अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 20
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
1
अ॑संबा॒धेपृ॑थि॒व्या उ॒रौ लो॒के नि धी॑यस्व। स्व॒धा याश्च॑कृ॒षे जीव॒न्तास्ते॑ सन्तुमधु॒श्चुतः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स॒म्ऽबा॒धे । पृ॒थि॒व्या: । उ॒रौ । लो॒के । नि । धी॒य॒स्व॒ । स्व॒धा: । या: । च॒कृ॒षे । जीव॑न् । ता: । ते॒ । स॒न्तु॒ । म॒धु॒ऽश्चुत॑: ॥२.२०॥
स्वर रहित मन्त्र
असंबाधेपृथिव्या उरौ लोके नि धीयस्व। स्वधा याश्चकृषे जीवन्तास्ते सन्तुमधुश्चुतः ॥
स्वर रहित पद पाठअसम्ऽबाधे । पृथिव्या: । उरौ । लोके । नि । धीयस्व । स्वधा: । या: । चकृषे । जीवन् । ता: । ते । सन्तु । मधुऽश्चुत: ॥२.२०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
पृथिवी की विद्या का उपदेश।
पदार्थ
[हे पुरुष !] (पृथिव्याः) पृथिवी के (असंबाधे) बाधारहित, (उरौ) विस्तीर्ण (लोके) स्थान में (नि) दृढ़ता से (धीयस्व) तू ठहराया गया हो। (याः) जिन (स्वधाः) आत्मधारणशक्तियों को (जीवन्) जीवते हुए (चकृषे) तूने किया है, (ताः) वे [सब शक्तियाँ] (ते) तेरे लिये (मधुश्चुतः) ज्ञान की बरसानेवाली (सन्तु) होवें ॥२०॥
भावार्थ
जो मनुष्य विघ्नों कोहटाकर दृढ़ता से पृथिवी पर श्रेष्ठ पदार्थ खोजते जाते हैं, वे आत्मविश्वासी सदासुख पाते हैं ॥२०॥
टिप्पणी
२०−(असम्बाधे) संबाधारहिते। निर्विघ्ने (पृथिव्याः) भूमेः (उरौ) विस्तृते (लोके) स्थाने (नि) निश्चयेन (धीयस्व) दधातेः कर्मणि यक्। धारितोभव (स्वधाः) स्वधारणशक्तीः (याः) (चकृषे) त्वं कृतवानसि (जीवन्) प्राणान् धारयन्सन् (ताः) शक्तयः (ते) तुभ्यम् (सन्तु) (मधुश्चुतः) श्चुतिर् क्षरणे-क्विप्।ज्ञानस्य क्षारयित्र्यो वर्षयित्र्यः ॥
विषय
विशाल व सम्बाधाशून्य घरों में पितृयज्ञ का अनुष्ठान
पदार्थ
१. हे पुरुष! तू (पृथिव्याः) = पृथिवी के (असम्बाधे) = पीड़ा व भय से रहित-सम्बाधाशुन्य (उरौ लोके) = बड़े विशाल लोक में (निधीयस्व) = निवास कर । तेरा निवासस्थान बाधाओं से शून्य व विशाल हो। २. (जीवन) = जीता हुआ—प्राणों का धारण करता हुआ तू (या:) = जिन (स्वधाः) = स्वधाओं को-वृद्ध माता-पिता के लिए आदरपूर्वक अन्न-प्रदानों को [पितृभ्य: स्वधा] (चकृषे) = करता है, (ता:) = वे सब स्वधाएँ (ते) = तेरे लिए (मधुश्चत: सन्तु) = मधु को क्षरित करनेवाली-आनन्द-रस प्रवाहित करनेवाली हों। वृद्ध माता-पिता से दिया गया आशीर्वाद तुम्हारी समृद्धि व आनन्द का कारण बने।
भावार्थ
हमारे घर विशाल व सम्बाधाशून्य हों। उनमें हम पितरों के लिए श्रद्धापूर्वक अन्नों को प्राप्त कराएँ। यह पितृयज्ञ हमारे जीवनों को मधुर बनाये।
भाषार्थ
हे प्रजाजन ! (पृथिव्याः) पृथिवी के (असंबाधे) विघ्न-बाधाओं तथा जमघट से रहित, (उरौ लोके) विस्तृत प्रदेश में, तू (नि धीयस्व) मकान की नींव डाल। (जीवन्) हे प्रजाजन ! जीवनकाल में तू ने (याः स्वधाः) जो स्वादु-भोज्य (चकृषे) अतिथि आदि के लिये तय्यार किये, और दिये हैं, (ताः) वे सब (ते) तेरे लिये (मधुश्चुतः) मधुर फलवाले (सन्तु) हों।
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
O man, settle yourself on the open and equal plains of the vast and beautiful bosom of the earth, and while you live and do noble deeds worthy of your own potential, may they bring you showers of honey sweets.
Translation
In the unoppressive wide space of earth be thou deposited: what svadhas thou didst make when living, be they dripping with honey for thee.
Translation
O Man, you make room for your living in the free vast amplitude of this earth and what ventures you do in your life may succeed with the flow of sweet.
Translation
O man, reside on the vast space of Earth, free from pain and fear. Whatever measures thou adopted in thy life-time, for thy sustenance, development and protection, may they all bring thee joy.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२०−(असम्बाधे) संबाधारहिते। निर्विघ्ने (पृथिव्याः) भूमेः (उरौ) विस्तृते (लोके) स्थाने (नि) निश्चयेन (धीयस्व) दधातेः कर्मणि यक्। धारितोभव (स्वधाः) स्वधारणशक्तीः (याः) (चकृषे) त्वं कृतवानसि (जीवन्) प्राणान् धारयन्सन् (ताः) शक्तयः (ते) तुभ्यम् (सन्तु) (मधुश्चुतः) श्चुतिर् क्षरणे-क्विप्।ज्ञानस्य क्षारयित्र्यो वर्षयित्र्यः ॥
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