अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 56
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
2
इ॒मौ यु॑नज्मिते॒ वह्नी॒ असु॑नीताय॒ वोढ॑वे। ताभ्यां॑ य॒मस्य॒ सद॑नं॒ समि॑ति॒श्चाव॑ गच्छतात्॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मौ । यु॒न॒ज्मि॒ । ते॒ । वह्नी॒ इति॑ । असु॑ऽनीताय । वोढ॑वे । ताभ्या॑म् । य॒मस्य॑ । सद॑नम् । सम्ऽइ॑ती: । च॒ । अव॑ । ग॒च्छ॒ता॒त् ॥२.५६॥
स्वर रहित मन्त्र
इमौ युनज्मिते वह्नी असुनीताय वोढवे। ताभ्यां यमस्य सदनं समितिश्चाव गच्छतात्॥
स्वर रहित पद पाठइमौ । युनज्मि । ते । वह्नी इति । असुऽनीताय । वोढवे । ताभ्याम् । यमस्य । सदनम् । सम्ऽइती: । च । अव । गच्छतात् ॥२.५६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
पुरुषार्थ करने का उपदेश।
पदार्थ
(इमौ) इन (वह्नी) लेचलनेवाले दोनों [प्राण और अपान] को (असुनीताय) बुद्धि से ले जाये गये (ते) तुझे (वोढवे) ले चलने के लिये (युनज्मि) मैं [परमेश्वर] युक्त करता हूँ। (ताभ्याम्)उन दोनों [प्राण और अपान] के द्वारा (यमस्य) नियम के (सदनम्) प्राप्तियोग्य पदको (च) और (समितीः) समितियों [सभाओं] को (अवगच्छतात्) निश्चय से तू प्राप्त हो॥५६॥
भावार्थ
परमात्मा आज्ञा देताहै कि हे मनुष्य मैंने प्राण अपान आदि बुद्धि सहित तुझे इसलिये दिये हैं कि तूनियम के साथ उत्तम पद प्राप्त करके सभाओं में प्रतिष्ठा पावे ॥५६॥यह मन्त्रमहर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि अन्त्येष्टिप्रकरण में उद्धृत है ॥
टिप्पणी
५६−(इमौ)शरीरे वर्तमानौ (युनज्मि) अहं परमेश्वरो योजयामि (ते) द्वितीयार्थे चतुर्थी।त्वाम् (वह्नी) वोढारौ प्राणापानौ (असुनीताय) असुरितिप्रज्ञानामास्यत्यनर्थान्-निरु० १०।३४। प्रज्ञया नीतं प्रापितम् (वोढवे) वहप्रापणे-तवेन्प्रत्ययः। वोढुम्। नेतुम् (ताभ्याम्) प्राणापानाभ्यां द्वारा (यमस्य) नियमस्य (सदनम्) स्थानम्। पदम् (समितीः) सभाः (च) (अव) निश्चयेन (गच्छतात्) प्राप्नुहि ॥
विषय
यमस्य सादन समिती: च
पदार्थ
१. प्रभु कहते हैं कि मैं तेरे इस शरीर-रथ में (इमौ युनज्मि) = इन प्राणापान को जोड़ता हूँ। ये (ते) = तुझे वही लक्ष्य-स्थान पर ले-जानेवाले हों। (असुनीताय) = [असु-प्रज्ञा। नि० १०.३४] ये प्राणापान तुझे प्रज्ञापूर्वक मार्ग पर ले-चलनेवाले हों। (वोढवे) = तेरे सब कार्यों का वहन करनेवाले हों। २. (ताभ्याम्) = उन प्राणापान के द्वारा (यमस्य सादनम्) = उस सर्वनियन्ता प्रभु के गृह को (अवगच्छतात्) = तू प्राप्त होनेवाला हो (च) = और इसी उद्देश्य से (समितीः) = [सम् इती:]-उत्तम गतियों को तथा मिलकर होनेवाली गतियों को तू प्राप्त होनेवाला हो। तेरे कार्य विरोधात्मक न हों। येन देवः न वियन्ति'-देव विरुद्ध-गतियोंवाले नहीं होते।
भावार्थ
प्रभु ने हमें प्राणापान प्राप्त कराये हैं। इनकी साधना के द्वारा हम लक्ष्यस्थान पर पहुँचेंगे। प्राणसाधना हमें प्रज्ञासम्पन्न करके कर्त्तव्य-वहन में समर्थ करेगी। अन्ततः इन्हीं से हम ब्रह्मलोक को प्राप्त करेंगे और उत्तम गतियोंवाले होंगे।
भाषार्थ
हे सद्गृहस्थ ! (इमौ) इन दो को, अर्थात् (ते) तेरे माता-पिता को (अग्नीषोमा, मन्त्र ५३) तेरे लिये (युनज्मि) मैं नियुक्त करता हूं, जो कि (वह्नी) सन्मार्ग पर तेरा वहन करते हैं। ताकि तू (असुनीताय) नवीन प्रज्ञा और नवीन जीवन की प्राप्ति के लिये, (वोढवे) सन्मार्ग पर चलाया जा सके। (ताभ्याम्) उन दोनों के सहयोग द्वारा तू (यमस्य) यमनियमों के आचार्य के (सादनम्) आश्रम में, और उस आश्रम में होने वाली (समितीः च) समितियों में, सत्संगों में (अव गच्छतात्) जाया करे। [असु = प्रज्ञा (निघं० ३।९), तथा "प्राण" (उणा० १।१०), दयानन्द-भाष्य।]
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
O man, I appoint and engage these two, Agni and Soma, mother and father, parent and teacher, prana and apana, as your guides, leaders and carriers in order to lead you to the house of Yama, lord of life and time, freedom and justice, so that you learn new knowledge and training in moral, social and spiritual discipline and join the assemblies in which you will have to take part later.
Translation
I yoke for thee these two conveyers (vahni), to convey thee to the other life; with them to Yama’s seat and to the assemblies go thou down.
Translation
O Man, I (God) unite you with two kinds of heat (gross and rare) to make your body endowed with vital breaths, oble to do its work. Through these two you may enjoy in the realm of air and in the assemblies of men,
Translation
O man, I yoke thy soul that goes to the next world through breath, with two carriers the Prana and the Apana. Through their control through Yoga, seek shelter under God and communion with Him!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५६−(इमौ)शरीरे वर्तमानौ (युनज्मि) अहं परमेश्वरो योजयामि (ते) द्वितीयार्थे चतुर्थी।त्वाम् (वह्नी) वोढारौ प्राणापानौ (असुनीताय) असुरितिप्रज्ञानामास्यत्यनर्थान्-निरु० १०।३४। प्रज्ञया नीतं प्रापितम् (वोढवे) वहप्रापणे-तवेन्प्रत्ययः। वोढुम्। नेतुम् (ताभ्याम्) प्राणापानाभ्यां द्वारा (यमस्य) नियमस्य (सदनम्) स्थानम्। पदम् (समितीः) सभाः (च) (अव) निश्चयेन (गच्छतात्) प्राप्नुहि ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal