्रमाय (स्वान्) स्वकीयान्। ज्ञातीन् (गच्छतु)प्राप्नोतु (ते) तव (मनः) चित्तम् (अध) अपि च (पितॄन्) पालकान् महात्मनः (उप)आदरेण (द्रव) शीघ्रं गच्छ ॥
विषय
क्रत्वे दक्षाय जीवसे
पदार्थ
१. मैं तेरे लिए (आयुः उद् अहम्) = आयु को पुकारता हूँ-तुझे आयुष्यवृद्धि का उपदेश करता हूँ, जिससे तू (आयुषे) = दीर्घजीवन के लिए हो, (क्रत्वे) = यज्ञादि कर्मों को करने के लिए होवे, (दक्षाय) = उन्नति व दक्षता के लिए होवे। अथवा 'प्राणो वै दक्षः, अपान: क्रतुः' [तै०२.५.२.४] इस वाक्य के अनुसार प्राण और अपान के लिए होवे और इसप्रकार जीवसे-दीर्घजीवन के लिए होवे। २. (ते मन:) = तेरा मन (स्वान् गच्छतु) = अपने बन्धुजनों के प्रति जाए-उनके प्रति प्रेम भी तुझे दीर्घजीवन की प्रेरणा दे। (अधा) = तथा (पितन् उपद्रव) = पितरों के समीप तू प्राप्त होनेवाला हो-उनके चरणों में बैठकर अपने कर्तव्यों का उपदेश ग्रहण करनेवाला बन।
भावार्थ
हम आयुष्यवृद्धि के उपायों को जानकर दीर्घजीवन धारण करें। हमारा जीवन यज्ञमय हो-उन्नतिपथ पर हम आगे बढ़ें। अपनों के प्रति कर्तव्यों को निभानेवाले हों और बड़ों के चरणों में बैठकर उनसे उपदेश ग्रहण करें।
भाषार्थ
हे प्रजाजन ! (ऋत्वे) तेरी कर्मशक्ति प्रज्ञा या यज्ञ के लिये, (दक्षाय) प्रगति और वृद्धि के लिये, (जीवसे) जीने के लिये, तथा (आयुषे) सम्पूर्ण आयुकाल भोगने के लिये- मैं परमेश्वर ने (आयुः) तेरी १०० वर्षों की आयु (उद् अह्वम्) वेदों में कही है। इसलिये (ते मनः) तेरा मन (स्वान्) निज सन्तति के पालन-पोषण में (गच्छतु) लगे, (अधा) तदनन्तर अर्थात् गृहस्थ काल के पश्चात् तू (पितॄन्) वनस्थ तथा संन्यस्त पितरों के (उप) समीप (द्रव) जा, अर्थात् वानप्रस्थी वा संन्यासी बन।
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
O man, I exhort you to live a full age of hundred years for life’s fulfilment, for good health, for karma and for knowledge, power and expertise for good action. Let your mind reach out to people, all your own, and then, having lived a full life, join with parental seniors and sages.
Translation
I have called up life-time unto life-time, unto ability, unto dexterity, unto life; let thy mind go to its own; then run unto the Fathers.
Translation
O man, I, the priest preach you of the principle of Ayuh, the health for having long life, good act, strength and freedom from diseases. May your mind know of your fore-fathers and you run to them (in such matters).
Translation
O man, I instruct thee to utilize life, for longevity, performance of noble deeds, acquisition of power, and leading a healthy life. Let thy mind go to the relatives. Go to the elders and receive knowledge and understanding from them!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२३−(उत्) उत्तमतया (अह्वम्)आहूतवानस्मि (आयुः) तव जीवनम् (आयुषे) स्वजीवनहिताय (क्रत्वे) क्रतुःकर्मनाम-निघ० २।१, प्रज्ञानाम ३।९। क्रतवे। प्रज्ञायै, कर्मणे (दक्षाय) बलाय (जीवसे) प्राणधारणाय। पराक्रमाय (स्वान्) स्वकीयान्। ज्ञातीन् (गच्छतु)प्राप्नोतु (ते) तव (मनः) चित्तम् (अध) अपि च (पितॄन्) पालकान् महात्मनः (उप)आदरेण (द्रव) शीघ्रं गच्छ ॥
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