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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 15
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    1

    ये चि॒त्पूर्व॑ऋ॒तसा॑ता ऋ॒तजा॑ता ऋता॒वृधः॑। ऋषी॒न्तप॑स्वतो यम तपो॒जाँ अपि॑ गच्छतात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । चि॒त् । पूर्वे॑ । ऋ॒तऽसा॑ता: । ऋ॒तऽजा॑ता: । ऋ॒त॒ऽवृध॑: । ऋषी॑न् । तप॑स्वत: । य॒म॒ । त॒प॒:ऽजान् । अपि॑ । ग॒च्छ॒ता॒त् ॥२.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये चित्पूर्वऋतसाता ऋतजाता ऋतावृधः। ऋषीन्तपस्वतो यम तपोजाँ अपि गच्छतात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । चित् । पूर्वे । ऋतऽसाता: । ऋतऽजाता: । ऋतऽवृध: । ऋषीन् । तपस्वत: । यम । तप:ऽजान् । अपि । गच्छतात् ॥२.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 15
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    हिन्दी (3)

    विषय

    विद्वानों के सत्सङ्ग से बढ़ती का उपदेश।

    पदार्थ

    (ये) जो (चित्) ही (पूर्वे) पहिले [पूर्ण विद्वान्] (ऋतसाताः) सत्य धर्म से सेवन किये गये, (ऋतजाताः) सत्य धर्म से प्रसिद्ध हुए और (ऋतावृधः) सत्य धर्म से बढ़ने औरबढ़ानेवाले हैं। (यम) हे यम ! [संयमी पुरुष] (तपस्वतः) उन तपस्वी, (तपोजान्) तपसे प्रकट हुए (ऋषीन्) ऋषियों को (अपि) अवश्य (गच्छतात्) तू प्राप्त हो ॥१५॥

    भावार्थ

    जो महात्मा पूर्णश्रद्धा से अनुष्ठान करके सत्य वैदिक धर्म का उपदेश करते हैं, और जिन्होंने अपनेपूर्व जन्म के पुण्य से तथा अपने माता-पिता के तप से ऋषि पद पाया है, मनुष्यउनके सत्सङ्ग से अपनी उन्नति करें ॥१५॥

    टिप्पणी

    १५−(ये) विद्वांसः (चित्) एव (पूर्वे)प्रथमश्रेणिस्थाः। पूर्णविद्वांसः (ऋतसाताः) षण संभक्तौ-क्त। जनसनखनां सञ्झलोः।पा० ६।४।४२। इत्यात्वम्। सत्यधर्मेण सेविताः (ऋतजाताः) सत्यधर्मेण प्रादुर्भूताःप्रसिद्धाः (ऋतावृधः) सत्यधर्मेण वर्धितारो वर्धयितारश्च (ऋषीन्) वेदार्थदर्शिनःपुरुषान् (तपस्वतः) ब्रह्मचर्यवेदाध्ययनयुक्तान् (यम) हे संयमिन् पुरुष (तपोजान्) तपसा जातान् (अपि) अवश्यम् (गच्छतात्) गच्छ ॥

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    विषय

    ऋत-तप व ज्ञान

    पदार्थ

    १.(ये) = जो (चित्) = निश्चय से (पूर्वे) = अपना पूरण करनेवाले हैं, (ऋत-साता:) = ऋत का सम्भजन करनेवाले-बड़े व्यवस्थित जीवनवाले [ऋत् right], (ऋतजाता:) = [ऋत्-यज्ञ] यज्ञों में ही प्रादुर्भूत हुए-हुए, अर्थात् सदा यज्ञशील हैं, (ऋातावृधः) = सत्य के द्वारा [ऋत्-सत्य] वृद्धि को प्राप्त करनेवाले हैं, उन (ऋषीन) = तत्वष्टा, (तपस्वत:) = तपस्वी (तपोजान्) = तप में ही प्रादुर्भूत हुए हुए, अर्थात् सदा तपस्वी पितरों को ही, हे (यम) = सर्वनियन्ता प्रभो! यह साधक (अपिगच्छतात्) = प्राप्त होनेवाला हो। २. ऐसे पितरों के सम्पर्क में यह भी 'ऋत व तप' को अपनाता हुआ ऋषि [तत्त्वद्रष्टा] बन पाये।

    भावार्थ

    हम उन पितरों के सम्पर्क में आएँ जिनमें 'ऋत, तप व ज्ञान' का निवास है। इनके सम्पर्क में हम भी ऐसे ही बनें।

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    भाषार्थ

    (ये चित्) जो भी (पूर्वे) सद्गुणों से परिपूर्ण, (ऋतसाताः) सत्यज्ञान के दाता, (ऋतजाताः) सत्य के वायु-मण्डल में उत्पन्न, (ऋतावृधः) तथा सत्य के बढ़ानेवाले हैं उन्हें, (ऋषीन्) तथा ऋषियों, और (तपोजान्) तप के वायुमण्डल में जन्मे (तपस्वतः) जो तपस्वी महात्मा हैं उन्हें, (यम) हे यम-नियमों के पालक सद्गृहस्थ ! तू शिक्षार्थ (अपि गच्छतात्) प्राप्त हुआ कर।

    टिप्पणी

    [ऋतसाताः= ऋत (= सत्य) + साताः (=षणु दाने, कर्तरि क्तः)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Those ancients and parental seniors who are committed to the eternal truth of law, who by nature and character are established in the self-sacrificing discipline of eternal law and yajna, and who are constant observers of divine law and performers of yajna, to those sages and seers, dedicated to austerity and relentless discipline and seasoned in divine yajnic duty and discipline, O soul, you too go and join. The spirit of life flows universally.

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    Translation

    They who of old were won by right, born of right, increasers of right -- to the seers rich in fervor, born of fervor, O Yama, do thou go. [Also Rg.X.154.4]

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    Translation

    O celibate, you (for knowledge sake) approach those elders and fore-fathers who are well accomplished, who spread truth, who are born for truth, who grow the feeling of truth and who are the seers observing strict austerity. You also go to them whose life is for truth..

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    Translation

    O disciple, follower of the laws of celibacy, go to those sages, who are austere, penitent, full followers of Truth, lovers of Truth, and preachers of Truth !

    Footnote

    See Rig, 10-154-4.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १५−(ये) विद्वांसः (चित्) एव (पूर्वे)प्रथमश्रेणिस्थाः। पूर्णविद्वांसः (ऋतसाताः) षण संभक्तौ-क्त। जनसनखनां सञ्झलोः।पा० ६।४।४२। इत्यात्वम्। सत्यधर्मेण सेविताः (ऋतजाताः) सत्यधर्मेण प्रादुर्भूताःप्रसिद्धाः (ऋतावृधः) सत्यधर्मेण वर्धितारो वर्धयितारश्च (ऋषीन्) वेदार्थदर्शिनःपुरुषान् (तपस्वतः) ब्रह्मचर्यवेदाध्ययनयुक्तान् (यम) हे संयमिन् पुरुष (तपोजान्) तपसा जातान् (अपि) अवश्यम् (गच्छतात्) गच्छ ॥

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