अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 4
मैन॑मग्ने॒ विद॑हो॒ माभि॑ शूशुचो॒ मास्य॒ त्वचं॑ चिक्षिपो॒ मा शरी॑रम्। शृ॒तं य॒दा कर॑सिजातवे॒दोऽथे॑मेनं॒ प्र हि॑णुतात्पि॒तॄँरुप॑ ॥
स्वर सहित पद पाठमा । ए॒न॒म् । अ॒ग्ने॒ । वि । द॒ह॒: । मा । अ॒भि । शू॒शु॒च॒:। मा । अ॒स्य॒ । त्वच॑म् । चि॒क्षि॒प॒: । मा । शरी॑रम् । शृ॒तम् । य॒दा । कर॑सि । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । अथ॑ । ई॒म् । ए॒न॒म् । प्र । हि॒नु॒ता॒त् । पि॒तॄन् । उप॑ ॥१.४॥
स्वर रहित मन्त्र
मैनमग्ने विदहो माभि शूशुचो मास्य त्वचं चिक्षिपो मा शरीरम्। शृतं यदा करसिजातवेदोऽथेमेनं प्र हिणुतात्पितॄँरुप ॥
स्वर रहित पद पाठमा । एनम् । अग्ने । वि । दह: । मा । अभि । शूशुच:। मा । अस्य । त्वचम् । चिक्षिप: । मा । शरीरम् । शृतम् । यदा । करसि । जातऽवेद: । अथ । ईम् । एनम् । प्र । हिनुतात् । पितॄन् । उप ॥१.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
आचार्य और ब्रह्मचारी के कर्त्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(अग्ने) हे विद्वान् ! [आचार्य] (एनम्) इस [ब्रह्मचारी] को (वि) विपरीत भाव से (मा दहः) मत जला [मतकष्ट दे] और (मा अभि शूशुचः) मत शोक में डाल, (मा) न (अस्य) इसकी (त्वचम्) त्वचाको और (मा) न (शरीरम्) शरीर को (चिक्षिपः) गिरने दे। (जातवेदः) हे प्रसिद्धज्ञानवाले [आचार्य !] (यदा) जब [इसे] (शृतम्) परिपक्व [बड़ा ज्ञानी] (करसि) तूकर लेवे, (अथ) तब (ईम्) ही (एनम्) इस [शिष्य] को (पितॄन् उप) पितरों [रक्षकविद्वानों] के पास (प्र) अच्छे प्रकार (हिनुतात्) तू भेज ॥४॥
भावार्थ
आचार्य शिष्यों कोविपरीत भाव से मानसिक वा शारीरिक कष्ट कदापि न देवे, किन्तु कोमल भाव से उन्हेंपक्का ज्ञानी बनावे, जिससे वे विद्वान् लोगों में प्रतिष्ठा पावें ॥४॥मन्त्र ४, ५ कुछ भेद से ऋग्वेद में हैं−१०।१६।१, २ ॥
टिप्पणी
४−(एनम्) ब्रह्मचारिणम् (अग्ने) हेविद्वन् आचार्य (वि) विपरीतभावेन (मा दहः) दहनं मा कुरु। कष्टं मा देहि (अभि) (मा शूशुचः) शुच शोके-णिचि लुङ्। शोकयुक्तं मा कुरु (अस्य) ब्रह्मचारिणः (त्वचम्) (मा चिक्षिपः) क्षिप प्रेरणे-णिचि लुङ्। मा विकिर (मा) निषेधे (शरीरम्) (शृतम्) श्रा पाके-क्त। शृतं पाके। पा० ६।१।२७। इति शृभावः। परिपक्वम्।दृढज्ञानयुक्तम् (यदा) (करसि) लेटि रूपम्। त्वं कुर्याः (जातवेदः) हेप्रसिद्धप्रज्ञ (अथ) अनन्तरम् (ईम्) एव (एनम्) ब्रह्मचारिणम् (प्र) प्रकर्षेण (हिनुतात्) त्वंहिनु। प्रेरय (पितॄन्) पालकान् पुरुषान् (उप) प्रति ॥
विषय
तप व दण्ड की उचित व्यवस्था
पदार्थ
१. ज्ञान देनेवाले आचार्य भी पितर हैं। विद्यार्थी को अग्रगति कराने से ये 'अग्नि' कहलाते हैं। माता-पिता इस अग्नि के प्रति विद्यार्थी को प्राप्त करा देते हैं। वह आचार्यरूप अग्नि इन्हें तीव्र तपस्या में ले-चलता है, परन्तु इतना अतिमात्र तप भी ठीक नहीं जो उसके शरीर को अतिक्षीण ही कर डाले, अत: मन्त्र में कहते हैं कि हे (अग्ने) = अग्रणी आचार्य! (एनम्) = इस आपके प्रति अर्पित शिष्य को (मा विदहः) = तपस्या की अग्नि में भस्म ही न कर दीजिए। 'शरीरमबाधमानेन तप आसेव्यम्' शरीर को पीड़ित न करते हुए ही तप करना ठीक है। इसे अतिक्षीण करके (मा अभिशशच:) = शोकयुक्त ही न कर दीजिए। यह शोकातुर हो घर को ही न याद करता रहे। २. तप के अतिरिक्त शिक्षा में दण्ड भी अनिवार्य हो जाता है, परन्तु क्रोध में कभी अधिक दण्ड न दे दिया जाए। हे आचार्य! (अस्य त्वचं मा चिक्षिप:) = इसकी त्वचा को ही न क्षित कर देना-चमड़ी ही न उधेड़ देना। (मा शरीरम्) = इसका शरीर विक्षिप्त न हो जाए, अर्थात् दण्ड के कारण इसका कोई अंग भंग ही न हो जाए। संक्षेप में, न तप ही अतिमात्र हो और न दण्ड। शरीर को अबाधित करनेवाला तप हो और अमृतमय हाथों से ही दण्ड दिया जाए। ३. इसप्रकार तप व दण्ड की उचित व्यवस्था से (यत्) = जब हे (जातवेदः) = ज्ञानी आचार्य। आप (भूतं आकरसि) = इस विद्यार्थी को ज्ञान में परिपक्व कर चुकें, (अथ) = तब (ईम्) = अब (एनम्) = इस विद्यार्थी को (पितॄन् उप प्रहिणुतात्) = जन्मदाता माता-पिता के समीप भेजने का अनुग्रह करें। आचार्यकुल में ज्ञानाग्नि में परिपक्व होकर यह विद्यार्थी समावृत्त होकर आज घर में आता है।
भावार्थ
आचार्य, उचित तप व दण्ड-व्यवस्था रखते हुए विद्यार्थी को ज्ञान-परिपक्व करते हैं और अध्ययन की समाप्ति पर उसे पितगृह में वापस भेजते हैं। यही इसका समावर्तन है।
भाषार्थ
(अग्ने) शिष्य को सुपथ पर चलानेवाले हे आचार्य! (एनम्) इस शिष्य को आप (मा विदहः) दुःखित मत कीजिये, (मा) न (अभि शूशुचः) शोकान्वित कीजिये। (अस्य) इस की (त्वचम्) त्वचा को दण्डप्रहार द्वारा (मा चिक्षिपः) खण्डित न कीजिये, (मा) और न इसके (शरीरम्) शरीर का अङ्ग भङ्ग कीजिये। (जातवेदः) हे वेदविद् आचार्य (यदा) जब आप (शृतम्) शिष्य को ब्रह्मचर्याश्रम में परिपक्व (करसि) कर दें, (अथ) तदनन्तर (एनम् ईम्) इस शिष्य को (पितॄन् उप) इसके माता-पिता आदि सम्बन्धियों के (उप) पास (प्र हिणुतात्) सत्कारपूर्वक प्रेषित कीजिये।
टिप्पणी
[मन्त्र में दाहकर्म का वर्णन नहीं। दाहकर्म करते हुए यह कहना कि 'इसे विदग्ध आदि न कर', अनुपपन्न है। आचार्य अग्निरूप होना चाहिये, जो कि शिष्य का सुपथ पर नयन कर उसे आगे-आगे ले चले। यथा - "अग्ने नय सुपथा" (यजु० ४०।१६)। अग्निः= अग्रे नयति। तथा "अग्निराचार्यस्तव" (मं० ब्रा० १।६।२५), तथा "अग्निराचार्यस्तव, अहमाचार्यस्तव"। (पार० कां० २। कं० २। १८-२०) में आचार्य को अग्नि कहा है। (देखो संस्कारविधि, उपनयन प्रकरण)।]
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
O Agni, Jataveda, all knowing, all pervading fire of divine discipline, do not bum it wholly, do not hurt or dry it up in its identity, do not destroy its sense of perception and its body form. And when you have cleansed it of its dross and tempered it fully, send it up to the Pitaras, sustainers of living energy and life.
Subject
Agni
Translation
Do not, O Agni, burn him up: do not be hot upon him; do not warp his skin, nor his body; when thou shalt make him done, O Jatavedas, then send him forward unto the Fathers.
Translation
O teacher, do not burn this student with anger and scarcity of food etc, do not allow him to feel heart burning etc; do not allow his skin and body to be affected down-trend. and O master of the vedic speech, you send him to his father and mother when make him ripe or matured in knowledge.
Translation
O learned preceptor, don’t trouble this celibate disciple, don’t put him to grief. Let not his skin and body decay. O learned teacher, having made him well-versed in knowledge, send him back to his parents.
Footnote
See Rig, 10-16-1
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(एनम्) ब्रह्मचारिणम् (अग्ने) हेविद्वन् आचार्य (वि) विपरीतभावेन (मा दहः) दहनं मा कुरु। कष्टं मा देहि (अभि) (मा शूशुचः) शुच शोके-णिचि लुङ्। शोकयुक्तं मा कुरु (अस्य) ब्रह्मचारिणः (त्वचम्) (मा चिक्षिपः) क्षिप प्रेरणे-णिचि लुङ्। मा विकिर (मा) निषेधे (शरीरम्) (शृतम्) श्रा पाके-क्त। शृतं पाके। पा० ६।१।२७। इति शृभावः। परिपक्वम्।दृढज्ञानयुक्तम् (यदा) (करसि) लेटि रूपम्। त्वं कुर्याः (जातवेदः) हेप्रसिद्धप्रज्ञ (अथ) अनन्तरम् (ईम्) एव (एनम्) ब्रह्मचारिणम् (प्र) प्रकर्षेण (हिनुतात्) त्वंहिनु। प्रेरय (पितॄन्) पालकान् पुरुषान् (उप) प्रति ॥
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