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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 24
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिपदा समविषमार्षी गायत्री छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    1

    मा ते॒ मनो॒मासो॒र्माङ्गा॑नां॒ मा रस॑स्य ते। मा ते॑ हास्त त॒न्वः किं च॒नेह ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । ते॒ । मन॑: । मा । असो॑: । मा । अङ्गा॑नाम् । मा । रस॑स्य । ते॒ । मा । ते॒ । हा॒स्त॒ । त॒न्व᳡: । किम् । च॒न । इ॒ह ॥२.२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा ते मनोमासोर्माङ्गानां मा रसस्य ते। मा ते हास्त तन्वः किं चनेह ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा । ते । मन: । मा । असो: । मा । अङ्गानाम् । मा । रसस्य । ते । मा । ते । हास्त । तन्व: । किम् । चन । इह ॥२.२४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 24
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्यों का पितरों के साथ कर्त्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे मनुष्य !] (मा) नतौ (ते) तेरा (मनः) मन, (मा)(ते) तेरे (असोः) प्राण का (मा)(अङ्गानाम्)अङ्गों का, (मा)(रसस्य) रस [वीर्य] का, (मा)(ते) तेरे (तन्वः) शरीर का (किं चन) कुछ भी (इह) यहाँ पर से (हास्त) चला जावे ॥२४॥

    भावार्थ

    मनुष्य विद्वानों सेसुशिक्षित होकर प्रयत्न करे कि उसकी शारीरिक और आत्मिक अवस्था सदा स्वस्थ रहे॥२४॥

    टिप्पणी

    २४−(मा) निषेधे (ते) तव (मनः) चित्तम् (मा) (असोः) प्राणस्य (मा) (अङ्गानाम्) अवयवानाम् (मा) (रसस्य) वीर्यस्य (ते) (मा हास्त) ओहाङ् गतौ-लुङ्।मा गच्छेत् (ते) (तन्वः) शरीरस्य (किं चन) किमपि (इह) अत्र। अस्माकं मध्यात् ॥

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    विषय

    'मन व शरीर की स्वस्थता

    पदार्थ

    १. हे पुरुष! (ते मनः मा हास्त) = तेरा मन तुझे न छोड़ जाए-तेरा मन सदा सोत्साह बना रहे। (इह) = यहाँ (असो:) = प्राणों का कुछ भी अंश (मा) [हास्त] = तुझे न छोड़ दे। (अङ्गानाम्) = अंगों का भी कोई अंश (मा) = तुझे न छोड़े-तेरा कोई भी अंग विकृत न हो जाए। (ते) = तेरे (रसस्य) = शरीरस्थ रुधिरादि का भी कोई अंग (मा) = तुझे न छोड़े। २. संक्षेप में, (ते तन्व:) = तेरे शरीर का (किंचन मा) [हास्त] = यहाँ कोई भी भाग तुझसे पृथक् न हो। तू अरिष्ट सांग बना रहे।

    भावार्थ

    हम आयुष्य के नियमों का ज्ञान प्राप्त करके इसप्रकार युक्ताहारविहार बनें कि न तो हमारा मन हतोत्साह हो और न ही किसी अंग में कोई विकृति व कमी आये।

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    भाषार्थ

    हे सद्गृहस्थी ! (इह) इस गृहस्थ जीवनकाल में (ते) तेरी (मन) मानसिक शक्तियां (मा हास्त) तेरा परित्याग न करें, (असोः) प्राणशक्ति-प्रज्ञाशक्ति तथा शारीरिक बल का (किंचन) कोई अंश (मा हास्त) तेरा परित्याग न करे, (अङ्गानाम्) तेरे अङ्गों में से कोई अङ्ग (मा हास्त) तेरा परित्याग न करे, (ते) तेरे (रसस्य) शारीरिक रसों में से कोई रस (मा हस्त) तेरा परित्याग न करे। (ते) तेरे (तन्वः) शरीर का कोई भी तत्त्व अर्थात् अङ्ग रस आदि (मा हास्त) तेरा परित्याग न करे।

    टिप्पणी

    [अर्थात गृहस्थजीवन में सदाचार और संयमपूर्वक रहकर अपनी किसी भी शक्ति का अपव्यय न कर। जिस से कि तेरी सम्पूर्ण मानसिक तथा शारीरिक शक्तियां बनी रहें, ताकि आत्मोन्नति के लिये तू अगले आश्रमों में सुखपूर्वक जा सके]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Let nothing of your mind, pranas, limbs, body, or of the essence of your joy of being be lost or wasted here (in Grhastha).

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    Translation

    Let nothing whatever of thy mind, nor of thy life, nor of thy members, nor of thy sap, nor of thy body, be left here.

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    Translation

    O man, (In your life) your mind may not leave you may not any thing of your vital power, your limbs, your sap and your body leave you (immaturely).

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    Translation

    O man, let not thy mind forsake thee. Let not thy breath leave thee. Let no organ of thine decay before time, Let not thy blood cease flowing. Let no part of thy body cease functioning early in thy life-time!

    Footnote

    All organs of a man should continue working in a healthy state till he reaches the age of one hundred years.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २४−(मा) निषेधे (ते) तव (मनः) चित्तम् (मा) (असोः) प्राणस्य (मा) (अङ्गानाम्) अवयवानाम् (मा) (रसस्य) वीर्यस्य (ते) (मा हास्त) ओहाङ् गतौ-लुङ्।मा गच्छेत् (ते) (तन्वः) शरीरस्य (किं चन) किमपि (इह) अत्र। अस्माकं मध्यात् ॥

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