Loading...
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 36
    ऋषिः - अथर्वा देवता - मन्त्रोक्ताः छन्दः - सूक्तम् - ओदन सूक्त
    0

    तत॑श्चैनम॒न्यया॑ जि॒ह्वया॒ प्राशी॒र्यया॑ चै॒तं पूर्व॒ ऋष॑यः॒ प्राश्न॑न्। जि॒ह्वा ते॑ मरिष्य॒तीत्ये॑नमाह। तं वा अ॒हं ना॒र्वाञ्चं॒ न परा॑ञ्चं॒ न प्र॒त्यञ्च॑म्। अ॒ग्नेर्जि॒ह्वया॑। तयै॑नं॒ प्राशि॑षं॒ तयै॑नमजीगमम्। ए॒ष वा ओ॑द॒नः सर्वा॑ङ्गः॒ सर्व॑परुः॒ सर्व॑तनूः। सर्वा॑ङ्ग ए॒व सर्व॑परुः॒ सर्व॑तनूः॒ सं भ॑वति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत॑: । च॒ ।ए॒न॒म् । अ॒न्यया॑ । जि॒ह्वया॑ । प्र॒ऽआशी॑: । यया॑ । च॒ । ए॒तम् । पूर्वे॑ । ऋष॑य: । प्र॒ऽआश्न॑न् ॥ जि॒ह्वा । ते॒ । म॒रि॒ष्य॒ति॒ । इति॑ । ए॒न॒म् । आ॒ह॒ ॥ तम् । वै । अ॒हम् । न । अ॒र्वाञ्च॑म् । न । परा॑ञ्चम् । न । प्र॒त्यञ्च॑म् ॥ अ॒ग्ने: । जि॒ह्वया॑ ॥ तया॑ । ए॒न॒म् । प्र । आ॒शि॒ष॒म् । तया॑ । ए॒न॒म् । अ॒जी॒ग॒म॒म् ॥ ए॒ष: । वै । ओ॒द॒न: । सर्व॑ऽअङ्ग: । सर्व॑ऽपरु: । सर्व॑ऽतनू: ॥ सर्व॑ऽअङ्ग: । ए॒व । सर्व॑ऽपरु: । सर्व॑ऽतनू: । सम् । भ॒व॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥४.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ततश्चैनमन्यया जिह्वया प्राशीर्यया चैतं पूर्व ऋषयः प्राश्नन्। जिह्वा ते मरिष्यतीत्येनमाह। तं वा अहं नार्वाञ्चं न पराञ्चं न प्रत्यञ्चम्। अग्नेर्जिह्वया। तयैनं प्राशिषं तयैनमजीगमम्। एष वा ओदनः सर्वाङ्गः सर्वपरुः सर्वतनूः। सर्वाङ्ग एव सर्वपरुः सर्वतनूः सं भवति य एवं वेद ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत: । च ।एनम् । अन्यया । जिह्वया । प्रऽआशी: । यया । च । एतम् । पूर्वे । ऋषय: । प्रऽआश्नन् ॥ जिह्वा । ते । मरिष्यति । इति । एनम् । आह ॥ तम् । वै । अहम् । न । अर्वाञ्चम् । न । पराञ्चम् । न । प्रत्यञ्चम् ॥ अग्ने: । जिह्वया ॥ तया । एनम् । प्र । आशिषम् । तया । एनम् । अजीगमम् ॥ एष: । वै । ओदन: । सर्वऽअङ्ग: । सर्वऽपरु: । सर्वऽतनू: ॥ सर्वऽअङ्ग: । एव । सर्वऽपरु: । सर्वऽतनू: । सम् । भवति । य: । एवम् । वेद ॥४.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 3; मन्त्र » 36
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मविद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे जिज्ञासु !] (च) यदि (एनम्) इस [ओदन नाम परमेश्वर] को (ततः) उस [जीभ] से (अन्यया) भिन्न (जिह्वया) जीभ से (प्राशीः) तूने खाया [अनुभव किया] है, (यया) जिस [जीभ] से (च) ही (एतम्) इस [परमेश्वर] को (पूर्वे) पहिले (ऋषयः) ऋषियों [वेदार्थ जाननेवालों] ने (प्राश्नन्) खाया [अनुभव किया] था। (ते) तेरी (जिह्वा) जीभ (मरिष्यति) मर जावेगी [असमर्थ हो जावोगी]−(इति) ऐसा (एनम्) इस [जिज्ञासु] से (आह) वह [आचार्य] कहे ॥[जिज्ञासु का उत्तर]−(अहम्) मैंने (वै) निश्चय करके (न) अब (तम्) उस (अर्वाञ्चम्) पीछे वर्तमान रहनेवाले, (न) अब (पराञ्चम्) दूर वर्तमान और (न) अब (प्रत्यञ्चम्) प्रत्यक्ष वर्तमान [परमेश्वर] को [खाया अर्थात् अनुभव किया है]। (अग्नेः) अग्नि की [अग्नि समान लहराती हुई] (तया) उस (जिह्वया) जीभ से (एनम्) इस [परमेश्वर] को (प्र आशिषम्) मैंने खाया [अनुभव किया] है, (तया) उस [जीभ] से (एनम्) इसको (अजीगमम्) मैंने पाया है ॥(एषः वै) यही.... म० ३२ ॥३६॥

    भावार्थ

    मन्त्र ३२ के समान ॥३६॥

    टिप्पणी

    ३६−(ततः) तस्या जिह्वायाः सकाशात् (जिह्वया) रसनया (जिह्वा) रसना (ते) तव (मरिष्यति) मृङ् प्राणत्यागे। प्राणांस्त्यक्ष्यति। असमर्था भविष्यति (अग्नेः) पावकस्य। पावकवच् चञ्चलशिखया (जिह्वया), अन्यत् पूर्ववत् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अग्नेः जिह्वया

    पदार्थ

    १. (तत: च) = और तब (यया च जिया) = जिस जिह्वा से, दृष्टिकोण से (पूर्वे ऋषयः प्राश्नन्) = पालन व पुरण करनेवाले तत्त्वद्रष्टा ज्ञानियों ने इस भोजन को खाया, (अन्यया) = उससे भिन्न जिह्वा से, अर्थात् भिन्न दृष्टिकोण (एनं प्राशी:) = इस ओदन को खाएगा, तो वह ब्रह्मज्ञ (एनं आह) = इससे कहता है कि (ते जिह्व मरिष्यति) = तेरी जिह्वा नष्ट हो जाएगी। (अहम्) = मैं तो (वै) = निश्चय से (तम्) = उस ब्रह्मज्ञान को (न अर्वाञ्चम्) = न केवल नीचे-पृथिवी के ही पदार्थों का ज्ञान देनेवाला, (न पराञ्चम्) = न दूरस्थ धुलोक के पदार्थों का ज्ञान देनेवाला और (न प्रत्यञ्चम्) = न सम्मुखस्थ अन्तरिक्ष के ही पदार्थों का ज्ञान देनेवाला मानता हूँ। मैं तो (तया अने: जिह्वया) = उस अग्नि की जिला से (एनं प्राशिषम्) = इस ब्रह्मौदन को खाता हूँ (तया) = उसी से (एनम् अजीगमम्) = इसे प्राप्त हुआ हूँ। २. (एषः वा ओदन:०) = [शेष पूर्ववत्]

    भावार्थ

    ब्रह्मौदन के विराट् शरीर की जिहा पर 'अग्नि' है। मैं अग्निदेव के गुणों को समझता हुआ इस अग्निदेव में भी उस ब्रह्म का तेज देखता हूँ। वेद अग्नि का ज्ञान देता हुआ इस ब्रह्म का ही ज्ञान देता है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (पूर्व ऋषयः) पूर्वकाल के या सद्गुणों से पूरित ऋषियों ने (यया जिह्वया) जिस जिह्वा से (एतम्) इस ओदन का (प्राश्नन्) प्राशन किया है, (ततः) उससे (च = चेत्) यदि (अन्यया जिह्वया) भिन्न प्रकार की जिह्वा से (एनम्) इस ओदन का (प्राशी) तूने प्राशन किया है, तो (ते जिह्वा) तेरी जिह्वा (मरिष्यति) प्राणविहीन हो जायेगी, विकृत हो जायेगी, (इति) यह (एनम्) इस प्राशन कर्त्ता को विज्ञ (आह) कहे। (तं वा अहं नार्वाञ्चं न पराञ्चं न प्रत्यञ्चम्) पूर्ववत् मन्त्र ३५। (तया अग्नेः जिह्वया) उस अग्नि की जिह्वा से (एनम्) इस ओदन का (प्राशिषम्) मैंने प्राशन किया है, (तया) उस जिह्वा से (एनम्) इस ओदन को (अजीगमम्) मैंने उदरादि में पहुंचाया है। (स वा ओदनः......वेद) अर्थ पूर्ववत् मन्त्र ३५।

    टिप्पणी

    [ओदन का प्राशन करने वाला कहता है कि मैंने निज जिह्वा द्वारा ओदन का प्राशन नहीं किया अपितु अग्नि१ की जिह्वा से ओदन का प्राशन किया है। मनुषी-जिह्वा तो चटपटी, राजसिक, तामसिक, तथा अवैध मांस आदि का भी प्राशन चाहती है, परन्तु अग्निदेव की जिह्वा तो सात्त्विक प्राशन करती है। इस लिये सात्त्विक अन्न के प्राशन से मेरी जिह्वा प्राणवती है, अविकृत रूपा है। अग्निदेव के प्रति मांसाहूति वेदविरुद्ध है]। [१. तथा अग्निहोत्र पूर्वक ओदन का प्राशन मैंने किया है या यज्ञशिष्टान्न का मैंने प्राशन किया है। यथा "यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः” (गीता)।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ब्रह्मोदन के उपभोग का प्रकार।

    भावार्थ

    (एनम् आह। एतं यया पूर्वे ऋषयः प्राश्नन्। ततः अन्यया एनं जिह्वया प्राशीः जिह्वा ते मरिष्यति इति एनम् आह) गुरु विद्वान् जिज्ञासु को उपदेश करे कि जिस जिह्वा से इस ओदन को पूर्व काल के ऋषियों ने भोग किया उसके अतिरिक्त जिह्वा से यदि तू भोग करेगा तो तेरी जिह्वा मरेगी। (तं वा०) इत्यादि पूर्ववत्। (अग्नेर्जिह्वया। तया एनं प्राशिषम् तया एनम् अजीगमम्) अग्नि की जिह्वा से इस ओदन का भोग करूं उससे ही इस ओदन को अन्यों को प्राप्त कराऊं। (एषः वा इत्यादि) पूर्ववत्।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्तो ब्रह्मौदनो देवता। ३२, ३८, ४१ एतासां (प्र०), ३२-३९ एतासां (स०) साम्नी त्रिष्टुभः, ३२, ३५, ४२ आसां (द्वि०) ३२-४९ आसां (तृ०) ३३, ३४, ४४-४८ आसां (पं०) एकपदा आसुरी गायत्री, ३२, ४१, ४३, ४७ आसां (च०) दैवीजगती, ३८, ४४, ४६ (द्वि०) ३२, ३५-४३, ४९ आसां (पं०) आसुरी अनुष्टुभः, ३२-४९ आसां (पं०) साम्न्यनुष्टुभः, ३३–४९ आसां (प्र०) आर्च्य अनुष्टुभः, ३७ (प्र०) साम्नी पंक्ति:, ३३, ३६, ४०, ४७, ४८ आसां (द्वि०) आसुरीजगती, ३४, ३७, ४१, ४३, ४५ आसां (द्वि०) आसुरी पंक्तयः, ३४ (च०) आसुरी त्रिष्टुप् ४५, ४६, ४८ आसां (च०) याजुष्योगायत्र्यः, ३६, ४०, ३७ आसां (च०) दैवीपंक्तयः, ३८, ३९ एतयोः (च०) प्राजापत्यागायत्र्यौ, ३९ (द्वि०) आसुरी उष्णिक्, ४२, ४५, ४९ आसां (च०) दैवी त्रिष्टुभः, ४९ (द्वि०) एकापदा भुरिक् साम्नीबृहती। अष्टादशर्चं द्वितीय पर्यायसूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Odana

    Meaning

    For that reason, if you taste of this Odana by any other palatentham that by which the ancient Rshis tasted and internalised it, your taste will go down lifeless, thus spoke the master to the disciple. And so I taste of this Odana neither greedily as it is closest, nor desperately as it is farthest, nor of necessity as it is within and discordant. I receive it from the flame of fire. By that tongue of fire I taste it and by that I obtain it. And this Odana is complete in all aspects, perfect in all parts, and perfect whole in body form. He that knows this and thus receives it becomes complete in all limbs, perfect in all parts, and perfect whole in body, mind and soul.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    If thou hast eaten it with another tongue than that with which the ancient seers ate this, thy tongue will die: thus one says to him; it verily (have) I not (eaten) coming hither, nor retiring, nor coming on; with Agni’s tongue, therewith have I etc. etc.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Wise mill etc............with different tongue…….your tongue will die. Replies he etc.........with the tongue of Agni (the fire)............

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    The preceptor should say to the seeker after truth, 'If thou wilt try to realize God with teeth different from those of the ancient sages, thy teeth will fall out.' Verily have I now realized God, Who exists after the dissolution of the universe, is far from the ignorant and near the learned. Like the ancient sages, with teeth united together like the seasons, have I realized God and acquired Him. Verily this God is Resourceful, Nourishing and Serviceable. He who thus knows God becomes resourceful, nourishing, and serviceable.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३६−(ततः) तस्या जिह्वायाः सकाशात् (जिह्वया) रसनया (जिह्वा) रसना (ते) तव (मरिष्यति) मृङ् प्राणत्यागे। प्राणांस्त्यक्ष्यति। असमर्था भविष्यति (अग्नेः) पावकस्य। पावकवच् चञ्चलशिखया (जिह्वया), अन्यत् पूर्ववत् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top