अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 58
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
1
अ॒ग्नेर्वर्म॒परि॒ गोभि॑र्व्ययस्व॒ सं प्रोर्णु॑ष्व॒ मेद॑सा॒ पीव॑सा च। नेत्त्वा॑धृ॒ष्णुर्हर॑सा॒ जर्हृ॑षाणो द॒धृग्वि॑ध॒क्षन्प॑री॒ङ्खया॑तै ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्ने: । वर्म॑ । परि॑ । गोभि॑: । व्य॒य॒स्व॒ । सम् । प्र । ऊ॒र्णु॒ष्व॒ । मेद॑सा । पीव॑सा । च॒ । न । इत् । त्वा॒ । धृ॒ष्णु: । हर॑सा । जर्हृ॑षाण: । द॒धृक् । वि॒ऽध॒क्षन् । प॒रि॒ऽई॒ङ्ख्या॑तै ॥२.५८॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्नेर्वर्मपरि गोभिर्व्ययस्व सं प्रोर्णुष्व मेदसा पीवसा च। नेत्त्वाधृष्णुर्हरसा जर्हृषाणो दधृग्विधक्षन्परीङ्खयातै ॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने: । वर्म । परि । गोभि: । व्ययस्व । सम् । प्र । ऊर्णुष्व । मेदसा । पीवसा । च । न । इत् । त्वा । धृष्णु: । हरसा । जर्हृषाण: । दधृक् । विऽधक्षन् । परिऽईङ्ख्यातै ॥२.५८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
सुकर्म करने का उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्य !] (अग्नेः) ज्ञानमय परमेश्वर के (वर्म) कवच [समान आश्रय] को (गोभिः) वेदवाणियोंद्वारा (परि) सब ओर से (व्ययस्व) तू पहिन और (मेदसा) ज्ञान से (च) और (पीवसा)वृद्धि से [अपने को] (सम्) सब प्रकार (प्र ऊर्णुष्व) ढके रख। (न इत्) नहीं तो (धृष्णुः) साहसी, (जर्हृषाणः) अत्यन्त हर्ष मनानेवाला, (दधृक्) निर्भय परमात्मा (त्वा) तुझको (हरसा) [अपने] तेज से (विधक्षन्) विविध प्रकार सन्ताप देता हुआ (परीङ्खयातै) इधर-उधर चला देगा ॥५८॥
भावार्थ
सब मनुष्य वेदों केमनन से परमात्मा का आश्रय ले बुद्धि बढ़ाकर उन्नति करें, नहीं तो सर्वशक्तिमान्जगदीश्वर के नियम से दुष्ट मूर्ख नरक भोगेगा ॥५८॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेदमें है−१०।१६।७। और महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि अन्त्येष्टिप्रकरण मेंउद्धृत है ॥
टिप्पणी
५८−(अग्नेः) ज्ञानमयस्य परमात्मनः (वर्म) कवचरूपमाश्रयम् (परि)सर्वतः (गोभिः) वेदवाग्भिः (व्ययस्व) व्येञ्, संवरणे। संवृणु (सम्) सम्यक् (प्र)प्रकर्षेण (ऊर्णुष्व) आच्छादय (मेदसा) मेदृ मेधायाम्-असुन्। मेधया। ज्ञानेन (पीवसा) पीव स्थौल्ये-असुन्। वृद्ध्या (च) (न इत्) नो चेत् (त्वा) (धृष्णुः)धर्षकः। अविभविता (हरसा) स्वतेजसा (जर्हृषाणः) अत्यन्तं हृष्यन् (दधृक्)ऋत्विग्दधृक्स्रग्०। पा० ३।२।५९। धृष्णोतेः क्विन् द्वित्वमन्तोदात्तत्वं च।धृष्टः। प्रगल्भः (विधक्षन्) विविधं दग्धुं तापयितुमिच्छन् (परीङ्खयातै) ईखिगतौ-लेट्। ईङ्खत इति गतिकर्मा-निघ० २।१४। सर्वथा चालयेत् ॥
विषय
प्रभुरूप कवच के अभाव में 'काम' का आक्रमण
पदार्थ
१. हे साधक! तू (गोभि:) = वेदवाणियों के द्वारा (अग्ने: वर्म परिव्ययस्व) = उस प्रभुरूप कवच को धारण करनेवाला बन। प्रभु तेरे कवच हों। इसके लिए वेदवाणियों का अध्ययन तेरा साधन हो, (च) = औरत अपने शरीर को भी (पीवसा मेदसा) = मज्जा तथा मेदस् तत्त्व-स्थौल्य व चर्बी से भी (संप्रोर्णुष्व) = सम्यक् आच्छादित कर। तेरा शरीर दुबला-पतला-सा न हो। ऐसा व्यक्ति चिड़चिड़े स्वभाव का बन जाता है। शरीर भरा हुआ हो और मनुष्य प्रभु-स्मरण में चलता हो, तब वह वासनाओं से आक्रान्त नहीं होता। २. तू प्रभु को कवच बना तथा शरीर भी तेरा भरा हुआ हो, जिससे (त्वा) = तुझे यह 'काम' रूप शत्रु न इत् परीक्षयातै चारों ओर से घेर न ले तुझे यह अपने वशीभूत न कर ले। यह काम (धृषणु:) = धर्षण करनेवाला है-हमें कुचल डालनेवाला है। (इरसा जर्हृषाण:) = विषयों में हरण के द्वारा रोमाञ्चित करनेवाला है। (दधृक्) = पकड़ लेनेवाला है-इससे पीछा छुड़ाना बड़ा कठिन है। (विधक्षन्) = यह हमें भस्म कर डालनेवाला है।
भावार्थ
'काम' के आक्रमण से हम तभी बच सकते हैं यदि प्रभु-स्मरणरूप कवच हमने धारण किया हुआ हो और हमारा शरीर अस्थि-पंजर-सा न होकर भरा व सुदृढ़ हो।
भाषार्थ
हे योगपथ पर आगे पग बढ़ाने वाले ! [संक्राम ५७] तू (गोभिः) वेदवाणियों के सदुपदेशों द्वारा (अग्नेः) जगदग्रणी परमेश्वररूपी (वर्म) कवच को (परिव्ययस्व) अपने चारों ओर पहन ले, और (गोभिः) गोओं के कारण (मेदसा) दूध-घृत द्वारा (च) और (पीवसा) दुग्धजन्य चर्बी द्वारा (सं प्र ऊणुष्व) अपने आप को आच्छादित कर ले, परिपुष्ट करलें। ताकि (धृष्णुः) पराभवकारी, (हरसा जर्हृषाणः) अपनी हरणशक्ति द्वारा मानो हरण करना चाहता हुआ, (दधृग्) प्रसह्यकारी (विधक्षन्) तथा विदग्ध करता हुआ कालाग्नि (नेत् त्वा) कहीं तुझे न (परीङ्खायातै) चारों ओर से घेर ले।
टिप्पणी
[अग्नेः वर्म = षष्ठी विभक्ति विकल्पार्थक अर्थात् अभेदार्थक है। "शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशुन्यो विकल्पः" (योग १।९); अतः अग्नेवर्म= अग्निरूपी कवच, जगदग्रणीरूपी कवच। अथर्ववेद में अन्यत्र भी कहा है, यथा "प्रजापतेरावृतो ब्रह्मणा वर्मणाहम्' (१७।१।२७)। इस उद्धरण में ब्रह्म अर्थात् ब्रह्मप्रतिपादक मन्त्रों को प्रजापति परमेश्वर की दी हुई कवच कहा है। तथा “परीतो ब्रह्मणा वर्मणाहम्” (१७।१।२८) में ब्रह्म अर्थात् परमेश्वर को कवच कहा है। तथा "सर्वो वै तत्र जीवति गौरश्वः पुरुषः पशुः। यत्रेदं ब्रह्म क्रियते परिधिर्जीवनाय कम्" (अथर्व० ८।२।२५)में ब्रह्म अर्थात् ब्रह्मप्रतिपादक मन्त्रों या ब्रह्म को परिधि अर्थात् कवच कहा है। पीवसा=पीव स्थौल्ये। शरीरगत चर्बी शरीर को स्थूल करती है। गोभिः=गौ के यहां दो अर्थ है-वेदवाणी (निघं० १।११), तथा प्रसिद्ध गौ। तथा "ताद्धितेन कृत्स्नवन्निगमा भवन्ति" (निरु० २।२।५) की दृष्टि से ‘गोभिः' का अर्थ है-गौ के दूध घृत आदि द्वारा। जर्हृषाणः = [हृ+ सन् +शानच्। दधृग - = धृष् प्रसहने]
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
Put on the armour of fire with lazer beams of Vedic voice, cover yourself with intense force and graces of plenty so that no ambitious adventurer, mad with passion for victory, may suddenly rise and try to shake you all around.
Translation
Wrap about thee of kine a protection from the fire; cover thyself up with grease and fatness, lest the bold one, exulting with violence, shake thee strongly about, intending to consume thee.
Translation
This Jiva gets its dead body burnt in fire with ghee etc. This Jiva gets him united with the body which possesses sufficient flesh, fat etc. in the series of rebirth. Let he acquire such a proof that the overporing fire could not burn his body with ghee etc. again and again in the cycle of births and deaths. (This fire many times burns the body in various beaths after births. Therefore, the salvation which is a sound proof be attained by Jivas.
Translation
O man, wear the shelter of God as thy armour with the help of Vedic verses. Encompass thyself all round with knowledge and physical strength, otherwise, the Powerful, Highly Joyful, Fearless God, punishing thee in diverse ways, will completely consume thee!
Footnote
See Rig, 10-16-7.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५८−(अग्नेः) ज्ञानमयस्य परमात्मनः (वर्म) कवचरूपमाश्रयम् (परि)सर्वतः (गोभिः) वेदवाग्भिः (व्ययस्व) व्येञ्, संवरणे। संवृणु (सम्) सम्यक् (प्र)प्रकर्षेण (ऊर्णुष्व) आच्छादय (मेदसा) मेदृ मेधायाम्-असुन्। मेधया। ज्ञानेन (पीवसा) पीव स्थौल्ये-असुन्। वृद्ध्या (च) (न इत्) नो चेत् (त्वा) (धृष्णुः)धर्षकः। अविभविता (हरसा) स्वतेजसा (जर्हृषाणः) अत्यन्तं हृष्यन् (दधृक्)ऋत्विग्दधृक्स्रग्०। पा० ३।२।५९। धृष्णोतेः क्विन् द्वित्वमन्तोदात्तत्वं च।धृष्टः। प्रगल्भः (विधक्षन्) विविधं दग्धुं तापयितुमिच्छन् (परीङ्खयातै) ईखिगतौ-लेट्। ईङ्खत इति गतिकर्मा-निघ० २।१४। सर्वथा चालयेत् ॥
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