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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अथर्वा देवता - बार्हस्पत्यौदनः छन्दः - आसुरी पङ्क्तिः सूक्तम् - ओदन सूक्त
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    कब्रु॑ फली॒कर॑णाः॒ शरो॒ऽभ्रम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कब्रु॑ । फ॒ली॒ऽकर॑णा: । शर॑: । अ॒भ्रम् ॥३.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कब्रु फलीकरणाः शरोऽभ्रम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कब्रु । फलीऽकरणा: । शर: । अभ्रम् ॥३.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 3; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सृष्टि के पदार्थों के ज्ञान का उपदेश।

    पदार्थ

    (कब्रु) विचित्र रङ्गवाला [जगत्] (फलीकरणाः) [उसका] फटकन [भुसी आदि] और (अभ्रम्) बादल (शरः) [उसका] घास-फूँस [समान] है ॥६॥

    भावार्थ

    श्वेत पीत आदि वर्ण युक्त जगत् और मेघ आदि परमेश्वर की अति छोटी वस्तु हैं ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(कब्रु) मीपीभ्यां रुः। उ० ४।१०—१। कबृ स्तुतौ वर्णे च। रु प्रत्ययः। वर्णितम्। विचित्रीकृतं जगत् (फलीकरणाः) ञिफला विदारणे-अच्+डुकृञ् करणे-ल्यु, च्वि च। स्फोटनेन विदारिततुषादयः (शरः) शॄ हिंसायाम्-अप्। तृणम् (अभ्रम्) अब्भ्रम्। मेघः ॥

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    विषय

    'बृहस्पति: शिरा'

    पदार्थ

    १. (तस्य ओदनस्य) = उस ब्रह्मौदन के विराट् शरीर का (बृहस्पतिः शिर:) = महान् लोकों का स्वामी प्रभु ही शिर:स्थानीय है, अर्थात् वह बृहस्पति ही इसका मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। (ब्रह्म) = ज्ञान (मुखम्) = मुख है-इस ओदन के मुख से ब्रह्म [ज्ञान] की वाणियौं उच्चरित होती हैं। इस ओदन के विराट् शरीर के (द्यावापृथिवी) = द्युलोक व पृथिवीलोक (श्रोत्रे) = कान हैं। इसमें युलोक से पृथिवीलोक तक सब लोक-लोकान्तरों का ज्ञान सुनाई पड़ता है। (सूर्याचन्द्रमसौ) = सूर्य और चाँद इस ओदन-शरीर की (अक्षिणी) = आँखें हैं। सूर्य व चन्द्र द्वारा ही यह ज्ञान प्राप्त होता है। दिन का अधिष्ठातृदेव सूर्य है, रात्रि का चन्द्र। हमें दिन-रात इस ज्ञान को प्रास करना है। (सप्तऋषयः) = शरीरस्थ सप्तऋषि ही (प्राणापाना:) = इसके प्राणापान हैं। ('कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्') = दो कानों, दो नासिका-छिद्रों, दो आँखों व मुख के द्वारा ही इस ओदन-शरीर का जीवन धारित होता है। २. इस ओदन को तैयार करने के लिए (चक्षुः मुसलम्) = आँख मूसल का कार्य करती है, (काम:) = इच्छा ही इसके लिए (उलूखलम्) = ओखली है। प्रत्येक वस्तु को आँख खोलकर देखने पर वह वस्तु उस ब्रह्म की महिमा का प्रतिपादन कर रही होती है। इच्छा के बिना यह ज्ञान प्राप्त नहीं होता। (दितिः) = यह खण्डनात्मक जगत्-जिस जगत् में प्रतिक्षण छेदन-भेदन चल रहा है, वह कार्यजगत्-इस ओदन के लिए (शूर्पम्) = छाज होता है। (अदिति:) = मूल प्रकृति शर्पग्राही उस छाज को मानो पकड़े हुए है। (वात:) = यह वायु ही (अपाविनक्) = धान से तण्डलों को पृथक् करनेवाला होता है। (अश्वा: कणा:) = इस ओदन के कण अश्व' है, (गावः तण्डुला:) = ओदन के उपादानभूत तण्डुल गौवें हैं। (मशका: तुषा:) = अलग किये हुए तुष [भूसी] मशक आदि क्षुद्र जन्तु हैं। (कब्रू) = [कब to colour] चित्रित प्राणी या जगत् इस ओदन के (फलीकरणा:) = [Husks separated from the grain] छिलके हैं तथा (अभ्रम् शर:) = मेघ ऊपर आई हुई पपड़ी [Cream] की भाँति हैं।

    भावार्थ

    प्रभु ने वेदज्ञान दिया। इसका मुख्य प्रतिपाद्य विषय ब्रह्म है। इसमें 'हलोक, पृथिवीलोक, सूर्य-चन्द्र, सप्तर्षि, चक्षु, काम, दिति, अदिति, वात, अश्व, गौ, मशक, चित्रित जगत् [प्राणी] व मेघ' इन सबका वर्णन उपलभ्य है।

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    भाषार्थ

    (कब्रु) हैं (फलीकरणाः) तण्डुल सम्बन्धी तिनके आदि के स्थानी, (अभ्रम्) मेघ है (शरः) उबलते तण्डुलों की झाग के स्थानी।

    टिप्पणी

    [कब्रु के स्थान में सायण ने "कभ्रु" पाठ मान कर, "कं शिर एब भ्रूवौ यस्य प्राणिजातस्य तत् कभ्रु", इस विग्रह द्वारा आंखों के ऊपर के भौएं अर्थ किया है (Eye brows)। "कब्रु" पद का रूपान्तर "कंबर" तथा "कंबु" शब्द प्रतीत होते हैं, जिन के अर्थ हैं "Variegted color; तथा spotted (आप्टे), अर्थात् विविधरंगी, तथा बिन्दुओं वाला, धब्बों वाला पदार्थ सम्भवतः प्रकृतिरूप पदार्थ। "अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णाम्" (श्वेता० उप० ४।५) द्वारा प्रकृति-पदार्थ को विविधरंगी दर्शाया है। अवहत व्रीहि भी, समूहरूप में, विविधरंगी होते है, तण्डुल तुष, तिनके - इन का मिश्रित रूप विविधरंगी ही होता है, इसे फलीकरणावस्था कह सकते हैं। "शरः" का अर्थ मलाई भी होता है जोकि उबलते तण्डुलों की झाग की तरह सुफैद होती है। इस सादृश्य से झाग को "शर" कहा हो। कब्रु, अभु का सम्बन्ध परमेश्वरोदन के साथ हैं, और फलीकरणों और झाग (शर) का कृष्योदन के साथ। इस प्रकार परस्पर प्रतिरूपता है। "अदिति" भी प्रकृति है, अवखण्डन-रहित होने से, और कब्रु भी प्रकृति है विविधरंगी होने से। गुणभेद के कारण प्रकृति का वर्णन भिन्न-भिन्न शब्दों द्वारा हुआ है। "कब्रु" के अर्थ पर अनुसन्धान अपेक्षित है]

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    विषय

    विराट् प्रजापति का बार्हस्पत्य ओदन रूप से वर्णन।

    भावार्थ

    (कब्रु फलीकरणाः) कब्रु ये नाना रंग वाले दृश्य उसके ऊपर के छिलके हैं। (शरः अभ्रम्) ऊपर की पीपड़ी मेघ हैं

    टिप्पणी

    ‘क्रभ्रु’, ‘शिरोऽभ्रम्’ इति सायणाभिमतः पाठः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। बार्हस्पत्यौदनो देवता। १, १४ आसुरीगायत्र्यौ, २ त्रिपदासमविषमा गायत्री, ३, ६, १० आसुरीपंक्तयः, ४, ८ साम्न्यनुष्टुभौ, ५, १३, १५ साम्न्युष्णिहः, ७, १९–२२ अनुष्टुभः, ९, १७, १८ अनुष्टुभः, ११ भुरिक् आर्चीअनुष्टुप्, १२ याजुषीजगती, १६, २३ आसुरीबृहत्यौ, २४ त्रिपदा प्रजापत्यावृहती, २६ आर्ची उष्णिक्, २७, २८ साम्नीबृहती, २९ भुरिक्, ३० याजुषी त्रिष्टुप् , ३१ अल्पशः पंक्तिरुत याजुषी। एकत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Odana

    Meaning

    Variety is pieces of grain, clouds of vapour, the froth.

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    Translation

    Kabru the hulls, the cloud the stalk (Sara).

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    Translation

    Kabrus, various scenes are like peals and rain vapors are like reeds.

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    Translation

    This multi-colored wonderful world is the husk, the rain-cloud is the reed.

    Footnote

    This beautiful world and cloud testify to a part of God's glory.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(कब्रु) मीपीभ्यां रुः। उ० ४।१०—१। कबृ स्तुतौ वर्णे च। रु प्रत्ययः। वर्णितम्। विचित्रीकृतं जगत् (फलीकरणाः) ञिफला विदारणे-अच्+डुकृञ् करणे-ल्यु, च्वि च। स्फोटनेन विदारिततुषादयः (शरः) शॄ हिंसायाम्-अप्। तृणम् (अभ्रम्) अब्भ्रम्। मेघः ॥

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