अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 16
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
1
तप॑सा॒ येअ॑नाधृ॒ष्यास्तप॑सा॒ ये स्वर्य॒युः। तपो॒ ये च॑क्रि॒रे मह॒स्तांश्चि॑दे॒वापि॑गच्छतात् ॥
स्वर सहित पद पाठतप॑सा। ये । अ॒ना॒धृ॒ष्या: । तप॑सा । ये । स्व᳡: । य॒यु: । तप॑: । ये । च॒क्रि॒रे । मह॑: । तान् । चि॒त् । ए॒व । अपि॑ । ग॒च्छ॒ता॒त् ॥२.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
तपसा येअनाधृष्यास्तपसा ये स्वर्ययुः। तपो ये चक्रिरे महस्तांश्चिदेवापिगच्छतात् ॥
स्वर रहित पद पाठतपसा। ये । अनाधृष्या: । तपसा । ये । स्व: । ययु: । तप: । ये । चक्रिरे । मह: । तान् । चित् । एव । अपि । गच्छतात् ॥२.१६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
विद्वानों के सत्सङ्ग से बढ़ती का उपदेश।
पदार्थ
(ये) जो [विद्वान्] (तपसा) तप [ब्रह्मचर्यसेवन और वेदाध्ययन] से (अनाधृष्याः) नहीं दबनेवाले हैं और (ये) जिन्होंने (तपसा) तप से (स्वः) स्वर्ग [आनन्द पद] (ययुः) पाया है। और (ये)जिन्होंने (तपः) तप [ब्रह्मचर्यसेवन और वेदाध्ययन] को (महः) अपना महत्त्व (चक्रिरे) बनाया है, (तान्) उन [महात्माओं] को (चित्) सत्कार से (एव) ही (अपि)अवश्य (गच्छतात्) तू प्राप्त हो ॥१६॥
भावार्थ
जो महर्षि ब्रह्मचर्यसेवन और वेदाध्ययन को अपना महत्त्व समझ कर आनन्द पाते हैं, मनुष्य उन से शिक्षालेकर ब्रह्मचर्यसेवन और वेदाध्ययन से महान् होकर सुखी होवें ॥१६॥
टिप्पणी
१६−(तपसा)ब्रह्मचर्यसेवनेन वेदाध्ययनेन च (ये) महात्मानः (अनाधृष्याः) धर्षितुमशक्याः।दुर्धर्षाः। अहिंसनीयाः (तपसा) (ये) (स्वः) सुखपदम् (ययुः) प्रापुः (तपः)ब्रह्मचर्यसेवनं वेदाध्ययनं च (ये) (चक्रिरे) कृतवन्तः (महः) स्वमहत्त्वम्।अन्यत् पूर्ववत्-म० १४ ॥
विषय
महान् तप
पदार्थ
१. (तपसा) = तप के द्वारा (ये) = जो (अनाधृष्या:) = काम, क्रोध, लोभरूप शत्रुओं से धर्षण के योग्य नहीं होते, (तपसा) = तप के द्वारा (ये) = जो (स्वः ययुः) = आत्मप्रकाश को प्राप्त करते हैं। (ये) = जो (महः तपः) = महान् तप (चक्रिरे) = करते हैं, (चित्) = निश्चय से (तान् एव) = उन पितरों के ही समीप यह (अपिगच्छतात) = प्राप्त हो। २. उन पितरों के सम्पर्क में तपस्वी होता हुआ यह भी शत्रुओं से अधर्षणीय और आत्मज्योति को प्राप्त करनेवाला बने।
भावार्थ
तप के द्वारा शत्रुओं से अघर्षणीय व तप के द्वारा आत्मज्योति के द्रष्टा महान् तपस्वी पितरों के सम्पर्क में हम भी तपस्वी बनते हुए शत्रुओं से अधर्षणीय और आत्मदर्शन करनेवाले बनें।
भाषार्थ
(तपसा) तपश्चर्या के कारण (ये) जो (अनाधृष्याः) पापों द्वारा पराभूत नहीं हो सकते, (तपसा) तपश्चर्या के कारण (ये) जो (स्वः) सुखों को (ययुः) प्राप्त होते हैं, (महः तपः) महातप (ये) जिन्होंने (चक्रिरे) किया है, (तान् चिद् एव) उन्हें ही हे सद् गृहस्थ ! तू शिक्षार्थ (अपि गच्छतात्) प्राप्त हुआ कर।
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
Those who rise by tapas undaunted, those who by tapas rise to the heaven of bliss, and those who perform tapas of high order, to those, O soul, you too go and join, the spirit of life flows universally.
Translation
They who by fervor are unassailable, who by fervor have gone to heaven who made fervor their greatness, unto them do thou go. [Also Rg.X.154.3]
Translation
O man, you attend also to them who are insurmountable in austerity and gained the state of happiness through hardship and who are observing strict discipline of great restrain and control.
Translation
O man, go to those persons who are invincible through fervor, who through penance have attained to God, and who have practiced great austerity and learn austerity from them!'
Footnote
See Rig, 10-154-2.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१६−(तपसा)ब्रह्मचर्यसेवनेन वेदाध्ययनेन च (ये) महात्मानः (अनाधृष्याः) धर्षितुमशक्याः।दुर्धर्षाः। अहिंसनीयाः (तपसा) (ये) (स्वः) सुखपदम् (ययुः) प्रापुः (तपः)ब्रह्मचर्यसेवनं वेदाध्ययनं च (ये) (चक्रिरे) कृतवन्तः (महः) स्वमहत्त्वम्।अन्यत् पूर्ववत्-म० १४ ॥
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