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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 37
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - विराट् जगती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    1

    ददा॑म्यस्माअव॒सान॑मे॒तद्य ए॒ष आग॒न्मम॒ चेदभू॑दि॒ह। य॒मश्चि॑कि॒त्वान्प्रत्ये॒तदा॑ह॒ममै॒ष रा॒य उप॑ तिष्ठतामि॒ह ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ददा॑मि । अ॒स्मै॒ । अ॒व॒ऽसान॑म् । ए॒तत् । य: । ए॒ष: । आ॒ऽअग॑न् । मम॑ । च॒ । इत् । अभू॑त् । इ॒ह । य॒म: । चि॒कि॒त्वान् । प्रति॑ । ए॒तत् । आ॒ह॒ । मम॑ । ए॒ष: । रा॒ये । उप॑ । ति॒ष्ठ॒ता॒म् । इ॒ह ॥२.३७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ददाम्यस्माअवसानमेतद्य एष आगन्मम चेदभूदिह। यमश्चिकित्वान्प्रत्येतदाहममैष राय उप तिष्ठतामिह ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ददामि । अस्मै । अवऽसानम् । एतत् । य: । एष: । आऽअगन् । मम । च । इत् । अभूत् । इह । यम: । चिकित्वान् । प्रति । एतत् । आह । मम । एष: । राये । उप । तिष्ठताम् । इह ॥२.३७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 37
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    हिन्दी (3)

    विषय

    परमात्मा की आज्ञा पालने का उपदेश।

    पदार्थ

    (एतद्) यह (अवसानम्)विश्राम (अस्मै) उस पुरुष को (ददामि) मैं देता हूँ, (यः एषः) जो यह (आ-अगन्) आयाहै, (च) और (मम इत्) मेरा ही (इह) यहाँ (अभूत्) हुआ है, (मम) मेरा (एषः) यहपुरुष (राये) धन के लिये (इह) यहाँ पर (उप तिष्ठताम्) सेवा करे−(चिकित्वान्)ज्ञानवान् (यमः) न्यायकारी परमात्मा (एतत्) यह (प्रति) प्रत्यक्ष (आह) कहता है॥३७॥

    भावार्थ

    यह परमात्मा का वचन हैकि जो पुरुष संसार के बीच उत्तम शरीर और ज्ञान पाकर मेरी शरण आते हैं, वे मेरेप्रीतिपात्र होकर लोक और परलोक में मोक्षरूप धन प्राप्त करते हैं ॥३७॥

    टिप्पणी

    ३७−(ददामि)प्रयच्छामि (अस्मै) पुरुषाय (अवसानम्) विरामम् विश्रामम् (एतत्) प्रत्यक्षम् (यः) पुरुषः (एषः) विद्यमानः (आगन्) आगमत् (मम) मत्सम्बन्धी। मदुपासकः (च) (इत्)एव (अभूत्) (इह) अत्र संसारे (यमः) न्यायकारी परमात्मा (चिकित्वान्) सर्वं जानन् (प्रति) प्रत्यक्षम् (एतत्) वाक्यम् (आह) ब्रवीति (मम) मत्प्रीतिपात्रम् (एषः)पुरुषः (राये) मोक्षरूपाय धनाय (उपतिष्ठताम्) सेवताम् (इह) जगति ॥

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    विषय

    आचार्य के गर्भ मे

    पदार्थ

    १. विद्यार्थी आचार्य के समीप आता है। आचार्य उसके माता-पिता से कहते हैं कि (अस्मै)! इसके लिए (एतत्) = इस (अवसानम्) = [अवस्यन्ति निवसन्ति अस्मिन्-निवासस्थानम्] निवासस्थान को (ददामि) = देता हूँ। (चेत्) = यदि (इह) = यहाँ (यः एषः आगन्) = यह जो आया है, वह (मम अभूत) = मेरा ही हो गया है। अब विद्यार्थी ने आचार्य के समीप रहना है-उसी का हो जाना है। २. (चिकित्वान् यम:) = यह ज्ञानी नियन्ता आचार्य (प्रति एतत् आह) = प्रत्येक माता-पिता से यह कहते हैं कि (एषः) = यह बालक (मम राये) = मेरे ज्ञानधन के लिए (इह उपतिष्ठताम्) = यहाँ उपस्थित हो यहाँ रहता हुआ यह मेरे ज्ञानधन को ग्रहण करनेवाला बने।

    भावार्थ

    विद्याथी आचार्य के समीप रहकर आचार्य से ज्ञानधन प्राप्त करे। आचार्य विद्यार्थी को अपने समीप निवासस्थान प्राप्त कराये। विद्यार्थी आचार्य का ही हो जाए।

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    भाषार्थ

    (यः) जो (एषः) यह तपस्वी, (इह) इस मेरे आश्रम में (आगन्) आया है, (चेद्) यदि (मम) मेरा शिष्य (अभूत्) हो गया है, तो (अस्मै) इसे (एतद्) यह (अवसानम्) जनन-मरण की परम्परा को समाप्त करनेवाला ज्ञान (ददामि) मैं देता हूं। (चिकित्वान्) यथार्थज्ञानी (यमः) आचार्य ने (एतत्) यह (प्रत्याह) उत्तर दिया, और कहा कि (इह) इस मेरे आश्रम में (एषः) यह शिष्य (मम) मेरी (रायः) सम्पत्तियों में (उपतिष्ठताम्) स्थान प्राप्त करे। [अवसानम् = निवासस्थान भी।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    I give this space and time to this seeker who has come here and has become my disciple, mine: So said Yama, lord omniscient, and continued that he may stay here and share the lord’s wealth and knowledge.

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    Translation

    I give this release to him who hath thus come and hath become mine here - thus replies the knowing Yama - let this one approach my wealth here.

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    Translation

    Omnipresent God says this to all-I give this place (the world) for him who comes in this world. He in this world become, but mine own and he in this world exist to attain my own wealth.

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    Translation

    I give this shelter to him who hath come hither and is my devotee in this world. The Omniscient God explicitly says unto him, “May thou my votary serve in this world to acquire the wealth of salvation.”

    Footnote

    I refers to God.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३७−(ददामि)प्रयच्छामि (अस्मै) पुरुषाय (अवसानम्) विरामम् विश्रामम् (एतत्) प्रत्यक्षम् (यः) पुरुषः (एषः) विद्यमानः (आगन्) आगमत् (मम) मत्सम्बन्धी। मदुपासकः (च) (इत्)एव (अभूत्) (इह) अत्र संसारे (यमः) न्यायकारी परमात्मा (चिकित्वान्) सर्वं जानन् (प्रति) प्रत्यक्षम् (एतत्) वाक्यम् (आह) ब्रवीति (मम) मत्प्रीतिपात्रम् (एषः)पुरुषः (राये) मोक्षरूपाय धनाय (उपतिष्ठताम्) सेवताम् (इह) जगति ॥

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