Loading...
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 30
    ऋषिः - अथर्वा देवता - बार्हस्पत्यौदनः छन्दः - याजुषी त्रिष्टुप् सूक्तम् - ओदन सूक्त
    0

    नैवाहमो॑द॒नं न मामो॑द॒नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । ए॒व । अ॒हम् । ओ॒द॒नम् । न । माम् । ओ॒द॒न: ॥३.३०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नैवाहमोदनं न मामोदनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । एव । अहम् । ओदनम् । न । माम् । ओदन: ॥३.३०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 3; मन्त्र » 30
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सृष्टि के पदार्थों के ज्ञान का उपदेश।

    पदार्थ

    (न एव) न तो (अहम्) मैंने (ओदनम्) ओदन [सुख बरसानेवाले अन्नरूप परमेश्वर] को [खाया है] और (न)(माम्) मुझको (ओदनः) ओदन [सुख बरसानेवाले परमेश्वर] ने [खाया] है ॥३०॥

    भावार्थ

    यह मन्त्र २७ का उत्तर है। जीवात्मा और परमात्मा दोनों अनादि, अन्तरहित और अविनाशी हैं ॥३०॥

    टिप्पणी

    ३०−(न) निषेधे (एव) निश्चयेन (अहम्) प्राणी प्राशिषमिति शेषः म० २७। (ओदनम्) सुखवर्षकमन्नरूपं परमात्मानम् (न) निषेधे (माम्) जीवात्मानम् (ओदनः) अन्नरूपः परमेश्वरः प्राशीदिति शेषः म० २७॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    पराञ्चं+प्रत्यञ्चम् [न अहम्, न माम्]

    पदार्थ

    १. (ब्रह्मवादिनः) = ज्ञान का प्रतिपादन करनेवाले (वदन्ति) = प्रश्न करते हुए कहते हैं कि तुने (पराञ्चम्) = [पर अञ्च] परोक्ष ब्रह्म में गतिवाले (ओदनम्) = ज्ञान के भोजन को (प्राशी:) = खाया है, अर्थात् पराविद्या को ही प्राप्त करने का यन किया है अथवा (प्रत्यञ्बम् इति) = [प्रति अञ्च] अपने अभिमुख-सामने उपस्थित इन प्रत्यक्ष पदाथों का ही, अर्थात् अपराविद्या को ही जानने का यत्न किया है? एक प्रश्न वे ब्रह्मवादी और भी करते हैं कि यह जो तू संसार में भोजन करता है तो क्या (त्वम् ओदन प्राशी:) = तूने भोजन खाया है, या (ओदनः त्वाम् इति) = इस ओदन ने ही तुझे खा डाला है? २. प्रश्न करके वे ब्रह्मवादी ही समझाते हुए (एनं आह) = इस ओदनभोक्ता से कहते हैं कि (पराञ्चं च एनं प्राशी:) = [च-एव] यदि तू केवल परोक्ष ब्रह्म का ज्ञान देनेवाले इस ज्ञान के भोजन को ही खाएगा तो (प्राणा: त्वा हास्यन्ति इति) = प्राण तुझे छोड़ जाएंगे, अर्थात् तू जीवन को धारण न कर सकेगा और वे (एनं आह) = इसे कहते हैं कि (प्रत्यञ्च च एनं प्राशी:) = केवल अभिमुख पदार्थों का ही ज्ञान देनेवाले इस ओदन को तू खाता है तो (अपाना: त्वा हास्यन्ति इति) = दोष दूर करने की शक्तियाँ तुझे छोड़ जाएँगी, अर्थात् केवल ब्रह्मज्ञानवाला मृत ही हो जाएगा, और केवल प्रकृतिज्ञानवाला दूषित जीवनवाला हो जाएगा। ३. इसी प्रकार सांसारिक भोजन के विषय में वह कहता है कि (न एव अहम् ओदनम्) = न तो मैं ओदन को खाता हैं और (न माम् ओदनः) = न ओदन मुझे खाता है। अपितु (ओदनः एव) = यह अन्न का विकार अन्नमयकोश ही (ओदनं प्राशीत्) = अन्न खाता है, अर्थात् जितनी इस अन्नमयकोश की आवश्यकता  होती है, उतने ही अन्न का यह ग्रहण करता है। मैं स्वादवश अन्न नहीं खाता। इसीलिए तो यह भी मुझे नहीं खा जाता। स्वादवश खाकर ही तो प्राणी रोगों का शिकार हुआ करता है।

    भावार्थ

    हम परा व अपराविद्या दोनों को प्राप्त करें। अपराविद्या के अभाव में जीवनधारण सम्भव न होगा और पराविद्या के अभाव में जीवन दोषों से परिपूर्ण हो जाएगा, क्योंकि तब हम प्राकृतिक भोगों में फंस जाएंगे। इसी बात को इसप्रकार कहते हैं कि शरीर की आवश्यकता के लिए ही खाएँगे तब तो ठीक है, यदि स्वादों में पड़ गये तो इस अन्न का ही शिकार हो जाएंगे।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (न एव) न ही (अहम्) मैंने (ओदनम्) ओदन का प्राशन किया, (न) और न (माम्) मेरा (ओदनः) ओदन ने प्राशन किया।

    टिप्पणी

    [मन्त्र २६ में "ब्रह्मवादिनः पद" द्वारा प्रश्न किये गये हैं, सामान्य व्यक्तियों द्वारा नहीं। इसलिये प्रश्नों में आध्यात्मिकता की भावना प्रतीत होती है। इन प्रश्नों के उत्तर भी आध्यात्मिक भावनाओं का पुट लिये हुए हैं। उत्तरदाता अपने स्वरूप को अनध्यात्म और अध्यात्म,– दोनों रूपों में देखता है। अनध्यात्म रूप है शरीर, और अध्यात्म रूप है जीवात्मा का आत्मरूप। उत्तरदाता का अभिप्राय है कि "मैं आत्मा" ने प्राकृतिक ओदन का प्राशन नहीं किया, न प्राकृतिक-ओदन ने मेरे स्वरूप का प्राशन किया है। तो किस ने किस का प्राशन किया, इसका उत्तर ३१ में है]। यथा—

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    विराट् प्रजापति का बार्हस्पत्य ओदन रूप से वर्णन।

    भावार्थ

    (नैव अहम् ओदनम्, न माम् ओदनः) और यदि कहे न मैं ओदन का भोग करता हूं और न ओदन मुझे भोग करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। बार्हस्पत्यौदनो देवता। १, १४ आसुरीगायत्र्यौ, २ त्रिपदासमविषमा गायत्री, ३, ६, १० आसुरीपंक्तयः, ४, ८ साम्न्यनुष्टुभौ, ५, १३, १५ साम्न्युष्णिहः, ७, १९–२२ अनुष्टुभः, ९, १७, १८ अनुष्टुभः, ११ भुरिक् आर्चीअनुष्टुप्, १२ याजुषीजगती, १६, २३ आसुरीबृहत्यौ, २४ त्रिपदा प्रजापत्यावृहती, २६ आर्ची उष्णिक्, २७, २८ साम्नीबृहती, २९ भुरिक्, ३० याजुषी त्रिष्टुप् , ३१ अल्पशः पंक्तिरुत याजुषी। एकत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Odana

    Meaning

    Neither have I eaten the (external) Odana, nor has the (external) Odana eaten me.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Not I indeed, (have eaten) the rice-dish, not the rice-dish me.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    I indeed have not eaten the Odana nor has the Odana eaten me.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    God has devoured this created universe.

    Footnote

    God, through His infinite power creates the world in the beginning and then dissolves it at the end. The process of creation and dissolution is eternal.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३०−(न) निषेधे (एव) निश्चयेन (अहम्) प्राणी प्राशिषमिति शेषः म० २७। (ओदनम्) सुखवर्षकमन्नरूपं परमात्मानम् (न) निषेधे (माम्) जीवात्मानम् (ओदनः) अन्नरूपः परमेश्वरः प्राशीदिति शेषः म० २७॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top