अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 21
ऋषिः - अथर्वा
देवता - बार्हस्पत्यौदनः
छन्दः - प्राजापत्यानुष्टुप्
सूक्तम् - ओदन सूक्त
0
यस्य॑ दे॒वा अक॑ल्प॒न्तोच्छि॑ष्टे॒ षड॑शी॒तयः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । दे॒वा: । अक॑ल्पन्त । उत्ऽशि॑ष्टे । षट् । अ॒शी॒तय॑: ॥३.२१॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य देवा अकल्पन्तोच्छिष्टे षडशीतयः ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । देवा: । अकल्पन्त । उत्ऽशिष्टे । षट् । अशीतय: ॥३.२१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सृष्टि के पदार्थों के ज्ञान का उपदेश।
पदार्थ
(यस्य) जिस [परमेश्वर] के (उच्छिष्टे) सबसे बड़े श्रेष्ठ [वा प्रलय में भी बचे] सामर्थ्य में (देवाः) [सूर्य आदि] दिव्य लोक और (षट्) छह [पूर्व आदि चार और नीचे ऊपर की] (अशीतयः) व्यापक दिशाएँ (अकल्पन्त) रची हैं ॥२१॥
भावार्थ
मन्त्र २२ के साथ ॥२१॥
टिप्पणी
२१−(यस्य) परमेश्वरस्य (देवाः) सूर्यादयो दिव्यलोकाः (अकल्पन्त) कृपू सामर्थ्ये-लङ्। रचिता अभवन् (उच्छिष्टे) शासु अनुशिष्टौ-क्त। शास इदङ्हलोः। पा० ६।४।३।४। उपधाया इकारः। शासिवसिघसीनां च। पा० ८।३।६०। इति षत्वम्। यद्वा शिष असर्वोपयागे-क्त। उच्छिष्टात् सर्वस्मादूर्ध्वं शिष्टात् परमेश्वरात् तत्सामर्थ्याच्च-इति दयानन्दकृतायाम् ऋग्वेदादिभाष्यभूमिकायां पृष्ठे १३६। सर्वोत्कृष्टे सामर्थ्ये। यद्वा प्रलयेऽप्यवशिष्टे। परिशिष्टे सामर्थ्ये (षट्) प्राच्यादिनीचोच्चषट्संख्याकाः (अशीतयः) अ० २।१२।४। वसेस्तिः उ० ४।१८०। अशू व्याप्तौ-ति, छान्दस इडागमो दीर्घश्च। व्यापिका दिशाः ॥
विषय
'सर्वलोकावाप्ति' रूप ओदनफल
पदार्थ
१. (ओदनेन) = इस ज्ञान के ओदन से [यज्ञैः प्राप्तव्यत्वेन उच्यमाना:-'वचे: विच्चिरूपम्'] (यज्ञवच:) = यज्ञों से प्राप्तव्यरूप में कहे गये (सर्वे लोका:) = सब लोक (समाप्या:) = प्राप्त करने योग्य होते हैं। ज्ञान-प्राप्ति से उन सब उत्तम लोकों की प्राप्ति होती है, जो लोक कि यज्ञों से प्राप्तव्य हैं। २. यह ओदन वह है (यस्मिन्) = जिसमें (समुद्रः) = अन्तरिक्ष, (द्यौः भूमिः) = द्युलोक व पृथिवीलोक (त्रयः) = तीनों ही (अवरपरम्) = उत्तराधारभाव से-एक नीचे दूसरा ऊपर, इसप्रकार (श्रिता:) = स्थित हैं। इस ओदन में लोकत्रयी का ठीकरूप में ज्ञान दिया गया है। ३. यह ओदन वह है (यस्य) = जिसके जिससे प्रतिपादित-(उच्छिष्टे) = [ऊर्ध्व शिष्टे] प्रलय से भी बचे रहनेवाले प्रभु में (षट् अशीतयः) = [अश् व्यासौं]पूर्व पश्चिम, उत्तर-दक्षिण, ऊपर-नीचे' इन छह दिशाओं में व्याप्तिवाले इनमें रहनेवाले (देवा:)= सूर्यचन्द्र आदि सब देव (अकल्पन्त) = सामर्थ्यवान् बनते हैं।
भावार्थ
ज्ञान से उत्तम लोकों की प्राप्ति होती है। इस वेदज्ञान में लोकत्रयो का ज्ञान उपलभ्य है। इसमें उस प्रभु का प्रतिपादन है, जिसके आधार से सूर्य आदि सब देव शक्तिशाली बनते हैं। [तस्य भासा सर्वमिदं विभाति]।
भाषार्थ
(यस्य उच्छिष्टे) जिस ओदन रूपी उच्छिष्ट में (षडशीतयः देवाः) ६ गुना ८० अर्थात् ४८० देव (अकल्पन्त) समर्थ अर्थात् शक्ति सम्पन्न होते हैं।
टिप्पणी
[यस्य उच्छिष्टे= विकल्पे षष्ठी। अथर्व० ११।७ सूक्त में "उच्छिष्ट" का वर्णन हुआ है। उस में "उच्छिष्ट" का अर्थ है प्रलयावस्था में शेष रहने वाला परमेश्वर। अतः मन्त्र २१ में ओदन-ब्रह्म को ही उच्छिष्ट कहा है कृष्योदन को नहीं। षडशीतयः ६×८० देवताओं पर सम्भवतः निम्न लिखित मन्त्र कुछ प्रकाश डाल सके। यथा- अशीतिभिस्तिसृभिः सामगेभिरादित्येभिर्वसुभिरङ्गिरोभिः। इष्टापूर्तमवतु नः पितॄणामामुं ददे हरसा दैव्येन ॥ अथर्व० २।१२।४।। इस मन्त्र में सामगायकों की संख्या तीन अशीतियां (३ गुणा ८०) कही हैं। इस के द्वितीय पाद में "आदित्येभिः१, वसुभिः, तथा अङ्गिरोभिः" इन तीन प्रकार के देवों का वर्णन हुआ है। यदि इन के साथ “तिसृभिः अशीतिभिः" का अन्वय किया जाय तो इन की समुदित संख्या भी तीन अशीतियां (३ गुना ८०) हो जाती हैं। ३ गुना ८० सामग, तथा आदित्येभि आदि तीन वर्गों में प्रत्येक वर्ग की एक-एक अशीति, इस प्रकार सामग आदि सब मिल कर "षडशीतयः२" संख्या उपपन्न हो सकती है]। [१. ये सामग और "आदित्य-वसु तथा अङ्गिरा" आधिभौतिक देव अर्थात् दिव्य जन, जब उच्छिष्ट ब्रह्म की उपासना में रत रहते हैं तो ये सामर्थ्य युक्त हो जाते हैं, शक्तियों से सम्पन्न हो जाते हैं (अकल्पन्त, मन्त्र २१)। ब्रह्म की उपासना दो प्रकार से की जा सकती है। सृष्टि की रचना को देख कर "सृष्टिकर्ता" आदि के रूप में, तथा प्रलयावस्था (उच्छिष्टावस्था) में सृष्टि कर्तृत्व आदि गुणों से रहित रूप में। दूसरे प्रकार की उपासना में सृष्टिकर्तृत्व आदि गुणों का ध्यान नहीं करना होता, अपितु सबिकल्पक समाधि में "केवल" ब्रह्म का ही ध्यान कर उसे साक्षात् करना होता है। यह उपासना "उच्छिष्ट ब्रह्मोपासना" है । ६x८० संख्या का अभिप्राय अनुसन्धेय है। २. "षडशीतयः" की उपपत्ति के लिये मन्त्र का अन्वय निम्न प्रकार जानना चाहिये "अशीतिभिस्तिसृभिः सामगेभिः, अशीतिभिस्तिसृभिरादित्येभिर्वसुभिरङ्गिभि:"। आदित्येभिः वसुभिः द्वारा ४८ वर्षों और २४ वर्षों के ब्रह्मचारियों का ग्रहण है, आधिदैविक तत्वों का नहीं। "अङ्गिरोभिः" तथा ''सामगेभिः" के साहचर्य से भी आदित्य और वसु आधिभौतिक ही प्रतीत होते हैं। जड़ आदित्य और बसु सामगान नहीं कर सकते। गौण अर्थ में सामगान की कल्पना व्यर्थ है।]
विषय
विराट् प्रजापति का बार्हस्पत्य ओदन रूप से वर्णन।
भावार्थ
(यस्य उच्छिष्टे) जिसके उत्-शिष्ट=स्थूल जगत् के बनने से बचे अतिरिक्त अंश में (षट् अशीतयः देवाः) छः गुणा अस्सी = ४८० [ चार सौ अस्सी ] देव, दिव्यगुण पदार्थ (अकल्पन्त) सामर्थ्यवान् विद्यमान हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। बार्हस्पत्यौदनो देवता। १, १४ आसुरीगायत्र्यौ, २ त्रिपदासमविषमा गायत्री, ३, ६, १० आसुरीपंक्तयः, ४, ८ साम्न्यनुष्टुभौ, ५, १३, १५ साम्न्युष्णिहः, ७, १९–२२ अनुष्टुभः, ९, १७, १८ अनुष्टुभः, ११ भुरिक् आर्चीअनुष्टुप्, १२ याजुषीजगती, १६, २३ आसुरीबृहत्यौ, २४ त्रिपदा प्रजापत्यावृहती, २६ आर्ची उष्णिक्, २७, २८ साम्नीबृहती, २९ भुरिक्, ३० याजुषी त्रिष्टुप् , ३१ अल्पशः पंक्तिरुत याजुषी। एकत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Odana
Meaning
It is that Brahmaudana in the transcendent state of which, over the immanent presence, divine sages experience and enjoy six kinds of meditative food of divine ecstasy. (‘Arka’, divine presence, is the food of Devas: Shatapatha, 12, 8, 1, 2. And Ashiti is anna, food: Shatapatha, 8, 5, 2, 17. Reference may be made to Patanjali’s Yoga Sutras, I, 17-18, 42-45, and 49 and 51 for Savikalpa, Nirvikalpa, Savichara, Nirvichara Samadhi upto the Alinga state of Prakrti, Purusha Vishesha, and ultimately the Nirvishesha Nirodha Samadhi. This is the divine food for the spirit.)
Translation
In the remnant (unchista) of which took shape six times èighty gods
Translation
It is this Odana in residue of which there are gaining their powers the six times eighty worldly forces.
Translation
Under the control of God, lie all the luminous planets, and the six vast pervading directions.
Footnote
Six directions: North, East, South. West, Zenith, Nadir.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२१−(यस्य) परमेश्वरस्य (देवाः) सूर्यादयो दिव्यलोकाः (अकल्पन्त) कृपू सामर्थ्ये-लङ्। रचिता अभवन् (उच्छिष्टे) शासु अनुशिष्टौ-क्त। शास इदङ्हलोः। पा० ६।४।३।४। उपधाया इकारः। शासिवसिघसीनां च। पा० ८।३।६०। इति षत्वम्। यद्वा शिष असर्वोपयागे-क्त। उच्छिष्टात् सर्वस्मादूर्ध्वं शिष्टात् परमेश्वरात् तत्सामर्थ्याच्च-इति दयानन्दकृतायाम् ऋग्वेदादिभाष्यभूमिकायां पृष्ठे १३६। सर्वोत्कृष्टे सामर्थ्ये। यद्वा प्रलयेऽप्यवशिष्टे। परिशिष्टे सामर्थ्ये (षट्) प्राच्यादिनीचोच्चषट्संख्याकाः (अशीतयः) अ० २।१२।४। वसेस्तिः उ० ४।१८०। अशू व्याप्तौ-ति, छान्दस इडागमो दीर्घश्च। व्यापिका दिशाः ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal