अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 52
ऋषिः - अथर्वा
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - भुरिक्साम्नी त्रिपदा त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ओदन सूक्त
0
ए॒तस्मा॒द्वा ओ॑द॒नात्त्रय॑स्त्रिंशतं लो॒कान्निर॑मिमीत प्र॒जाप॑तिः ॥
स्वर सहित पद पाठए॒तस्मा॑त् । वै । ओ॒द॒नात् । त्रय॑:ऽत्रिंशतम् । लो॒कान् । नि: । अ॒मि॒मी॒त॒ । प्र॒जाऽप॑ति: ॥५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
एतस्माद्वा ओदनात्त्रयस्त्रिंशतं लोकान्निरमिमीत प्रजापतिः ॥
स्वर रहित पद पाठएतस्मात् । वै । ओदनात् । त्रय:ऽत्रिंशतम् । लोकान् । नि: । अमिमीत । प्रजाऽपति: ॥५.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्मविद्या का उपदेश।
पदार्थ
(एतस्मात्) इस (वै) ही (ओदनात्) [अपने] ओदन [सुख बरसानेवाले अन्नरूप सामर्थ्य] से (त्रयस्त्रिंशतम्) तेंतीस (लोकान्) लोकों [दर्शनीय देवताओं] को (प्रजापतिः) प्रजापति [सृष्टिपालक परमेश्वर] ने (निः अमिमीत) निर्माण किया है ॥५२॥
भावार्थ
परमेश्वर ने अपने सर्वपोषक सामर्थ्य से जगदुपकारक तेंतीस देवताओं को रचा है। वे तेंतीस देवता ये हैं−८ वसु, ११ रुद्र, १२ महीने, १ बिजुली, १ यज्ञ−देखो अथर्व० ६।१३९।१ ॥५२॥
टिप्पणी
५२−(एतस्मात्) (वै) एव (ओदनात्) स्वस्मात् सुखवर्षकात् सामर्थ्यात् (त्रयस्त्रिंशतम्) वसुरुद्रादीन्-अ० ६।१३९।१। (लोकान्) दर्शनीयान् देवान् (निरमिमीत) अ० ५।१२।११। निर्मितवान् (प्रजापतिः) सृष्टिपालकः परमेश्वरः ॥
विषय
ओदन से तेतीस लोक
पदार्थ
१. (प्रजापति:) = परमात्मा ने (एतस्मात् वै ओदनात्) = निश्चय से इस ओदन [वेदज्ञान] से ही (त्रयस्त्रिंशतम्) = तेतीस (लोकान्) = लोकों को (निरमिमीत) = बनाया। ('वेदशब्देभ्य एवादी पृथक् संस्थाश्च निर्ममे') = यह मनुवाक्य इसी भाव को व्यक्त कर रहा है। शब्द से सृष्टि की उत्पत्ति का सिद्धान्त सब प्राचीन साहित्यों में उपलभ्य है। २. (तेषाम्) = उन लोकों के (प्रज्ञानाय) = प्रकृष्ट ज्ञान के लिए प्रभु ने (यज्ञम् असुजत) = यज्ञ की उत्पत्ति की। ('यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु') = देवपूजा [बड़ों का आदर], परस्पर प्रेम [प्रणीतिरभ्यावर्तस्व विश्वेभिः सह] तथा आचार्य के प्रति अपना अर्पण कर देना, ये तीन उपाय प्रभु ने असजत-रचे। 'देवपूजा, संगतिकरण व दान' से ही ज्ञान की प्राप्ति सम्भव है।
भावार्थ
वेद-शब्दों से ही सृष्टि की उत्पत्ति हुई। इन्हें समझने के लिए आवश्यक है कि हम बड़ों का आदर करें, परस्पर प्रीतिपूर्वक वर्ते तथा आचार्यों के प्रति अपने को दे डालें।
भाषार्थ
(वै) निश्चय से (एतस्मात्, ओदनात) इस निज-ब्रह्मौदन स्वरूप से, (प्रजापतिः१) प्रजापतिरूप में (त्रयस्त्रिंशतं लोकान्) ३३ लोकों को (निरमिमीत) उसने निर्मित किया, अर्थात् ३३ देवों के ३३ स्थानों को नियत किया।
टिप्पणी
[१. प्रलयावशिष्ट ब्रह्म ने सृष्ट्युत्पादनार्थ प्रजापतिरूप हो कर ३३ लोकों का निर्माण किया। प्रलयावस्था में ब्रह्म प्रजापति नहीं होता। प्रजाओं के होने पर ही ब्रह्म का प्रजापतिरूप आभिर्भूत होता है। प्रलयावस्था में प्रजाएं प्रकृतिलीन होती हैं। प्रजा=उत्पन्न पदार्थ। मन्त्र में ३३ लोक कहे हैं। वेदों में अन्यत्र ३३ देवों का वर्णन होता है, लोकों का नहीं। सम्भवतः "लोकृ दर्शने" अर्थ की दृष्टि से "लोकान्" का अभिप्राय हो- दर्शनीय ३३ देव, अर्थात् ८ वसु, ११ रुद्र, १२ आदित्य और प्रजापति, तथा इन्द्र (विद्युत)।]
विषय
ब्रह्मज्ञ विद्वान् की निन्दा का बुरा परिणाम।
भावार्थ
(एतस्मात् वा ओदनात्) इस ‘ओदन’ से (त्रयः त्रिशतं लोकान्) ३३ लोकों = देवों को (प्रजापतिः) प्रजापति ने (निः अमिमीत) बनाया है (तेषां प्रज्ञानाय) उनके उत्तम रीति से ज्ञान करने के लिये (यज्ञम् असृजत) प्रजापति ने यज्ञ को रचा। अर्थात् यज्ञ की रचना के ज्ञान से ही जगत् की रचना का भी ज्ञान हो जायगा।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। ओदनो देवता। ५० आसुरी अनुष्टुप्, ५१ आर्ची उष्णिक्, ५२ त्रिपदा भुरिक् साम्नी त्रिष्टुप्, ५३ आसुरीबृहती, ५४ द्विपदाभुरिक् साम्नी बृहती, ५५ साम्नी उष्णिक्, ५६ प्राजापत्या बृहती। सप्तर्चं तृतीयं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Odana
Meaning
And with this Odana and from this Odana, Prakrti and Prakrti’s divine knowledge, Prajapati created the world of thirty-three divinities (eight Vasus, eleven Rudras, twelve Adityas, cosmic energy, and Yajna of evolution).
Translation
Out of this rice-dish Prajapati verily fashioned thiry-three worlds.
Translation
Prajapatih, the Lord of the Universe creates 33 Devas the luminous physical forces of the universe.
Translation
With His power of bestowing happiness, God, the Protector of mankind, created thirty-three forces of nature.
Footnote
Thirty-three: Eight vasus, Eleven Rudras, Twelve months, Lightning and Yojana.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५२−(एतस्मात्) (वै) एव (ओदनात्) स्वस्मात् सुखवर्षकात् सामर्थ्यात् (त्रयस्त्रिंशतम्) वसुरुद्रादीन्-अ० ६।१३९।१। (लोकान्) दर्शनीयान् देवान् (निरमिमीत) अ० ५।१२।११। निर्मितवान् (प्रजापतिः) सृष्टिपालकः परमेश्वरः ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal