अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 26
ऋषिः - अथर्वा
देवता - बार्हस्पत्यौदनः
छन्दः - आर्च्युष्णिक्
सूक्तम् - ओदन सूक्त
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ब्र॑ह्मवा॒दिनो॑ वदन्ति॒ परा॑ञ्चमोद॒नं प्राशीः३ प्र॒त्यञ्चा३मिति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठब्र॒ह्म॒ऽवा॒दिन॑: । व॒द॒न्ति॒ । परा॑ञ्चम् । ओ॒द॒नम् । प्र । आ॒शी३: । प्र॒त्यञ्चा३म् । इति॑ ॥३.२६॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्मवादिनो वदन्ति पराञ्चमोदनं प्राशीः३ प्रत्यञ्चा३मिति ॥
स्वर रहित पद पाठब्रह्मऽवादिन: । वदन्ति । पराञ्चम् । ओदनम् । प्र । आशी३: । प्रत्यञ्चा३म् । इति ॥३.२६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सृष्टि के पदार्थों के ज्ञान का उपदेश।
पदार्थ
(ब्रह्मवादिनः) ब्रह्मवादी [ईश्वर वा वेद को विचारनेवाले] (वदन्ति) कहते हैं−“[हे मनुष्य ! क्या] (पराञ्चम्) दूरवर्ती (ओदनम्) ओदन [सुख बरसानेवाले अन्नरूप परमेश्वर] को (प्र आशीः ३) तूने खाया है, [अथवा] (प्रत्यञ्चा३म् इति) प्रत्यक्षवर्ती को ?” ॥२६॥
भावार्थ
प्रश्न है कि क्या परमेश्वर किसी दूर वा प्रत्यक्ष स्थान विशेष में मिलता है ? इसका उत्तर आगे मन्त्र २८ तथा २९ में है ॥२६॥
टिप्पणी
२६−(ब्रह्मवादिनः) ब्रह्मणः परमेश्वरस्य वेदस्य वा विचारका महर्षयः (वदन्ति) भाषन्ते (पराञ्चम्) परा+अञ्चु गतिपूजनयोः-क्विन्। दूरे गच्छन्तम् (ओदनम्) सुखवर्षकमन्नरूपं परमेश्वरम् (प्र) प्रकर्षेण (आशीः३) अश भोजने-लुङ्। विचार्यमाणानाम्। पा० ८।२।९७। इति टेः प्लुतः। भक्षितवानसि (प्रत्यञ्चा३म्) प्रति+अञ्चु गतिपूजनयोः क्विन्, पूर्ववत् प्लुतः। प्रत्यञ्चनम् प्रत्यक्षवर्तिनम् (इति) वाक्यसमाप्तौ ॥
विषय
पराञ्चं+प्रत्यञ्चम् [न अहम्, न माम्]
पदार्थ
१. (ब्रह्मवादिनः) = ज्ञान का प्रतिपादन करनेवाले (वदन्ति) = प्रश्न करते हुए कहते हैं कि तुने (पराञ्चम्) = [पर अञ्च] परोक्ष ब्रह्म में गतिवाले (ओदनम्) = ज्ञान के भोजन को (प्राशी:) = खाया है, अर्थात् पराविद्या को ही प्राप्त करने का यन किया है अथवा (प्रत्यञ्बम् इति) = [प्रति अञ्च] अपने अभिमुख-सामने उपस्थित इन प्रत्यक्ष पदाथों का ही, अर्थात् अपराविद्या को ही जानने का यत्न किया है? एक प्रश्न वे ब्रह्मवादी और भी करते हैं कि यह जो तू संसार में भोजन करता है तो क्या (त्वम् ओदन प्राशी:) = तूने भोजन खाया है, या (ओदनः त्वाम् इति) = इस ओदन ने ही तुझे खा डाला है? २. प्रश्न करके वे ब्रह्मवादी ही समझाते हुए (एनं आह) = इस ओदनभोक्ता से कहते हैं कि (पराञ्चं च एनं प्राशी:) = [च-एव] यदि तू केवल परोक्ष ब्रह्म का ज्ञान देनेवाले इस ज्ञान के भोजन को ही खाएगा तो (प्राणा: त्वा हास्यन्ति इति) = प्राण तुझे छोड़ जाएंगे, अर्थात् तू जीवन को धारण न कर सकेगा और वे (एनं आह) = इसे कहते हैं कि (प्रत्यञ्च च एनं प्राशी:) = केवल अभिमुख पदार्थों का ही ज्ञान देनेवाले इस ओदन को तू खाता है तो (अपाना: त्वा हास्यन्ति इति) = दोष दूर करने की शक्तियाँ तुझे छोड़ जाएँगी, अर्थात् केवल ब्रह्मज्ञानवाला मृत ही हो जाएगा, और केवल प्रकृतिज्ञानवाला दूषित जीवनवाला हो जाएगा। ३. इसी प्रकार सांसारिक भोजन के विषय में वह कहता है कि (न एव अहम् ओदनम्) = न तो मैं ओदन को खाता हैं और (न माम् ओदनः) = न ओदन मुझे खाता है। अपितु (ओदनः एव) = यह अन्न का विकार अन्नमयकोश ही (ओदनं प्राशीत्) = अन्न खाता है, अर्थात् जितनी इस अन्नमयकोश की आवश्यकता होती है, उतने ही अन्न का यह ग्रहण करता है। मैं स्वादवश अन्न नहीं खाता। इसीलिए तो यह भी मुझे नहीं खा जाता। स्वादवश खाकर ही तो प्राणी रोगों का शिकार हुआ करता है।
भावार्थ
हम परा व अपराविद्या दोनों को प्राप्त करें। अपराविद्या के अभाव में जीवनधारण सम्भव न होगा और पराविद्या के अभाव में जीवन दोषों से परिपूर्ण हो जाएगा, क्योंकि तब हम प्राकृतिक भोगों में फंस जाएंगे। इसी बात को इसप्रकार कहते हैं कि शरीर की आवश्यकता के लिए ही खाएँगे तब तो ठीक है, यदि स्वादों में पड़ गये तो इस अन्न का ही शिकार हो जाएंगे।
भाषार्थ
(ब्रह्मवादिनः वदन्ति) ब्रह्म का प्रवचन करने वाले कहते अर्थात् पूछते हैं कि (पराञ्चम्, ओदनम्) पराक्-ओदन का (प्राशीः) तू ने प्राशन किया है, या (प्रत्यञ्चम् इति) प्रत्यक्-ओदन का ?
टिप्पणी
[पराक् और प्रत्यक्— ये दो स्वरूप ब्रह्म के हैं। वेदों में ब्रह्माण्ड को परमेश्वर के शरीररूप में वर्णित किया है, और ब्रह्माण्ड के अवयवों को परमेश्वर के शरीरावयव या अङ्गरूप में। परन्तु ब्रह्माण्ड और तदवयव ब्रह्म के कर्मफल भोग निमित्तक नहीं। अपितु यह दर्शाने के लिये हैं कि जैसे अस्मदादि शरीर और शरीरावयव जीवात्मा के ज्ञान, इच्छा तथा प्रयत्न द्वारा प्रेरित होते हैं, वैसे ही ब्रह्माण्ड और ब्रह्माण्ड के घटक अवयव, ब्रह्म के ज्ञान, इच्छा तथा प्रयत्न द्वारा प्रेरित हो रहे हैं, जगत् निरात्मक नहीं है। पराञ्च् अर्थात् पराक्-ब्रह्म है प्राकृतिक जगत्, और प्रत्यञ्च् अर्थात् प्रत्यक्-ब्रह्म है ब्रह्म का निज आत्मिक स्वरूप, सत्, चित्, आनन्द स्वरूप। इस भावना को उपनिषद् में "द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे (बृहदा० उप० प्र० २ खण्ड ३) द्वारा प्रकट किया है]। प्रश्न द्वारा यह पूछा है कि क्या तू प्राकृतिक जगत् का ही केवल भोग करता है, या केवल चिदानन्द स्वरूप ब्रह्म में ही लीन रहता है।]
विषय
विराट् प्रजापति का बार्हस्पत्य ओदन रूप से वर्णन।
भावार्थ
(ब्रह्मवादिनः वदन्ति) ब्रह्म का विचार करने वाले ब्रह्म-ज्ञानी लोग इस प्रकार परस्पर प्रश्न करते हैं, हे पुरुष ! (पराञ्चम् ओदनं प्राशीः ३) क्या तू अपने से पराङ्मुख, अपनी आंखों से अदृश्य ‘ओदन’ का भोग करता है या (प्रत्यञ्च३म् इति) अभिमुख, साक्षात् प्रत्यक्ष ओदन का भोग करता है।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। बार्हस्पत्यौदनो देवता। १, १४ आसुरीगायत्र्यौ, २ त्रिपदासमविषमा गायत्री, ३, ६, १० आसुरीपंक्तयः, ४, ८ साम्न्यनुष्टुभौ, ५, १३, १५ साम्न्युष्णिहः, ७, १९–२२ अनुष्टुभः, ९, १७, १८ अनुष्टुभः, ११ भुरिक् आर्चीअनुष्टुप्, १२ याजुषीजगती, १६, २३ आसुरीबृहत्यौ, २४ त्रिपदा प्रजापत्यावृहती, २६ आर्ची उष्णिक्, २७, २८ साम्नीबृहती, २९ भुरिक्, ३० याजुषी त्रिष्टुप् , ३१ अल्पशः पंक्तिरुत याजुषी। एकत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Odana
Meaning
The seeker scholars of Brahma say: Did you eat of the Odana that is farthest out or that which is at the closest within ? (The ‘farthest’ Barhma is veiled in the objective world of Prakrti, and the ‘closest’ is within the heart core in the essence (Brhadaranyakopanishad, 2, 3, 1; Kathopanishad, 2,4,1; Yajurveda 40,6; Ishopanishad, 6).
Translation
The theologues (brahamavadin) say: hast thou eaten (pra-ac) the rice-dish as it was retiring (Paranc), or as it was coming on (pratyanc)?
Translation
The spiritualists knowing Supreme Being say—have you averted Odana or the Odana turned hitherward?
Translation
O man, hast thou realized God, or will He devour thee at the time of dissolution.
Footnote
Those who realize God get salvation, all others are destroyed by God at the time of the dissolution of the universe.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२६−(ब्रह्मवादिनः) ब्रह्मणः परमेश्वरस्य वेदस्य वा विचारका महर्षयः (वदन्ति) भाषन्ते (पराञ्चम्) परा+अञ्चु गतिपूजनयोः-क्विन्। दूरे गच्छन्तम् (ओदनम्) सुखवर्षकमन्नरूपं परमेश्वरम् (प्र) प्रकर्षेण (आशीः३) अश भोजने-लुङ्। विचार्यमाणानाम्। पा० ८।२।९७। इति टेः प्लुतः। भक्षितवानसि (प्रत्यञ्चा३म्) प्रति+अञ्चु गतिपूजनयोः क्विन्, पूर्ववत् प्लुतः। प्रत्यञ्चनम् प्रत्यक्षवर्तिनम् (इति) वाक्यसमाप्तौ ॥
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