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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 53
    ऋषिः - अथर्वा देवता - मन्त्रोक्ताः छन्दः - आसुरी बृहती सूक्तम् - ओदन सूक्त
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    तेषां॑ प्र॒ज्ञाना॑य य॒ज्ञम॑सृजत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तेषा॑म् । प्र॒ऽज्ञाना॑य । य॒ज्ञम् । अ॒सृ॒ज॒त॒ ॥५.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तेषां प्रज्ञानाय यज्ञमसृजत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तेषाम् । प्रऽज्ञानाय । यज्ञम् । असृजत ॥५.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 3; मन्त्र » 53
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मविद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    उस [परमेश्वर] ने (तेषाम्) उन [तेंतीस देवताओं के सामर्थ्य] के (प्रज्ञानाय) प्रकृष्ट ज्ञान के लिये (यज्ञम्) यज्ञ [परस्पर जगत् संसार] को (असृजत) सृजा ॥५३॥

    भावार्थ

    परमात्मा ने उन वसु आदि देवताओं से यह संसार इसलिये रचा है कि मनुष्य परमात्मा के संगठन सामर्थ्य को जानकर परस्पर बल बढ़ावें ॥५३॥

    टिप्पणी

    ५३−(तेषाम्) त्रयस्त्रिंशतो लोकानाम् (प्रज्ञानाय) प्रकृष्टबोधाय (यज्ञम्) परस्परसंगतसंसारम् (असृजत) सृष्टवान् ॥

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    विषय

    ओदन से तेतीस लोक

    पदार्थ

    १. (प्रजापति:) = परमात्मा ने (एतस्मात् वै ओदनात्) = निश्चय से इस ओदन [वेदज्ञान] से ही (त्रयस्त्रिंशतम्) = तेतीस (लोकान्) = लोकों को (निरमिमीत) = बनाया। ('वेदशब्देभ्य एवादी पृथक् संस्थाश्च निर्ममे') = यह मनुवाक्य इसी भाव को व्यक्त कर रहा है। शब्द से सृष्टि की उत्पत्ति का सिद्धान्त सब प्राचीन साहित्यों में उपलभ्य है। २. (तेषाम्) = उन लोकों के (प्रज्ञानाय) = प्रकृष्ट ज्ञान के लिए प्रभु ने (यज्ञम् असुजत) = यज्ञ की उत्पत्ति की। ('यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु') = देवपूजा [बड़ों का आदर], परस्पर प्रेम [प्रणीतिरभ्यावर्तस्व विश्वेभिः सह] तथा आचार्य के प्रति अपना अर्पण कर देना, ये तीन उपाय प्रभु ने असजत-रचे। 'देवपूजा, संगतिकरण व दान' से ही ज्ञान की प्राप्ति सम्भव है।

    भावार्थ

    वेद-शब्दों से ही सृष्टि की उत्पत्ति हुई। इन्हें समझने के लिए आवश्यक है कि हम बड़ों का आदर करें, परस्पर प्रीतिपूर्वक वर्ते तथा आचार्यों के प्रति अपने को दे डालें।

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    भाषार्थ

    (तेषाम्) उन ३३ लोकों के (प्रज्ञानाय) ज्ञान के लिए प्रजापति ने (यज्ञम्) यज्ञ की (असृजत) सृष्टि की।

    टिप्पणी

    [प्रजापति ने संसार-यज्ञ को रचा, ताकि इस यज्ञ के घटक ३३ लोकों का यथार्थ स्वरूप जाना जा सके१]। [(१) सृष्टि-यज्ञ को यहाँ यज्ञ कहा है। सृष्टि के होते ही सृष्टि के घटक अवयवों का प्रज्ञान हो सकता है। ज्ञेय वस्तु के अभाव में ज्ञेय का ज्ञान नहीं हो सकता।]

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    विषय

    ब्रह्मज्ञ विद्वान् की निन्दा का बुरा परिणाम।

    भावार्थ

    (एतस्मात् वा ओदनात्) इस ‘ओदन’ से (त्रयः त्रिशतं लोकान्) ३३ लोकों = देवों को (प्रजापतिः) प्रजापति ने (निः अमिमीत) बनाया है (तेषां प्रज्ञानाय) उनके उत्तम रीति से ज्ञान करने के लिये (यज्ञम् असृजत) प्रजापति ने यज्ञ को रचा। अर्थात् यज्ञ की रचना के ज्ञान से ही जगत् की रचना का भी ज्ञान हो जायगा।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। ओदनो देवता। ५० आसुरी अनुष्टुप्, ५१ आर्ची उष्णिक्, ५२ त्रिपदा भुरिक् साम्नी त्रिष्टुप्, ५३ आसुरीबृहती, ५४ द्विपदाभुरिक् साम्नी बृहती, ५५ साम्नी उष्णिक्, ५६ प्राजापत्या बृहती। सप्तर्चं तृतीयं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Odana

    Meaning

    For the knowledge of these divinities Prajapati, created the evolutionary yajna and revealed the process.

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    Translation

    In order to the knowledge (prajñana) of them he created the sacrifice.

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    Translation

    The Lord of the universe reveals the method of Yajna for the knowledge of these devas.

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    Translation

    For the excellent knowledge of these forces, God created the universe.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५३−(तेषाम्) त्रयस्त्रिंशतो लोकानाम् (प्रज्ञानाय) प्रकृष्टबोधाय (यज्ञम्) परस्परसंगतसंसारम् (असृजत) सृष्टवान् ॥

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