अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 29
ऋषिः - अथर्वा
देवता - बार्हस्पत्यौदनः
छन्दः - भुरिक्साम्नी बृहती
सूक्तम् - ओदन सूक्त
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प्र॒त्यञ्चं॑ चैनं॒ प्राशी॑रपा॒नास्त्वा॑ हास्य॒न्तीत्ये॑नमाह ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒त्यञ्च॑म् । च॒ । ए॒न॒म् । प्र॒ऽआशी॑: । अ॒पा॒ना: । त्वा॒ । हा॒स्य॒न्ति॒ । इति॑ । ए॒न॒म् । आ॒ह॒ ॥३.२९॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रत्यञ्चं चैनं प्राशीरपानास्त्वा हास्यन्तीत्येनमाह ॥
स्वर रहित पद पाठप्रत्यञ्चम् । च । एनम् । प्रऽआशी: । अपाना: । त्वा । हास्यन्ति । इति । एनम् । आह ॥३.२९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सृष्टि के पदार्थों के ज्ञान का उपदेश।
पदार्थ
“(च) यदि (प्रत्यञ्चम्) प्रत्यक्षवर्ती (एनम्) इस [ओदन] को (प्राशीः) तूने खाया है। (अपानाः) प्रश्वासबल (त्वा) तुझे (हास्यन्ति) त्यागेंगे” (इति) ऐसा वह [आचार्य] (एनम्) इस [जिज्ञासु] से (आह) कहता है ॥२९॥
भावार्थ
मन्त्र २६ का उत्तर है। आचार्य उपदेश करता है, जो मनुष्य परमेश्वर को दूरवर्ती वा समीपवर्ती अर्थात् एकस्थानी मानता है, वह श्वास और प्रश्वास से हीन होकर निर्बल हो जाता है ॥२९॥
टिप्पणी
२९−(प्रत्यञ्चम्) म० २६। प्रत्यक्षवर्तिनम् (अपानाः) प्रश्वासबलानि। अन्यत् पूर्ववत् म० २८॥
विषय
पराञ्चं+प्रत्यञ्चम् [न अहम्, न माम्]
पदार्थ
१. (ब्रह्मवादिनः) = ज्ञान का प्रतिपादन करनेवाले (वदन्ति) = प्रश्न करते हुए कहते हैं कि तुने (पराञ्चम्) = [पर अञ्च] परोक्ष ब्रह्म में गतिवाले (ओदनम्) = ज्ञान के भोजन को (प्राशी:) = खाया है, अर्थात् पराविद्या को ही प्राप्त करने का यन किया है अथवा (प्रत्यञ्बम् इति) = [प्रति अञ्च] अपने अभिमुख-सामने उपस्थित इन प्रत्यक्ष पदाथों का ही, अर्थात् अपराविद्या को ही जानने का यत्न किया है? एक प्रश्न वे ब्रह्मवादी और भी करते हैं कि यह जो तू संसार में भोजन करता है तो क्या (त्वम् ओदन प्राशी:) = तूने भोजन खाया है, या (ओदनः त्वाम् इति) = इस ओदन ने ही तुझे खा डाला है? २. प्रश्न करके वे ब्रह्मवादी ही समझाते हुए (एनं आह) = इस ओदनभोक्ता से कहते हैं कि (पराञ्चं च एनं प्राशी:) = [च-एव] यदि तू केवल परोक्ष ब्रह्म का ज्ञान देनेवाले इस ज्ञान के भोजन को ही खाएगा तो (प्राणा: त्वा हास्यन्ति इति) = प्राण तुझे छोड़ जाएंगे, अर्थात् तू जीवन को धारण न कर सकेगा और वे (एनं आह) = इसे कहते हैं कि (प्रत्यञ्च च एनं प्राशी:) = केवल अभिमुख पदार्थों का ही ज्ञान देनेवाले इस ओदन को तू खाता है तो (अपाना: त्वा हास्यन्ति इति) = दोष दूर करने की शक्तियाँ तुझे छोड़ जाएँगी, अर्थात् केवल ब्रह्मज्ञानवाला मृत ही हो जाएगा, और केवल प्रकृतिज्ञानवाला दूषित जीवनवाला हो जाएगा। ३. इसी प्रकार सांसारिक भोजन के विषय में वह कहता है कि (न एव अहम् ओदनम्) = न तो मैं ओदन को खाता हैं और (न माम् ओदनः) = न ओदन मुझे खाता है। अपितु (ओदनः एव) = यह अन्न का विकार अन्नमयकोश ही (ओदनं प्राशीत्) = अन्न खाता है, अर्थात् जितनी इस अन्नमयकोश की आवश्यकता होती है, उतने ही अन्न का यह ग्रहण करता है। मैं स्वादवश अन्न नहीं खाता। इसीलिए तो यह भी मुझे नहीं खा जाता। स्वादवश खाकर ही तो प्राणी रोगों का शिकार हुआ करता है।
भावार्थ
हम परा व अपराविद्या दोनों को प्राप्त करें। अपराविद्या के अभाव में जीवनधारण सम्भव न होगा और पराविद्या के अभाव में जीवन दोषों से परिपूर्ण हो जाएगा, क्योंकि तब हम प्राकृतिक भोगों में फंस जाएंगे। इसी बात को इसप्रकार कहते हैं कि शरीर की आवश्यकता के लिए ही खाएँगे तब तो ठीक है, यदि स्वादों में पड़ गये तो इस अन्न का ही शिकार हो जाएंगे।
भाषार्थ
(प्रत्यञ्चम्, च, एनम्) यदि इस प्रत्यक्-ओदन का (प्राशीः) तूने प्राशन किया है तो (अपानाः, त्वा, हास्यन्ति) अपान तुझे छोड़ जायेंगे, (इति, एनम्, आह) इस प्रकार इस आध्यात्मिक-भोक्ता को कहे।
टिप्पणी
[प्रत्यञ्च= प्रत्यक्-ओदन, परमेश्वर रूपी ओदन, जोकि आध्यात्मिक जीवन के लिये ओदन रूप है। कहा भी है "अहमन्नम्, अहमन्नादः"। परमेश्वर सम्बन्धी कथन है, परमेश्वर कहता है कि "मैं अन्न हूं" और "अन्नाद भी हूं"। आध्यात्मिक जीवन के लिये परमेश्वर अन्न [ओदन] है, और भोगियों तथा प्रलयकाल में सृष्टि के लिये वह अन्नाद हैं। यथा “यस्य ब्रह्म च क्षत्रं चोभे भक्त ओदनः। मृत्युर्यस्योपसेचनं क इत्त्था वेद यत्र सः"॥ इस उद्धरण में ब्रह्म और क्षत्र को परमेश्वर का ओदन तथा मृत्यु को उपसेचन अर्थात् ओदन का व्यञ्जन कहा है। अतः परमेश्वर अन्नाद भी है। परमेश्वर के भजन और उपासना में अधिक लीन रहने, और खान-पान तथा शारीरिक स्वास्थ्य से लापरवाह हो जाने पर अपान वायु विकृत हो जाती है, अपान वायु का यथोचितरूप में अपसरण नहीं होता। यह अपान का त्यागा जाना है।]
विषय
विराट् प्रजापति का बार्हस्पत्य ओदन रूप से वर्णन।
भावार्थ
(प्रत्यञ्चं च एनं प्राशीः) और यदि उसको अपने अभिमुख साक्षात् रूप में भोग करता है तो (एनम् आह) तो विद्वान् उस भोक्ता के प्रति कहा करता है कि (अपानाः त्वा हास्यन्ति इति) तुझ साक्षात् ओदन के भोक्ता को अपान परित्याग कर देंगे।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। बार्हस्पत्यौदनो देवता। १, १४ आसुरीगायत्र्यौ, २ त्रिपदासमविषमा गायत्री, ३, ६, १० आसुरीपंक्तयः, ४, ८ साम्न्यनुष्टुभौ, ५, १३, १५ साम्न्युष्णिहः, ७, १९–२२ अनुष्टुभः, ९, १७, १८ अनुष्टुभः, ११ भुरिक् आर्चीअनुष्टुप्, १२ याजुषीजगती, १६, २३ आसुरीबृहत्यौ, २४ त्रिपदा प्रजापत्यावृहती, २६ आर्ची उष्णिक्, २७, २८ साम्नीबृहती, २९ भुरिक्, ३० याजुषी त्रिष्टुप् , ३१ अल्पशः पंक्तिरुत याजुषी। एकत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Odana
Meaning
If you ate the closest Odana, i.e., if you are dedicated to Brahma within the heart core, apana, the cause of death (Aitareyopanishad, 1, 2, 4), will forsake you. So says the master.
Translation
If thou hast eaten it coming on, thine expirations (apana) will quit thee so one says to him.
Translation
If you have eaten this turned hitherward your Apana will leave you; he says to this one.
Translation
Neither I, the soul can harm God, nor God harms the soul.
Footnote
Both soul and God are beginning less, endless and deathless.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२९−(प्रत्यञ्चम्) म० २६। प्रत्यक्षवर्तिनम् (अपानाः) प्रश्वासबलानि। अन्यत् पूर्ववत् म० २८॥
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