अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 2
ऋषिः - अथर्वा
देवता - बार्हस्पत्यौदनः
छन्दः - त्रिपदा समविषमा गायत्री
सूक्तम् - ओदन सूक्त
1
द्यावा॑पृथि॒वी श्रो॒त्रे सू॑र्याचन्द्र॒मसा॒वक्षि॑णी सप्तऋ॒षयः॑ प्राणापा॒नाः ॥
स्वर सहित पद पाठद्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । श्रोत्रे॒ इति॑ । सू॒र्या॒च॒न्द्र॒मसौ॑ । अक्षि॑णी॒ इति॑ । स॒प्त॒ऽऋ॒षय॑: । प्रा॒णा॒पा॒ना: ॥३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
द्यावापृथिवी श्रोत्रे सूर्याचन्द्रमसावक्षिणी सप्तऋषयः प्राणापानाः ॥
स्वर रहित पद पाठद्यावापृथिवी इति । श्रोत्रे इति । सूर्याचन्द्रमसौ । अक्षिणी इति । सप्तऽऋषय: । प्राणापाना: ॥३.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सृष्टि के पदार्थों के ज्ञान का उपदेश।
पदार्थ
(द्यावापृथिवी) आकाश और पृथिवी, (श्रोत्रे) [परमेश्वर के] दो कान, (सूर्याचन्द्रमसौ) सूर्य और चन्द्रमा (अक्षिणी) [उसकी] दो आँखें, और (प्राणापानाः) प्राण और अपान [वायुसंचार, उसके] (सप्तऋषयः) सात ऋषि [पाँच ज्ञानेन्द्रिय त्वचा, नेत्र, श्रवण, जिह्वा, नासिका, मन और बुद्धि] हैं ॥२॥
भावार्थ
परमेश्वर ने संसार में आकाश, पृथिवी, सूर्य, चन्द्रमा को शरीर की स्थूल इन्द्रियों के समान और वायुसंचार को सूक्ष्म ज्ञानेन्द्रियों मन बुद्धि के समान रचा है ॥२॥
टिप्पणी
२−(द्यावापृथिवी) भूमिवियतौ (श्रोत्रे) श्रवणेन्द्रिये (सूर्याचन्द्रमसौ) (अक्षिणी) चक्षुषी (सप्तऋषयः) अ० ४।११।९। सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे षडिन्द्रियाणि विद्या सप्तमी-निरु० १२।३७। त्वक्चक्षुःश्रवणरसनाघ्राणमनोबुद्धयः ॥
विषय
'बृहस्पति: शिरा'
पदार्थ
१. (तस्य ओदनस्य) = उस ब्रह्मौदन के विराट् शरीर का (बृहस्पतिः शिर:) = महान् लोकों का स्वामी प्रभु ही शिर:स्थानीय है, अर्थात् वह बृहस्पति ही इसका मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। (ब्रह्म) = ज्ञान (मुखम्) = मुख है-इस ओदन के मुख से ब्रह्म [ज्ञान] की वाणियौं उच्चरित होती हैं। इस ओदन के विराट् शरीर के (द्यावापृथिवी) = द्युलोक व पृथिवीलोक (श्रोत्रे) = कान हैं। इसमें युलोक से पृथिवीलोक तक सब लोक-लोकान्तरों का ज्ञान सुनाई पड़ता है। (सूर्याचन्द्रमसौ) = सूर्य और चाँद इस ओदन-शरीर की (अक्षिणी) = आँखें हैं। सूर्य व चन्द्र द्वारा ही यह ज्ञान प्राप्त होता है। दिन का अधिष्ठातृदेव सूर्य है, रात्रि का चन्द्र। हमें दिन-रात इस ज्ञान को प्रास करना है। (सप्तऋषयः) = शरीरस्थ सप्तऋषि ही (प्राणापाना:) = इसके प्राणापान हैं। ('कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्') = दो कानों, दो नासिका-छिद्रों, दो आँखों व मुख के द्वारा ही इस ओदन-शरीर का जीवन धारित होता है। २. इस ओदन को तैयार करने के लिए (चक्षुः मुसलम्) = आँख मूसल का कार्य करती है, (काम:) = इच्छा ही इसके लिए (उलूखलम्) = ओखली है। प्रत्येक वस्तु को आँख खोलकर देखने पर वह वस्तु उस ब्रह्म की महिमा का प्रतिपादन कर रही होती है। इच्छा के बिना यह ज्ञान प्राप्त नहीं होता। (दितिः) = यह खण्डनात्मक जगत्-जिस जगत् में प्रतिक्षण छेदन-भेदन चल रहा है, वह कार्यजगत्-इस ओदन के लिए (शूर्पम्) = छाज होता है। (अदिति:) = मूल प्रकृति शर्पग्राही उस छाज को मानो पकड़े हुए है। (वात:) = यह वायु ही (अपाविनक्) = धान से तण्डलों को पृथक् करनेवाला होता है। (अश्वा: कणा:) = इस ओदन के कण अश्व' है, (गावः तण्डुला:) = ओदन के उपादानभूत तण्डुल गौवें हैं। (मशका: तुषा:) = अलग किये हुए तुष [भूसी] मशक आदि क्षुद्र जन्तु हैं। (कब्रू) = [कब to colour] चित्रित प्राणी या जगत् इस ओदन के (फलीकरणा:) = [Husks separated from the grain] छिलके हैं तथा (अभ्रम् शर:) = मेघ ऊपर आई हुई पपड़ी [Cream] की भाँति हैं।
भावार्थ
प्रभु ने वेदज्ञान दिया। इसका मुख्य प्रतिपाद्य विषय ब्रह्म है। इसमें 'हलोक, पृथिवीलोक, सूर्य-चन्द्र, सप्तर्षि, चक्षु, काम, दिति, अदिति, वात, अश्व, गौ, मशक, चित्रित जगत् [प्राणी] व मेघ' इन सबका वर्णन उपलभ्य है।
भाषार्थ
उस ओदन के (द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवीलोक (श्रोत्रे) दो श्रोत्रस्थानी हैं, (सूर्याचन्द्रमसौ) सूर्य और चन्द्रमा (अक्षिणी) दो आंखों स्थानी हैं, (सप्त ऋषयः) द्युलोकस्थ सप्तऋषि [ursa major] अथवा शरीरस्थ सात ऋषि (प्राणापानाः) प्राण और अपान स्थानी हैं।
टिप्पणी
[द्यावापृथिवी को क्रन्दसी भी कहते हैं, यथा "यं क्रन्दसीsअवसा तस्तभाने" (यजु० ३२।७)। इस की व्याख्या में, क्रन्दसी= द्यावापृथिव्यौ (महीधर)। क्रन्दसी इसलिये कि द्युलोक और पृथिवीलोक आक्रन्दन आदि शब्दों के आश्रय हैं। दो श्रोत्र भी आक्रन्दन आदि के आश्रय हैं। सूर्याचन्द्रसौ= सूर्य और चन्द्रमा के कारण प्राणियों की आंखें देखती हैं। अतः ये दो आंखें हैं। यथा "यस्य सूर्यश्चक्षुश्चन्द्रमाश्च पुनर्णवः” (अथर्व० १०/७/३३), अर्थात् सूर्य और चद्रमा को परमेश्वर ने चक्षु के रूप में रचा है। सप्त ऋषयः = शरीरस्थ१ सात ऋषि हैं, ५ ज्ञानेन्द्रियां, १ मन और विद्या (निरुक्त १२/४/३५)। जब तक ये सात ऋषि शरीर में विद्यमान रहते हैं, तब तक प्राण-अपान क्रियाएं होती हैं। द्युलोकस्थ सप्तर्षि मण्डल का प्राणापान के साथ सम्बन्ध विचारणीय है]।[१. "सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे" (यजु० ३४/५५) । ]
विषय
विराट् प्रजापति का बार्हस्पत्य ओदन रूप से वर्णन।
भावार्थ
(द्यावा-पृथिव्यौ श्रोत्रे) द्यौ और पृथिवी अर्थात् समस्त दिशाएं उसके कान हैं। (सूर्याचन्द्रसौ अक्षिणी) सूर्य और चन्द्रमा उसकी दो अंखें हैं। (सप्त ऋषयः) सात ऋषि उसके प्राण अपान आदि शरीर गत वायु हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। बार्हस्पत्यौदनो देवता। १, १४ आसुरीगायत्र्यौ, २ त्रिपदासमविषमा गायत्री, ३, ६, १० आसुरीपंक्तयः, ४, ८ साम्न्यनुष्टुभौ, ५, १३, १५ साम्न्युष्णिहः, ७, १९–२२ अनुष्टुभः, ९, १७, १८ अनुष्टुभः, ११ भुरिक् आर्चीअनुष्टुप्, १२ याजुषीजगती, १६, २३ आसुरीबृहत्यौ, २४ त्रिपदा प्रजापत्यावृहती, २६ आर्ची उष्णिक्, २७, २८ साम्नीबृहती, २९ भुरिक्, ३० याजुषी त्रिष्टुप् , ३१ अल्पशः पंक्तिरुत याजुषी। एकत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Odana
Meaning
Dyava-Prthivi, heaven and earth, are the ears, sun and moon are the eyes, and seven sages, i.e., seven stars of Ursa Major are the pranic energies, i.e., five pranas, sutratma and Dhananjaya Vayu.
Translation
Heaven and earth are the ears, sun and moon the eyes, the seven-seers the breaths and expirations.
Translation
The heavenly region and the earth are its ears, the sun and moon like eyes, and the seven elements or stars like its vital airs in haled and exhaled.
Translation
Heaven and Earth are the ears of God, the Sun and Moon are the eyes, the seven Rishis are the vital airs inhaled and exhaled.
Footnote
Seven Rishis: Five organs of cognition, skin, eye, ear, tongue, nose, mind and intellect.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(द्यावापृथिवी) भूमिवियतौ (श्रोत्रे) श्रवणेन्द्रिये (सूर्याचन्द्रमसौ) (अक्षिणी) चक्षुषी (सप्तऋषयः) अ० ४।११।९। सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे षडिन्द्रियाणि विद्या सप्तमी-निरु० १२।३७। त्वक्चक्षुःश्रवणरसनाघ्राणमनोबुद्धयः ॥
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