अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 27
ऋषिः - अथर्वा
देवता - बार्हस्पत्यौदनः
छन्दः - साम्नी गायत्री
सूक्तम् - ओदन सूक्त
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त्वमो॑द॒नं प्राशी३स्त्वामो॑द॒ना३ इति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । ओ॒द॒नम् । प्र । आ॑शी३: । त्वाम् । ओ॒द॒ना३: । इति॑ ॥३.२७॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमोदनं प्राशी३स्त्वामोदना३ इति ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । ओदनम् । प्र । आशी३: । त्वाम् । ओदना३: । इति ॥३.२७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सृष्टि के पदार्थों के ज्ञान का उपदेश।
पदार्थ
[क्या] (त्वम्) तूने (ओदनम्) ओदन [सुख बरसानेवाले अन्नरूप परमेश्वर] को (प्र आशीः३) खाया है, [अथवा] (त्वा) तुझको (ओदना३ इति) ओदन [सुखवर्षक अन्नरूप परमेश्वर] ने ? ॥२७॥
भावार्थ
प्रश्न है कि क्या मनुष्य परमेश्वर को अन्न समान खाता है, वा परमेश्वर मनुष्य को अन्न तुल्य खाता है। इसका उत्तर मन्त्र ३० तथा ३१ में है ॥२७॥
टिप्पणी
२७−(त्वम्) (ओदनम्) सुखवर्षकमन्नरूपं परमात्मानम् (प्र) (आशीः३) म० २६। भक्षितवानसि (ओदनाः ३) विचार्यमाणानाम्। पा० ८।२।९७। इति प्लुतः। सुखवर्षकोऽन्नतुल्यः परमेश्वरः (इति) वाक्यसमाप्तौ ॥
विषय
पराञ्चं+प्रत्यञ्चम् [न अहम्, न माम्]
पदार्थ
१. (ब्रह्मवादिनः) = ज्ञान का प्रतिपादन करनेवाले (वदन्ति) = प्रश्न करते हुए कहते हैं कि तुने (पराञ्चम्) = [पर अञ्च] परोक्ष ब्रह्म में गतिवाले (ओदनम्) = ज्ञान के भोजन को (प्राशी:) = खाया है, अर्थात् पराविद्या को ही प्राप्त करने का यन किया है अथवा (प्रत्यञ्बम् इति) = [प्रति अञ्च] अपने अभिमुख-सामने उपस्थित इन प्रत्यक्ष पदाथों का ही, अर्थात् अपराविद्या को ही जानने का यत्न किया है? एक प्रश्न वे ब्रह्मवादी और भी करते हैं कि यह जो तू संसार में भोजन करता है तो क्या (त्वम् ओदन प्राशी:) = तूने भोजन खाया है, या (ओदनः त्वाम् इति) = इस ओदन ने ही तुझे खा डाला है? २. प्रश्न करके वे ब्रह्मवादी ही समझाते हुए (एनं आह) = इस ओदनभोक्ता से कहते हैं कि (पराञ्चं च एनं प्राशी:) = [च-एव] यदि तू केवल परोक्ष ब्रह्म का ज्ञान देनेवाले इस ज्ञान के भोजन को ही खाएगा तो (प्राणा: त्वा हास्यन्ति इति) = प्राण तुझे छोड़ जाएंगे, अर्थात् तू जीवन को धारण न कर सकेगा और वे (एनं आह) = इसे कहते हैं कि (प्रत्यञ्च च एनं प्राशी:) = केवल अभिमुख पदार्थों का ही ज्ञान देनेवाले इस ओदन को तू खाता है तो (अपाना: त्वा हास्यन्ति इति) = दोष दूर करने की शक्तियाँ तुझे छोड़ जाएँगी, अर्थात् केवल ब्रह्मज्ञानवाला मृत ही हो जाएगा, और केवल प्रकृतिज्ञानवाला दूषित जीवनवाला हो जाएगा। ३. इसी प्रकार सांसारिक भोजन के विषय में वह कहता है कि (न एव अहम् ओदनम्) = न तो मैं ओदन को खाता हैं और (न माम् ओदनः) = न ओदन मुझे खाता है। अपितु (ओदनः एव) = यह अन्न का विकार अन्नमयकोश ही (ओदनं प्राशीत्) = अन्न खाता है, अर्थात् जितनी इस अन्नमयकोश की आवश्यकता होती है, उतने ही अन्न का यह ग्रहण करता है। मैं स्वादवश अन्न नहीं खाता। इसीलिए तो यह भी मुझे नहीं खा जाता। स्वादवश खाकर ही तो प्राणी रोगों का शिकार हुआ करता है।
भावार्थ
हम परा व अपराविद्या दोनों को प्राप्त करें। अपराविद्या के अभाव में जीवनधारण सम्भव न होगा और पराविद्या के अभाव में जीवन दोषों से परिपूर्ण हो जाएगा, क्योंकि तब हम प्राकृतिक भोगों में फंस जाएंगे। इसी बात को इसप्रकार कहते हैं कि शरीर की आवश्यकता के लिए ही खाएँगे तब तो ठीक है, यदि स्वादों में पड़ गये तो इस अन्न का ही शिकार हो जाएंगे।
भाषार्थ
(त्वम्) तूने (ओदनम् प्राशीः) ओदन का प्राशन किया है, या (त्वाम्) तेरा (ओदनः इति) ओदन ने प्राशन किया है।
टिप्पणी
[जगत् का भोग करने वाला जगत् का भोग नहीं करता, अपितु जगत् ही उस भोक्ता का भोग कर रहा होता है। "भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः" –की उक्ति का समर्थन मन्त्र २७ द्वारा हुआ है]।
विषय
विराट् प्रजापति का बार्हस्पत्य ओदन रूप से वर्णन।
भावार्थ
(त्वम् ओदनं प्राशीः ३) तू स्वयं ‘ओदन’ का भोग करता है या (त्वाम् ओदनः ३ इति) तुझको वह ‘ओदन’ भोगता है ?
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। बार्हस्पत्यौदनो देवता। १, १४ आसुरीगायत्र्यौ, २ त्रिपदासमविषमा गायत्री, ३, ६, १० आसुरीपंक्तयः, ४, ८ साम्न्यनुष्टुभौ, ५, १३, १५ साम्न्युष्णिहः, ७, १९–२२ अनुष्टुभः, ९, १७, १८ अनुष्टुभः, ११ भुरिक् आर्चीअनुष्टुप्, १२ याजुषीजगती, १६, २३ आसुरीबृहत्यौ, २४ त्रिपदा प्रजापत्यावृहती, २६ आर्ची उष्णिक्, २७, २८ साम्नीबृहती, २९ भुरिक्, ३० याजुषी त्रिष्टुप् , ३१ अल्पशः पंक्तिरुत याजुषी। एकत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Translation
Hast thou eaten the rice-dish, or the rice-dish thee ?
Translation
Have you eaten the Odana or the Odana has eaten you?
Translation
If thou believest God to be distant, the preceptor will say, "The Pränas will abandon thee."
Footnote
(28, 29) Those who think of God as bound by the limits of place or distance are mistaken. Such persons lose the strength of their breaths and become weak.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२७−(त्वम्) (ओदनम्) सुखवर्षकमन्नरूपं परमात्मानम् (प्र) (आशीः३) म० २६। भक्षितवानसि (ओदनाः ३) विचार्यमाणानाम्। पा० ८।२।९७। इति प्लुतः। सुखवर्षकोऽन्नतुल्यः परमेश्वरः (इति) वाक्यसमाप्तौ ॥
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