अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 33
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
1
अपा॑गूहन्न॒मृतां॒ मर्त्ये॑भ्यः कृ॒त्वा सव॑र्णामदधु॒र्विव॑स्वते।उ॒ताश्विना॑वभर॒द्यत्तदासी॒दज॑हादु॒ द्वा मि॑थु॒ना स॑र॒ण्यूः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒प । अ॒गू॒ह॒न् । अ॒मृता॑म् । मर्त्ये॑भ्य: । कृ॒त्वा । सऽव॑र्णाम् । अ॒द॒धु॒: । विव॑स्वते । उ॒त । अ॒श्विनौ॑ । अ॒भ॒र॒त् । यत् । तत् । आसी॑त् । अज॑हात् । ऊं॒ इति॑ । द्वा । मि॒थु॒ना । स॒र॒ण्यू: ॥२.३३॥
स्वर रहित मन्त्र
अपागूहन्नमृतां मर्त्येभ्यः कृत्वा सवर्णामदधुर्विवस्वते।उताश्विनावभरद्यत्तदासीदजहादु द्वा मिथुना सरण्यूः ॥
स्वर रहित पद पाठअप । अगूहन् । अमृताम् । मर्त्येभ्य: । कृत्वा । सऽवर्णाम् । अदधु: । विवस्वते । उत । अश्विनौ । अभरत् । यत् । तत् । आसीत् । अजहात् । ऊं इति । द्वा । मिथुना । सरण्यू: ॥२.३३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
ईश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(अमृताम्) अमर [नित्यप्रकृति, जगत् सामग्री] को (अप) सुख से (अगूहन्) उन [ईश्वरनियमों] ने गुप्तरक्खा और (मर्त्येभ्यः) मरणधर्मी [मनुष्य आदि प्राणियों] के हित के लिये [उसे] (सवर्णाम्) समान अङ्गीकार करने योग्य (कृत्वा) करके (विवस्वते) प्रकाशमयपरमात्मा [की आज्ञा मानने] के लिये (अदधुः) उन्होंने पुष्ट किया। (उत) और (यत्)जो कुछ [जगत्] (आसीत्) था, (तत्) उस [जगत्] ने (अश्विनौ) व्यापक प्राण और अपानको (अभरत्) धारण किया, (उ) और (सरण्यूः) व्यापक [प्रकृति, जगत्सामग्री] ने (द्वा) दो (मिथुना) जोड़ियाओं [स्त्री-पुरुष] को (अजहात्) त्यागा [उत्पन्न किया]॥३३॥
भावार्थ
ईश्वरनियम से प्रकृतिअर्थात् जगत्सामग्री प्रलयसमय में अदृश्य रहती और सृष्टिकाल में सर्वोपकारीहोकर प्रकट होती है, तब यह जगत् प्राण और अपान द्वारा चेष्टा करता है और स्त्री-पुरुष आदि प्राणी उत्पन्न होते हैं ॥३३॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।१७।२ ॥
टिप्पणी
३३−(अप) आनन्दे (अगूहन्) गुहू संवरणे-लङ्। अन्तर्हितां कृतवन्तःपरमात्मनियमाः प्रलये (अमृताम्) नित्यां प्रकृतिम्। जगत्सामग्रीम् (मर्त्येभ्यः)मरणधर्मणां मनुष्यादिप्राणिनां हिताय (सवर्णाम्) समानवर्णनीयां स्वीकरणीयाम् (अदधुः) अधारयन् परमेश्वरनियमाः (विवस्वते) प्रकाशमयाय। परमात्माज्ञापालनाय (उत)अपि च (अश्विनौ) प्राणापानौ (अभरत्) अधरत् (यत्) जगत् (तत्) सर्वम् (आसीत्) (अजहात्) ओहाक् त्यागे-लङ्। अत्यजत्। असृजत् (उ) चार्थे (द्वा) द्वौ (मिथुना)मिथुनौ। स्त्रीपुंसात्मकौ यमलौ (सरण्यूः) सृयुवचिभ्योऽन्युजागूजक्नुचः। उ० ३।८१।सृ गतौ-अन्युच्, ऊङ् स्त्रियाम्। व्यापिका प्रकृतिः। जगत्सामग्री ॥
विषय
सरण्यू के दो सन्तान
पदार्थ
१. (अमृताम्) = कभी नष्ट न होनेवाली-अथवा मृत्यु से बचानेवाली इस वेदवाणी को (मर्त्येभ्यः) = वासनाओं से आक्रान्त होकर विषयों के पीछे मरनेवाले मनुष्यों से (अपागूहन्) = दूर छिपाकर रखा जाता है। मर्त्य इसे प्राप्त नहीं कर सकता। यह अमृत वेदवाणी असंयत जीवनवाले पुरुष को प्राप्त नहीं होती। इस वेदवाणी को (सवर्णाम् कृत्वा) = [स-वर्णाम्] प्रभुवर्णन से युक्त करके (विवस्वते) = ज्ञानी पुरुष के लिए (अदधुः) = धारण करते हैं। 'सर्वे वेदा यत् पदमामनन्ति' इस वाक्य के अनुसार वेदों का मुख्य प्रतिपाद्य विषय ब्रह्म ही है। २. जब एक ज्ञानी पुरुष इस वेदवाणी का धारण करता है तब यह (उत) = निश्चय से (अश्विनौ अभरत्) = प्राणापान का पोषण करती है,'असुनीति' का-प्राणविद्या का प्रतिपादन करनेवाली यह वेदवाणी प्राणापान का पोषण क्यों न करेगी? (यत्) = जो (तत्) = वह प्राणापान का पोषण करनेवाली अमृता वेदवाणी (आसीत्) = थी, अर्थात् जब इसने हमारे प्राणापान की शक्तियों का वर्धन किया तो (सरण्यू:) = ज्ञान व कर्म से हमारा मेल करनेवाली इस वेदवाणी ने (उ) = निश्चय से (द्वा मिथुना) = दो युगलभूत 'नासत्या व दला' को (जहात्) = जन्म दिया। ज्ञान ही नासत्य है-ज्ञान से सत्य का दर्शन होता है [न+असत्य]; और कर्म ही दस है-कर्म से सब बुराइयों का संहार होता है [दसु उपक्षये]।
भावार्थ
प्रभुकृपा से हमारा इस 'सरण्यू' नामवाली वेदवाणी से सम्बन्ध हो और हमारे जीवन में सत्य व पवित्रता का संचार हो।
भाषार्थ
परमेश्वरीय शक्तियों ने (अमृताम्) उषा को (मर्त्येभ्यः) मनुष्यों से (अपागूहन्) छिपा दिया, और (सवर्णाम्) उषासदृश वर्णवाली या सूर्य के समान वर्णवाली सौर-प्रभा को (कृत्वा) प्रकट करके (विवस्वते) सूर्य के लिये, परमेश्वरीय शक्तियों ने (अदधुः) दे दिया, या स्थापित कर दिया। (उत) तदनन्तर (यत्) जो सूर्यारूप (आसीत्) था, (तत्) उसे सूर्या ने (अजहात्) त्याग दिया। तब (सरण्यूः) सरण्यूरूप धारण कर उस ने (अश्विनौ) अश्वियों को (अभरत्) पैदा किया, जो कि (द्वा) दो थे, और (मिथुना) परस्पर में मिथुनरूप थे।
टिप्पणी
[सरण्यूः= जब सूर्यप्रभा प्रकाशित भूभाग से सरण करनेवाली हो जाती है, तब उसे "सरण्यू" कहते हैं। यह सायं-सन्ध्या का समय है। इस समय पौर्णमासी के दिन, पश्चिम में सूर्यास्त के लगभग, पूर्व दिशा में चन्द्रमा होता है। मानो इस सरण्यू ने सूर्य और चन्द्रमा रूप अश्वियों को पैदा किया है। निरुक्तकार ने "एके" कह कर 'अश्विनौ' पद द्वारा "सूर्याचन्द्रमसौ" को भी सूचित किया है। ये दोनों अश्वों अर्थात् किरणोंवाले हैं। इसलिये 'अश्विनौ' है। 'अश्विनौ' का अर्थ है, "अश्वोवाले" किरणोंवाले। ये दो हैं, और परस्पर में मिथुनरूप हैं। प्रश्नोपनिषद् में सूर्य को प्राण तथा चन्द्रमा को रयि कहकर, इन दोनों को मिथुन कहा है। यथा - स तपस्तप्त्वा मिथुनमुत्पादयते, रयिं च प्राणं च। आदित्यो ह वै प्राणो रयिरेव चन्द्रमाः"। कईयों के मत में "अश्विनौ" अहोरात्र हैं, दिन और रात। दिन में सूर्य की किरणें होती हैं, और रात्रि में चन्द्रमा तथा द्युलोक के नक्षत्रों और तारागणों की किरणें होती हैं। सरण्युकाल में दिन और रात का संगम रहता है।]
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
Hiding the original immortal constant Prakrti by transforming it into the mutable for the mortal forms of existence, the evolutionary powers of Divinity, i.e., the creative and dynamic Prakrti with the immant will of divinity, offers this form of itself to the self-refulgent creator and master Vivasvan, Savita, and then that dynamic state as it is then, bears a twin pair of evolved existence, the Ashvins, and thus delivers the positive and negative complementarities of the evolutionary circuit of nature’s creative dynamics: Agni and Soma, energy and matter, prana and rayi (as the two are described from different points of view).
Translation
They hid away the immortal one from mortals; having made one of like color, they gave her to Vivasvant; what that was carried also the two Asvins; and Saranyu deserted two twins.
Translation
The forces working out in the night conceal (Saranyu) the light of the sun in them for the sake of mortal beings and return it to the sun making it full of many colors. This light of the sun gives food to the vital airs called Prana and Apana. This creates the twain of night and day.
Translation
The laws of God, kept the Immortal Matter hidden after dissolution. At the time of creation, they made it firm, acceptable for the good of mortals, to carry out the behest of God. The universe was then imbued with vital breaths, and pairs were evolved out of Matter.
Footnote
Matter is resolved into its nascent atomic state by God at the time of dissolution. It is converted into a gross, visible shape at the time of creation of the universe, for the good of mankind, in obedience to the laws of God. ‘They’ refers to the laws of God and ‘it’ to Matter. Vital breaths: Prana and Apana, Pairs: Male and female. See Rig, 10-17-2. Griffith considers Saranyu, to be the daughter of Tavashtar and wife of Vivasvan, mother of Yama and Yami, and the twin Aswins. There is no history in the Vedas, hence this explanation is irrational. The word means Matter.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३३−(अप) आनन्दे (अगूहन्) गुहू संवरणे-लङ्। अन्तर्हितां कृतवन्तःपरमात्मनियमाः प्रलये (अमृताम्) नित्यां प्रकृतिम्। जगत्सामग्रीम् (मर्त्येभ्यः)मरणधर्मणां मनुष्यादिप्राणिनां हिताय (सवर्णाम्) समानवर्णनीयां स्वीकरणीयाम् (अदधुः) अधारयन् परमेश्वरनियमाः (विवस्वते) प्रकाशमयाय। परमात्माज्ञापालनाय (उत)अपि च (अश्विनौ) प्राणापानौ (अभरत्) अधरत् (यत्) जगत् (तत्) सर्वम् (आसीत्) (अजहात्) ओहाक् त्यागे-लङ्। अत्यजत्। असृजत् (उ) चार्थे (द्वा) द्वौ (मिथुना)मिथुनौ। स्त्रीपुंसात्मकौ यमलौ (सरण्यूः) सृयुवचिभ्योऽन्युजागूजक्नुचः। उ० ३।८१।सृ गतौ-अन्युच्, ऊङ् स्त्रियाम्। व्यापिका प्रकृतिः। जगत्सामग्री ॥
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