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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 34
    ऋषिः - अग्नि देवता - अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    2

    ये निखा॑ता॒ येपरो॑प्ता॒ ये द॒ग्धा ये चोद्धि॑ताः। सर्वां॒स्तान॑ग्न॒ आ व॑ह पि॒तॄन्ह॒विषे॒अत्त॑वे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । निऽखा॑ता: । ये । परा॑ऽउप्ता: । ये । द॒ग्धा: । ये । च॒ । उद्धि॑ता: । सर्वा॑न् । तान् । अ॒ग्ने॒ । आ । व॒ह॒ । पि॒तॄन्‌ । ह॒विषे॑ । अत्त॑वे ॥२.३४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये निखाता येपरोप्ता ये दग्धा ये चोद्धिताः। सर्वांस्तानग्न आ वह पितॄन्हविषेअत्तवे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । निऽखाता: । ये । पराऽउप्ता: । ये । दग्धा: । ये । च । उद्धिता: । सर्वान् । तान् । अग्ने । आ । वह । पितॄन्‌ । हविषे । अत्तवे ॥२.३४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 34
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    हिन्दी (2)

    विषय

    पितरों के सत्कार का उपदेश।

    पदार्थ

    (ये) जो पुरुष [ब्रह्मचर्य आदि सदाचार में] (निखाताः) दृढ़ गड़े हुए, (ये) जो (परोप्ताः)उत्तमता से बीज बोये गये, (ये) जो (दग्धाः) तपाये गये [वा चमकते हुए] (च) और (ये) जो (उद्धिताः) ऊँचे उठाये गये हैं। (अग्ने) हे विद्वान् ! (तान् सर्वान्)उन सब (पितॄन्) पितरों [पिता आदि ज्ञानियों] को (हविषे) ग्रहण योग्य भोजन (अत्तवे) खाने के लिये (आ वह) तू ले आ ॥३४॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को योग्य हैकि जो पुरुष दृढ़स्वभाव, ब्रह्मचर्यसेवी, सुशिक्षित, परिश्रमी महाविद्वान्हों, उनका भोजन आदि से सदा सत्कार करें ॥३४॥

    टिप्पणी

    ३४−(ये) विद्वांसः (निखाताः) खनुअवदारणे-क्त। ब्रह्मचर्यादिसदाचारे दृढतया स्थिताः (ये) (परोप्ताः) परा+डुवपबीजसन्ताने-क्त। उत्तमतया बीजवत् स्थापिताः (ये) (दग्धाः) दह दीप्तौ भस्मीकरणेच-क्त। ब्रह्मचर्यादिना तप्ताः। प्रदीप्यमानाः (ये) (च) (उद्धिताः)उत्+दधातेः-क्त। ऊर्ध्वं धृताः (सर्वान्) (तान्) (अग्ने) हे विद्वन् (आ वह) आनय (पितॄन्) पित्रादिरक्षकान् विद्वत्पुरुषान् (हविषे) द्वितीयार्थे चतुर्थी। हविः।ग्राह्यं पदार्थम् (अत्तवे) अद भक्षणे-तवेन् प्रत्ययः। अत्तुं भक्षितुम् ॥

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    भाषार्थ

    (ये) जो (निखाताः) खनिजविद्या में निष्णात, (ये) जो (परोप्ताः) बीज बोने अर्थात् कृषिविद्या में निष्णात, (ये) जो (दग्धाः) विदग्ध अर्थात् बुद्धिमान् मेधावी, (च) और (ये) जो (उद्धिताः) सब का उत्तम हित करनेवाले (पितॄन्) पितर हैं, (तान् सर्वान्) उन सब पितरों को–(अग्ने) हे पितृयज्ञ की अग्नि ! तू (आ वह) इस पितृयज्ञ में निमन्त्रित कर, (हविषे अत्तवे) ताकि वे हविष्यान्न का भक्षण करें।

    टिप्पणी

    [अन्नभक्षण मृत-पितर नहीं कर सकते। इसलिये निमन्त्रित पितर जीवित हैं। अग्न आ वह=पितृयज्ञ के दिन निश्चित होने चाहियें। जिस घर में पितृयज्ञ की अग्नि प्रदीप्त हो, उसे देखकर पितर स्वयं उपस्थित हो जाते हैं। पितृयज्ञ की अग्नि मानो पितरों को निमन्त्रण दे रही होती है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Those who are deep in their knowledge, those who are highly self-developed, those who are tempered in the fire of experience and discipline, and those who are raised to high eminence, O Agni, high priest of yajna, invite and bring all these parental seniors and scholars to our yajna so that they may join and enjoy the yajnic delicacies.

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    Subject

    Agnih

    Translation

    They that are buried, and they that are scattered away, they that are burned and they that are set up - all those Fathers O Agni, bring thou to eat the oblation.

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    Translation

    O experienced physician, please make available (for us) for eating purposes and for oblationary process all those. (Pitrin) medicines which are put under earth, which are cast away (in the sun), which are taken out from the ground and which have been burnt (for preparation).

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    Translation

    O householder, bring thou all learned persons to eat the food offered by thee. Those who are deep-rooted in celibacy, those who rear after their children, those who have eliminated their mental, physical and oral sins, those who occupy exalted positions.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३४−(ये) विद्वांसः (निखाताः) खनुअवदारणे-क्त। ब्रह्मचर्यादिसदाचारे दृढतया स्थिताः (ये) (परोप्ताः) परा+डुवपबीजसन्ताने-क्त। उत्तमतया बीजवत् स्थापिताः (ये) (दग्धाः) दह दीप्तौ भस्मीकरणेच-क्त। ब्रह्मचर्यादिना तप्ताः। प्रदीप्यमानाः (ये) (च) (उद्धिताः)उत्+दधातेः-क्त। ऊर्ध्वं धृताः (सर्वान्) (तान्) (अग्ने) हे विद्वन् (आ वह) आनय (पितॄन्) पित्रादिरक्षकान् विद्वत्पुरुषान् (हविषे) द्वितीयार्थे चतुर्थी। हविः।ग्राह्यं पदार्थम् (अत्तवे) अद भक्षणे-तवेन् प्रत्ययः। अत्तुं भक्षितुम् ॥

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