अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 23
ऋषिः - अथर्वा
देवता - बार्हस्पत्यौदनः
छन्दः - आसुरी बृहती
सूक्तम् - ओदन सूक्त
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स य ओ॑द॒नस्य॑ महि॒मानं॑ वि॒द्यात् ॥
स्वर सहित पद पाठस: । य: । ओ॒द॒नस्य॑ । म॒हि॒मान॑म् । वि॒द्यात् ॥३.२३॥
स्वर रहित मन्त्र
स य ओदनस्य महिमानं विद्यात् ॥
स्वर रहित पद पाठस: । य: । ओदनस्य । महिमानम् । विद्यात् ॥३.२३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सृष्टि के पदार्थों के ज्ञान का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो [योगी जन] (ओदनस्य) ओदन [सुख बरसानेवाले अन्नरूप परमेश्वर] की (महिमानम्) महिमा को (विद्यात्) जानता हो (सः) वह (ब्रूयात्) कहे “(न अल्पः इति) वह [परमेश्वर] थोड़ा नहीं है [अर्थात् बड़ा है], (न अनुपसेचनः इति) वह उपसेचनरहित नहीं है [अर्थात् सेचन वा वृद्धि करनेवाला है], (च) और (न इदम् किम् च इति) न वह यह कुछ वस्तु है [अर्थात् ब्रह्म में अङ्गुली का निर्देश नहीं हो सकता]” ॥२३, २४॥
भावार्थ
मनुष्य जैसे-जैसे परमेश्वर को खोजता है, उसका सामर्थ्य बढ़ता जाता है, तौ भी उसका परिमाण, आदि सीमा नहीं जानता और न उसका यथावत् वर्णन कर सकता है ॥२३, २४॥
टिप्पणी
२३, २४−(सः) योगिजनः (यः) (ओनदस्य) सुखवर्षकस्यान्नरूपस्य परमात्मनः (महिमानम्) महत्त्वम् (विद्यात्) जानीयात् (न) निषेधे (अल्पः) न्यूनः (इति) वाक्यसमाप्तौ (ब्रूयात्) वदेत् (न) न ब्रूयात् (अनुपसेचनः) षिच सेके-ल्युट्। उपसेचनेन वर्धनेन रहितः (इति) (न) निषेधे (इदम्) निर्दिष्टम् ब्रह्म (च च) (किम् च) किंचन (इति) ॥
विषय
न अल्पः, न अनुपसेचनः
पदार्थ
१. वेदज्ञान को यहाँ 'ब्रह्मौदन' कहा गया है। इस ब्रह्मौदन का सर्वमहत्त्वपूर्ण प्रतिपाद्य विषय प्रभु हैं, अत: एक आचार्य से जिज्ञासु [विद्यार्थी] कहता है कि (तं त्वा) = उन आपसे मैं (ओदनस्य) = ओदन के विषय में (पृच्छामि) = पूछता हूँ, (य:) = जो (अस्य) = इस ब्रह्मौदन की (महान् महिमा) = महनीय महिमा है। इसका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रतिपाद्य विषय प्रभु के विषय में मैं आपसे पूछता हूँ। २. आचार्य उत्तर देते हुए कहते हैं कि (स:) = वह (य:) = जो (ओदनस्य) = इस ब्रह्मौदन की (महिमानम्) = महिमा को-सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रतिपाद्य विषय को (विद्यात्) = जाने वह (इति ब्रूयातू) = इतना ही कहे [कह सकता है] कि (न अल्पः) = वे प्रभु अल्प नहीं हैं-सर्वमहान् हैं, सर्वत्र व्याप्त है। (न अनुपसेचनः इति) = वे उपासक को आनन्द से सिक्त न करनेवाले नहीं। प्रभु उपासक को आनन्द से सर्वत: सिक्त कर देते हैं। उपासक एक अवर्णनीय आनन्द का अनुभव करता है। वह उस प्रभु के विषय में यही कह सकता है कि (इदं च किञ्चन इति) = वे प्रभु यह जो कुछ प्रत्यक्ष दिखता है, वह नहीं है। आँखों से दिखनेवाले व कानों से सुनाई पड़नेवाले व नासिका से प्राणीय, जिह्वा से आस्वादनीय व त्वचा से स्पर्शनीय' वे प्रभु नहीं है। वे 'यह नहीं है-यह नहीं हैं' यही उस ओदन की महान् महिमा के विषय में कहा जा सकता है। ३. (दाता) = ब्रह्मज्ञान देनेवाला (यावत्) = जितना (अभिमनस्येत) = उस ब्रह्म के विषय में मन से विचार करे, (तत् न अतिवदेत्) = उससे अधिक न कहे, अर्थात् ब्रह्म के विषय में मनन पर ही वह अधिक बल दे और जितना उसका मनन कर पाये उतना ही जिज्ञासु से कहे।
भावार्थ
वेदज्ञान का मुख्य प्रतिपाद्य विषय 'ब्रह्म' है। ब्रह्म के विषय में इतना ही कहा जा सकता है कि वह 'सर्वमहान्' हैं, आनन्ददाता हैं, इन्द्रियों का विषय नहीं हैं। हमें उसके मनन का ही प्रयत्न करना है। उसका शब्दों से ज्ञान देना कठिन है।
भाषार्थ
(यः) जो (ओदनस्य) ओदन की (महिमानम्) महिमा को (विद्यात्) जान ले ॥२३।।
टिप्पणी
[मन्त्र १९-२१ से ज्ञात हुआ कि इस ओदन प्रकरण में ओदन से मुख्य अभिप्रेत है परमेश्वर। जो परमेश्वर की महिमा को जानता है कि वह सर्वव्यापक तथा सर्वाधार (मन्त्र २०) है, उस के सम्बन्ध में उपदेष्टा जितना उपदेश दे उस के बारे में श्रोता यह न कहे कि यह उपदेश अल्प है, और दीजिये, न कहे कि ओदन का स्वरूप केवल इतना ही है? न कहे कि कुछ और ओदन के स्वरूप पर प्रकाश डालिये। उपसेचन=यजुर्वेद ३१/९ "तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः" में "प्रौक्षन्” शब्द द्वारा यज्ञ-पुरुष परमात्मा के सेचन का वर्णन हुआ है (प्रौक्षन्=प्र+उक्ष सेचने), अर्थात् भक्तिरस द्वारा परमात्मा के सेचन का वर्णन हुआ है। श्रोता उपदेश से चाहता है कि इस "उपसेचन" की विधि का भी उपदेश दिया जाय। परन्तु श्रोता को ऐसी मांग न करनी चाहिये। अध्यात्मविद्या में प्रथम, उपदेश का श्रवणमात्र ही होता है। इस से अधिक का नहीं। अधिक उपदेश के लिये उपदेष्टा जब श्रोता को अधिकारी जान लेगा तो वह निज कृपा से स्वयमेव और उपदेश कर देगा। यह अध्यात्म विद्या की पद्धति है।]
विषय
विराट् प्रजापति का बार्हस्पत्य ओदन रूप से वर्णन।
भावार्थ
(यः) जो (ओदनस्य महिमानं विद्यात्) ‘ओदन’ रूप प्रजापति की महिमा को जान ले (सः) वह (अल्प इति न ब्रूयात्) ‘थोड़ा’ ऐसा न कहे। (अनुपसैचन इति न) विना उपसेचन या व्यंजन द्रव्य के हैं ऐसा भी न कहे। (इदम्, न) साक्षात् यह दो इस प्रकार निर्देश करके कभी न कहे। (किंच इति न) और कुछ थोड़ा सा और दो ऐसा भी न कहे। अर्थात् ब्रह्मज्ञान को प्रवक्ता के पास जाकर सन्तोष से ग्रहण करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। बार्हस्पत्यौदनो देवता। १, १४ आसुरीगायत्र्यौ, २ त्रिपदासमविषमा गायत्री, ३, ६, १० आसुरीपंक्तयः, ४, ८ साम्न्यनुष्टुभौ, ५, १३, १५ साम्न्युष्णिहः, ७, १९–२२ अनुष्टुभः, ९, १७, १८ अनुष्टुभः, ११ भुरिक् आर्चीअनुष्टुप्, १२ याजुषीजगती, १६, २३ आसुरीबृहत्यौ, २४ त्रिपदा प्रजापत्यावृहती, २६ आर्ची उष्णिक्, २७, २८ साम्नीबृहती, २९ भुरिक्, ३० याजुषी त्रिष्टुप् , ३१ अल्पशः पंक्तिरुत याजुषी। एकत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Translation
He who may know the greatness of the rice-dish
Translation
This can say he who knows the magnitude of this Odana.
Translation
Would say, God is not small. He is great. He is not devoid of grandeur. He is not a Non-entity.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२३, २४−(सः) योगिजनः (यः) (ओनदस्य) सुखवर्षकस्यान्नरूपस्य परमात्मनः (महिमानम्) महत्त्वम् (विद्यात्) जानीयात् (न) निषेधे (अल्पः) न्यूनः (इति) वाक्यसमाप्तौ (ब्रूयात्) वदेत् (न) न ब्रूयात् (अनुपसेचनः) षिच सेके-ल्युट्। उपसेचनेन वर्धनेन रहितः (इति) (न) निषेधे (इदम्) निर्दिष्टम् ब्रह्म (च च) (किम् च) किंचन (इति) ॥
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