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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 46
    ऋषिः - अथर्वा देवता - मन्त्रोक्ताः छन्दः - सूक्तम् - ओदन सूक्त
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    तत॑श्चैनम॒न्याभ्यां॒ पादा॑भ्यां॒ प्राशी॒र्याभ्यां॑ चै॒तं पूर्व॒ ऋष॑यः॒ प्राश्न॑न्। ब॑हुचा॒री भ॑विष्य॒सीत्ये॑नमाह। तं वा अ॒हं ना॒र्वाञ्चं॒ न परा॑ञ्चं॒ न प्र॒त्यञ्च॑म्। अ॒श्विनोः॒ पादा॑भ्याम्। ताभ्या॑मेनं॒ प्राशि॑षं॒ ताभ्या॑मेनमजीगमम्। ए॒ष वा ओ॑द॒नः सर्वा॑ङ्गः॒ सर्व॑परुः॒ सर्व॑तनूः। सर्वा॑ङ्ग ए॒व सर्व॑परुः॒ सर्व॑तनूः॒ सं भ॑वति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत॑: । च॒ । ए॒न॒म् । अ॒न्याभ्या॑म् । पादा॑भ्याम् । प्र॒ऽआशी॑: । याभ्या॑म् । च॒ । ए॒तम् । पूर्वे॑ । ऋष॑य: । प्र॒ऽआश्न॑न् ॥ ब॒हु॒ऽचा॒री । भ॒वि॒ष्य॒सि॒ । इति॑ । ए॒न॒म् । आ॒ह॒ ॥ तम् । वै । अ॒हम् । न । अ॒र्वाञ्च॑म् । न । परा॑ञ्चम् । न । प्र॒त्यञ्च॑म् ॥ अ॒श्विनो॑: । पादा॑भ्याम् ॥ ताभ्या॑म् । ए॒न॒म् । प्र । आ॒शि॒ष॒म् । ताभ्या॑म् । ए॒न॒म् । अ॒जी॒ग॒म॒म् ॥ ए॒ष: । वै । ओ॒द॒न: । सर्व॑ऽअङ्ग: । सर्व॑ऽपरु: । सर्व॑ऽतनू: ॥ सर्व॑ऽअङ्ग: । ए॒व । सर्व॑ऽपरु: । सर्व॑ऽतनू: । सम् । भ॒व॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥४.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ततश्चैनमन्याभ्यां पादाभ्यां प्राशीर्याभ्यां चैतं पूर्व ऋषयः प्राश्नन्। बहुचारी भविष्यसीत्येनमाह। तं वा अहं नार्वाञ्चं न पराञ्चं न प्रत्यञ्चम्। अश्विनोः पादाभ्याम्। ताभ्यामेनं प्राशिषं ताभ्यामेनमजीगमम्। एष वा ओदनः सर्वाङ्गः सर्वपरुः सर्वतनूः। सर्वाङ्ग एव सर्वपरुः सर्वतनूः सं भवति य एवं वेद ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत: । च । एनम् । अन्याभ्याम् । पादाभ्याम् । प्रऽआशी: । याभ्याम् । च । एतम् । पूर्वे । ऋषय: । प्रऽआश्नन् ॥ बहुऽचारी । भविष्यसि । इति । एनम् । आह ॥ तम् । वै । अहम् । न । अर्वाञ्चम् । न । पराञ्चम् । न । प्रत्यञ्चम् ॥ अश्विनो: । पादाभ्याम् ॥ ताभ्याम् । एनम् । प्र । आशिषम् । ताभ्याम् । एनम् । अजीगमम् ॥ एष: । वै । ओदन: । सर्वऽअङ्ग: । सर्वऽपरु: । सर्वऽतनू: ॥ सर्वऽअङ्ग: । एव । सर्वऽपरु: । सर्वऽतनू: । सम् । भवति । य: । एवम् । वेद ॥४.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 3; मन्त्र » 46
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मविद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे जिज्ञासु !] (च) यदि (एनम्) इस [ओदन नाम परमेश्वर] को (ततः) उन [दो पैरों] से (अन्याभ्याम्) भिन्न (पादाभ्याम्) दोनों पैरों से (प्राशीः) तूने खाया [अनुभव किया] है, (याभ्याम्) जिन दोनों से (च) ही (एनम्) इस [परमेश्वर] को (पूर्वे) पहिले (ऋषयः) ऋषियों [वेदार्थ जाननेवालों] ने (प्राश्नन्) खाया [अनुभव किया] था। [तब] (बहुचारी) बहुत घूमनेवाला (भविष्यसि) तू होगा−(इति) ऐसा (एनम्) इस [जिज्ञासु] से (आह) वह [आचार्य] कहे ॥[जिज्ञासु का उत्तर]−(अहम्) मैंने (वै) निश्चय करके (न) अब (तम्) उस (अर्वाञ्चम्) पीछे वर्तमान रहनेवाले, (न) अब (पराञ्चम्) दूर वर्तमान और (न) अब (प्रत्यञ्चम्) प्रत्यक्ष वर्तमान [परमेश्वर] को [खाया अर्थात् अनुभव किया है]। (अश्विनोः) दोनों चतुर माता-पिता के (ताभ्याम्) उन (पादाभ्याम्) दोनों पैरों से (एनम्) इस [परमेश्वर] को (प्र आशिषम्) मैंने खाया [अनुभव किया] है, (ताभ्याम्) उन दोनों से (एनम्) इसको (अजीगमम्) मैंने पाया है ॥(एषः वै) यही.... म० ३२ ॥४६॥

    भावार्थ

    मन्त्र ३२ के समान ॥४६॥

    टिप्पणी

    ४६−(ततः) ताभ्यां पादाभ्याम् (पादाभ्याम्) (बहुचारी) बहु+चर गतौ-णिनि। बहुभ्रमणशीलः (भविष्यसि) (अश्विनोः) अ० २।२९।६। अशू व्याप्तौ-क्वन्, इनि। कार्येषु अश्वो व्याप्तिर्ययोस्तयोः। जननी जनकयोः। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    अश्विनोः पादाभ्याम्

    पदार्थ

    १. 'पाद' [पद गतौ] गति के लिए दिये गये हैं। यदि इनके द्वारा मनुष्य गतिमय जीवन रखता है तो उसकी प्राणापान शक्ति ठीक बनी रहती है और मानव-जीवन नीरोग रहता है, अत: तत्त्वद्रष्टा पुरुष पाँवों से गति के महत्व को समझते हुए गतिशील जीवनवाले होते हैं। (ततः च) = और तब (याभ्यां च पादाभ्याम्) = जिन गतिशील पाँवों से (पूर्वे ऋषय:) = पालक तत्त्वद्रष्टाओं ने (एतं प्राश्नन्) = इस ब्रह्मौदन को खाया है (अन्याभ्याम्) = उनसे भिन्न औरों पर प्रहार करनेवाले पाँवों से (एनं प्राशी:) = इस ब्रह्मौदन को खाया है, तो (एनं आह) = वह तत्वद्रष्टा इसे कहता है कि (बहुचारी भविष्यसि इति) = तू व्यर्थ में भटकनेवाला बनेगा। (अहम्) = मैं तो (तं वै) = उस ब्रह्मज्ञान को निश्चय से (न अर्वाञ्चं न पराञ्चं न प्रत्यञ्चम्) = न केवल यहाँ नीचे पृथिवी के पदार्थों का ज्ञान देनेवाला मानता हूँ, न ही सुदूर घुलोक के पदार्थों का और न ही सम्मुखस्थ अन्तरिक्षलोक के पदार्थों का ज्ञान देनेवाला मानता हूँ। मैंने (एनम्) = इस ब्रह्मौदन को (ताभ्याम्) = उन (अश्विनो:) = प्राणापान के (पादाभ्याम्) = पाँवों से (प्राशिषम्) = खाया है, (ताभ्याम्) = उनसे ही (एनं अजीगमम्) = इसे प्राप्त किया है। २. (एवं वा ओदन:०)[शेष पूर्ववत्]

    भावार्थ

    तत्त्वद्ष्टा पुरुष प्राणापान की शक्ति के वर्धन के लिए पाँवों से उचित गतिवाले होते हैं। परिणामत: ये व्यर्थ में भटकनेवाले नहीं होते।

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    भाषार्थ

    (पूर्वे ऋषयः) पूर्वकाल के या सद्गुणों से पूरित ऋषियों ने (याभ्यां पादाभ्याम्) जिन दो पादों से (एतम्) इस ओदन का (प्राश्नन्) प्राशन किया है, (ततः) उस से (अन्याभ्याम् पादाभ्याम्) भिन्न प्रकार के पादों से (च=चेत्) यदि (एनम्) इस ओदन का (प्राशीः) तूने प्राशन किया है, तो (बहुचारी भविष्यसि) बहुत विचरने वाला तू होगा, (इति) यह (एनम्) इस ओदन के प्राशनकर्त्ता को विज्ञ कहे। (तं वा अहं नार्वाञ्चं न पराञ्चं न प्रत्यञ्चम्) अर्थ पूर्ववत् मन्त्र ३५। (ताभ्याम् आश्विनोः पादाभ्याम्) अश्वियों के उन दो पादों से (एनम्) इस ओदन का (प्राशिषम्) मैंने प्राशन किया है, (ताभ्याम्) उन दो पादों से (एनम्) इस प्राशित ओदन के रस को (अजीगमम्) मैंने अन्य अङ्गों में [पैरों की अंगुली आदि में] पहुंचाया है। (एष वा ओदनः…... वेद) अर्थ पूर्ववत् मन्त्र ३५।

    टिप्पणी

    [बहुचारी= प्रवासी, "प्रवासशील" (सायण)। सम्भवतः पादरोगों के उपचार के लिये भिन्न-भिन्न स्थानों में घूमना निर्दिष्ट किया है। पैरों और जङ्घाओं के अतिसूजन रोग को "हस्तिपद रोग कहते हैं, और आङ्घल भाषा में "Elephantiasis"। "अश्विनोः पादाभ्याम्” द्वारा सूर्य और चन्द्रमा की रश्मियों को सूचित किया है। "अश्विनौ सूर्याचन्द्रमसौ" (निरुक्त १२।१।१)। मन्त्र ११।३। पर्याय २, मन्त्र ३ में सूर्य और चन्द्रमा का वर्णन "अक्षीभ्याम्" द्वारा किया है। वर्तमान मन्त्र में अश्वियों के पादों का वर्णन हुआ है। संस्कृत साहित्य में सूर्य की रश्मियों को "पाद" कहा है। यथा "बालस्यापि रवेः पादाः पतन्ति शिरसि भूभृताम् (शिशुपालवध ६।३४)। पादरोग का शमन सम्भवतः सूर्य की शुभ्र रश्मियों या इस की सप्तरश्मियों में से किसी रश्मि द्वारा हो सकता है। सूर्य की शुभ्र रश्मियों को spectrum द्वारा ७ रश्मियों में विभक्त किया जा सकता है। वैदिक साहित्य में अश्वियों को "देवानां भिषजौ" द्वारा वर्णित भी किया जाता है। “अश्विनोः पादाभ्यां प्राशिषम्" का यह अभिप्राय प्रतीत होता है कि अश्वियों की रश्मियों द्वारा अन्न को पवित्र कर के, Disinfect कर के मैंने इसका प्राशन किया है। यथा- "उत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः” (यजु० १ ।३१)। सूर्य की रश्मियों को इस मन्त्रपाद में "अच्छिद्र पवित्र" कहा है। अभिप्राय अस्पष्ट है। सम्भवतः बहुचारी का अभिप्राय यह हो कि तेरी टांगों तथा पैरों में अस्थिरता तथा लड़खड़ाना रोग हो जायगा, जिसका कि उपचार "अश्विनोः पादाभ्याम्" द्वारा हो सकेगा। "बहुचारी" पद में "चर" का अर्थ "गतिमात्र" अभिप्रेत होने पर पैरों की अस्थिरता तथा लड़खडाना भी गति ही है। शारीरिक रोगों का मुख्य कारण, उदर तथा खानपान में असंयम है]।

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    विषय

    ब्रह्मोदन के उपभोग का प्रकार।

    भावार्थ

    (एनम् आह) गुरु जिज्ञासु को उपदेश करता है—(याभ्यां चैतं०) जिन पैरों से पूर्व ऋषियों ने ओदन का भोग किया (ततः च एनम् अन्याभ्यां पादाभ्यां प्राशीः) यदि उनके सिवाय दूसरे पैरों से तू भोग करेगा तो (बहुचारी भविष्यसि इति) बहुचारी होगा। तुझे पैरों से बहुत चलना पड़ेगा। (तं वा० इत्यादि) पूर्ववत्। (अश्विनोः पादाभ्याम्) पूर्व ऋपियों ने अश्वियों के बने चरणों से उस ओदन का भोग किया था (ताभ्याम् एनं ०) इत्यादि पूर्ववत् (एष वा० इत्यादि) पूर्ववत्।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्तो ब्रह्मौदनो देवता। ३२, ३८, ४१ एतासां (प्र०), ३२-३९ एतासां (स०) साम्नी त्रिष्टुभः, ३२, ३५, ४२ आसां (द्वि०) ३२-४९ आसां (तृ०) ३३, ३४, ४४-४८ आसां (पं०) एकपदा आसुरी गायत्री, ३२, ४१, ४३, ४७ आसां (च०) दैवीजगती, ३८, ४४, ४६ (द्वि०) ३२, ३५-४३, ४९ आसां (पं०) आसुरी अनुष्टुभः, ३२-४९ आसां (पं०) साम्न्यनुष्टुभः, ३३–४९ आसां (प्र०) आर्च्य अनुष्टुभः, ३७ (प्र०) साम्नी पंक्ति:, ३३, ३६, ४०, ४७, ४८ आसां (द्वि०) आसुरीजगती, ३४, ३७, ४१, ४३, ४५ आसां (द्वि०) आसुरी पंक्तयः, ३४ (च०) आसुरी त्रिष्टुप् ४५, ४६, ४८ आसां (च०) याजुष्योगायत्र्यः, ३६, ४०, ३७ आसां (च०) दैवीपंक्तयः, ३८, ३९ एतयोः (च०) प्राजापत्यागायत्र्यौ, ३९ (द्वि०) आसुरी उष्णिक्, ४२, ४५, ४९ आसां (च०) दैवी त्रिष्टुभः, ४९ (द्वि०) एकापदा भुरिक् साम्नीबृहती। अष्टादशर्चं द्वितीय पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Odana

    Meaning

    For that reason, if you eat of that Odana with any other feet for firmness than those with which the ancient Rshis ate of it, then you will end up as a wanderer, so said the master to the disciple. And so I eat of that Odana neither greedily as it is closest, nor desperately as it is farthest, nor of necessity as it is within and discordant. I have received it with the movememt of the Ashvins, complementary currents of natural energy. With that I have eaten of it, with that I have obtained it. And this Odana is complete in all respects, perfect in all parts, and perfect whole in body form. And he that knows this and thus receives grows complete in all limbs, perfect in all parts, and perfect whole in body form.

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    Translation

    If thou hast eaten it with other feet than those with which the ancient seers ate this, thou wilt be much-wandering: thus one says to him; it verily (have) I not (eaten) coming hither, nor retiring, nor coming on; with the feet of the two Asvins, therewith have I etc. etc.

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    Translation

    Wise man etc....with different feet....you will become a wanderer...with the feet of Ashvina, the Prana and Apana...

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    Translation

    The preceptor should say to the seeker after truth, 'If thou wilt try to realize God with feet other than those of the ancient sages, thou wilt become a wanderer.' Verily have I now realized God, Who exists after the dissolution of the universe, is far from the ignorant, and near the learned. Like the ancient sages with the feet of father and mother, have I realized God and acquired Him. Verily this God is Resourceful, Nourishing and Serviceable. He who thus knows God becomes resourceful, nourishing, and serviceable.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४६−(ततः) ताभ्यां पादाभ्याम् (पादाभ्याम्) (बहुचारी) बहु+चर गतौ-णिनि। बहुभ्रमणशीलः (भविष्यसि) (अश्विनोः) अ० २।२९।६। अशू व्याप्तौ-क्वन्, इनि। कार्येषु अश्वो व्याप्तिर्ययोस्तयोः। जननी जनकयोः। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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