अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 42
तत॑श्चैनम॒न्येनो॒दरे॑ण॒ प्राशी॒र्येन॑ चै॒तं पूर्व॒ ऋष॑यः॒ प्राश्न॑न्। उ॑दरदा॒रस्त्वा॑ हनिष्य॒तीत्ये॑नमाह। तं वा अ॒हं ना॒र्वाञ्चं॒ न परा॑ञ्चं॒ न प्र॒त्यञ्च॑म्। स॒त्येनो॒दरे॑ण। तेनै॑नं॒ प्राशि॑षं॒ तेनै॑नमजीगमम्। ए॒ष वा ओ॑द॒नः सर्वा॑ङ्गः॒ सर्व॑परुः॒ सर्व॑तनूः। सर्वा॑ङ्ग ए॒व सर्व॑परुः॒ सर्व॑तनूः॒ सं भ॑वति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतत॑: । च॒ । ए॒न॒म् । अ॒न्येन॑ । उ॒दरे॑ण । प्र॒ऽआशी॑: । येन॑ । च॒ । ए॒तम् । पूर्वे॑ । ऋष॑य: । प्र॒ऽआश्न॑न् ॥ उ॒द॒र॒ऽदा॒र: । त्वा॒ । ह॒नि॒ष्य॒ति॒ । इति॑ । ए॒न॒म् । आ॒ह॒ ॥ तम् । वै । अ॒हम् । न । अ॒र्वाञ्च॑म् । न । परा॑ञ्चम् । न । प्र॒त्यञ्च॑म् ॥ स॒त्येन॑ । उ॒दरे॑ण ॥ तेन॑ । ए॒न॒म् । प्र । आ॒शि॒ष॒म् । तेन॑ । ए॒न॒म् । अ॒जी॒ग॒म॒म् ॥ ए॒ष: । वै । ओ॒द॒न: । सर्व॑ऽअङ्ग: । सर्व॑ऽपरु: । सर्व॑ऽतनू: ॥ सर्व॑ऽअङ्ग: । ए॒व । सर्व॑ऽपरु: । सर्व॑ऽतनू:। सम् । भ॒व॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑॥४.११॥
स्वर रहित मन्त्र
ततश्चैनमन्येनोदरेण प्राशीर्येन चैतं पूर्व ऋषयः प्राश्नन्। उदरदारस्त्वा हनिष्यतीत्येनमाह। तं वा अहं नार्वाञ्चं न पराञ्चं न प्रत्यञ्चम्। सत्येनोदरेण। तेनैनं प्राशिषं तेनैनमजीगमम्। एष वा ओदनः सर्वाङ्गः सर्वपरुः सर्वतनूः। सर्वाङ्ग एव सर्वपरुः सर्वतनूः सं भवति य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठतत: । च । एनम् । अन्येन । उदरेण । प्रऽआशी: । येन । च । एतम् । पूर्वे । ऋषय: । प्रऽआश्नन् ॥ उदरऽदार: । त्वा । हनिष्यति । इति । एनम् । आह ॥ तम् । वै । अहम् । न । अर्वाञ्चम् । न । पराञ्चम् । न । प्रत्यञ्चम् ॥ सत्येन । उदरेण ॥ तेन । एनम् । प्र । आशिषम् । तेन । एनम् । अजीगमम् ॥ एष: । वै । ओदन: । सर्वऽअङ्ग: । सर्वऽपरु: । सर्वऽतनू: ॥ सर्वऽअङ्ग: । एव । सर्वऽपरु: । सर्वऽतनू:। सम् । भवति । य: । एवम् । वेद॥४.११॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्मविद्या का उपदेश।
पदार्थ
[हे जिज्ञासु !] (च) यदि (एनम्) इस [ओदन नाम परमेश्वर] को (ततः) उस [पीठ से] (अन्येन) भिन्न (उदरेण) पेट से (प्राशीः) तूने खाया [अनुभव किया] है, (येन) जिस [पेट] से (च) ही (एनम्) इस [परमेश्वर] को (पूर्वे) पहिले (ऋषयः) ऋषियों [वेदार्थ जाननेवालों] ने (प्राश्नन्) खाया [अनुभव किया] था। (तब) (उदरदारः) उदररोग [अतीसार आदि] (त्वा) तुझे (हनिष्यति) मारेगा−(इति) ऐसा (एनम्) इस [जिज्ञासु] से (आह) वह [आचार्य] कहे ॥[जिज्ञासु का उत्तर]−(अहम्) मैंने (वै) निश्चय करके (न) अब (तम्) उस (अर्वाञ्चम्) पीछे वर्तमान रहनेवाले, (न) अब (पराञ्चम्) दूर वर्तमान और (न) अब (प्रत्यञ्चम्) प्रत्यक्ष वर्तमान [परमेश्वर] को [खाया अर्थात् अनुभव किया है]। (सत्येन) सत्य [यथार्थ कथनरूप] (तेन) उस (उदरेण) पेट से (एनम्) इस [परमेश्वर] को (प्र आशिषम्) मैंने खाया [अनुभव किया] है, (तेन) उससे (एनम्) इसको (अजीगमम्) मैंने पाया है ॥(एषः वै) यही.... म० ३२ ॥४२॥
भावार्थ
मन्त्र ३२ के समान ॥४२॥
टिप्पणी
४२−(ततः) तस्मादुदरात् (उदरेण) उद्+ऋ गतौ-अप्। जठरेण (उदरदारः) उदर+दॄ विदारणे-णिच्, अच्। उदरविदारकः। अतीसारादिरोगः (हनिष्यति) मारयिष्यति (सत्येन) यथार्थकथनरूपेण। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
सत्येन उदरेण
पदार्थ
१. (ततः च) ृ और तब येन (च उदरेण) = जिस उदर से निश्चयपूर्वक (पूर्वे ऋषयः) = पालक तत्त्वद्रष्टाओं ने (एतं प्राश्नन्) = इस ब्रह्मौदन का सेवन किया, यदि तू (अन्येन) = उससे भिन्न उदर से (एनं प्राशी:) = इसे खाता है, तो (एनम् आह) = वह तत्वद्रष्टा इससे कहता है कि (उदरदारः त्वा हनिष्यति इति) = [उदरस्य दरणम्] अतिसार-रोग तुझे नष्ट कर डालेगा। (तं वा अहम्) = मैं तो निश्चय से उस ब्रह्मौदन को (न अर्वाञ्चं न पराञ्चं न प्रत्यञ्चम्) = न केवल इस पृथिवी का, न सुदूर झुलोक का और न ही सम्मुखस्थ अन्तरिक्षलोक के पदार्थों का ज्ञान देनेवाला मानता हूँ। मैंने तो (तेन सत्येन उदरेण) = सत्य के उदर से ही (एनं प्राशिषम्) = इस ब्रह्मौदन को खाया है, (तेन एनम् अजीगमम्) = उस सत्य के उदर से ही इसे प्राप्त किया है। इस वेदज्ञान से मैंने यह सीखा है कि भोजन में पूर्ण सत्य का पालन करना आवश्यक है। वही भोजन करना ठीक है जोकि उदर के द्वारा सुपच हो। यही भोजन हमें अतिसार आदि रोगों से बचाएगा। २. (एष: वा ओदनः०) = [शेष पूर्ववत्]
भावार्थ
हम वेदज्ञान प्रास करें और 'अग्रे तौलस्य प्राशान', इस वेदादेश के अनुसार भोजन में पूर्ण सत्य नियमों का पालन करें 'हिताशी, मिताशी व कालभोजी' बनें। ऐसा होने पर ही हम अतिसार आदि रोगों से पीडित न होंगे।
भाषार्थ
(पूर्वे ऋषयः) पूर्व काल के या सद्गुणों से पूरित ऋषियों ने (येन उदरेण) जिस उदर से (एतम्) इस ओदन का (प्राश्नन्) प्राशन किया है, (ततः) उस से (अन्येन उदरेण) भिन्न प्रकार के उदर से (च=चेत्) यदि (एनम्) इस ओदन का (प्राशीः) तूने प्राशन किया है, तो (उदरदारः) पेट का फटना अर्थात् उदर-शूल या उदर-व्यथा (त्वा) तुझे (हनिष्यति) मार डालेगी या तुझे प्राप्त होगी - (इति) यह (एनम्) इस प्राशनकर्त्ता को विज्ञ (आह) कहे। (तं वा अहं नार्वाञ्चं न पराञ्चं न प्रत्यञ्चम्) अर्थ पूर्ववत् मन्त्र ३५। (तेन सत्येन उदरेण) उस सत्यात्मक उदर से (एनम्) इस ओदन का (प्राशिषम्) मैंने प्राशन किया है, (तेन) उस द्वारा (एनम्) इस ओदन को (अजीगमम्) मैंने अन्य अङ्गों में पहुंचाया है (एष वा ओदन….. वेद) अर्थ पूर्ववत् मन्त्र ३५।
टिप्पणी
[सत्येन उदरेण= "सत्यात्मक उदर" का अभिप्राय अनुसंधेय है। आयुर्वेद खान-पान के जिन तथ्यों का कथन करता है तदनुसार भोजन करना चाहिये, अन्यथा प्रकार से उदरदार हो जायगा, -सम्भवतः "उदरेण सत्येन" का यह अभिप्राय हो। वे तथ्य हैं, बिना भूख के न खाना, मित, पथ्य तथा ऋत्वनुकूल भोजन करना आदि। सायणाचार्य ने "उदरदारः". का अर्थ "अतिसार" किया है। सत्य का अर्थ "उदक१" भी होता है। कब्ज उदरदार अर्थात् उदर व्यथा को उत्पन्न करती है। सत्यम् उदकनाम (निघं १।१२)। उदक के उचित मात्रा में सेवन करने से आन्तों की खुश्की दूर हो कर, शौचक्रिया के हो जाने से, उदर व्यथा नहीं होने पाती, -यह डाक्टरी सिद्धान्त है। यथा “The person who does not drink six to eight glasses of fluid daily may soon have trouble with his internal organs, He may suffer from constipation and other digestive complaints. Stones may form in his kidneys and bladder etc. (Your guide to health). अथर्व० ४।१६।६,७ में अनृतभाषण का सम्बन्ध उदर के संस्राव के साथ दर्शाया है। यथा "मा ते मोच्यनृतवाङ्२' नृचक्षः। आस्तां जाल्म उदरं श्रंशयित्वा कोष्ठ इवाबन्धः परिकृत्यमानः"]। [१. अभिप्राय यह है कि भोजन के साथ-साथ तथा तत्पश्चात् उदक का पान भी उचित मात्रा में होना चाहिये। २. इस मन्त्र में "अनृत-भाषण" को उदर-संस्राव का हेतु दर्शाया है। उदर-संस्राव=उदरदार (उदर + दृ विदारणे)। संश्रयित्वा = संस्रयित्वा।]
विषय
ब्रह्मोदन के उपभोग का प्रकार।
भावार्थ
(एनम् आह) गुरु जिज्ञासु को उपदेश करता है कि (येन चैतं०) जिस उदर भाग से ऋषियों ने इस ओदन का भोग किया है। (ततः च एनम् अन्येन उदरेण प्राशीः) यदि तू उसके सिवाय दूसरे उदर भाग से भोग करेगा तो (उदरदारः त्वा हनिष्यति इति) उदरदार = अतिसार नामक रोग तुझे मार देगा। (तं वा० इत्यादि) पूर्ववत्। ऋषियों ने (सत्येन उदरेण) सत्य रूप उदर से इसका भोग किया था। (तेन एनं प्रा० इत्यादि) पूर्ववत्।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्तो ब्रह्मौदनो देवता। ३२, ३८, ४१ एतासां (प्र०), ३२-३९ एतासां (स०) साम्नी त्रिष्टुभः, ३२, ३५, ४२ आसां (द्वि०) ३२-४९ आसां (तृ०) ३३, ३४, ४४-४८ आसां (पं०) एकपदा आसुरी गायत्री, ३२, ४१, ४३, ४७ आसां (च०) दैवीजगती, ३८, ४४, ४६ (द्वि०) ३२, ३५-४३, ४९ आसां (पं०) आसुरी अनुष्टुभः, ३२-४९ आसां (पं०) साम्न्यनुष्टुभः, ३३–४९ आसां (प्र०) आर्च्य अनुष्टुभः, ३७ (प्र०) साम्नी पंक्ति:, ३३, ३६, ४०, ४७, ४८ आसां (द्वि०) आसुरीजगती, ३४, ३७, ४१, ४३, ४५ आसां (द्वि०) आसुरी पंक्तयः, ३४ (च०) आसुरी त्रिष्टुप् ४५, ४६, ४८ आसां (च०) याजुष्योगायत्र्यः, ३६, ४०, ३७ आसां (च०) दैवीपंक्तयः, ३८, ३९ एतयोः (च०) प्राजापत्यागायत्र्यौ, ३९ (द्वि०) आसुरी उष्णिक्, ४२, ४५, ४९ आसां (च०) दैवी त्रिष्टुभः, ४९ (द्वि०) एकापदा भुरिक् साम्नीबृहती। अष्टादशर्चं द्वितीय पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Odana
Meaning
For that reason, if you taste of that Odana with any other stomach and hunger than that with which the ancient Rshis tasted it, then abdominal pain of insatiety will destroy you, thus spake the master to the disciple. And so I taste of that Odana neither greedily as it is closest, nor desperately as it is farthest, nor of necessity as it is within and discordant. I have received it with that sagely hunger for truth. With that I have eaten of it, with that I have obtained it. And this Odana is complete in all respects, perfect in all parts, and perfect whole in body form. He that knows this and thus receives grows complete in all respects, perfect in all parts, and perfect whole in body form.
Translation
If thou hast eaten it with another belly than that with which the ancient seers ate:this, the colic (? Udaradara)will slay thee: thus one says to him; it verily (have) I not (eaten) coming hither, nor retiring, nor coming on; with truth as belly, therewith have I etc. etc.
Translation
Wise man etc…..with different belly...colic will destroy you......with belly known as truth......
Translation
The preceptor should say to the seeker after truth, 'If thou wilt try to realize God with abdomen other than that of the ancient sages, thou wilt die in the water, Verily have I now realized God, Who exists after the dissolution of the universe, is far from the ignorant and near the learned. Like the ancient sages, with the sea as abdomen, have I realized God and acquired Him. Verily this God is Resourceful, Nourishing and Serviceable. He who thus knows God becomes resourceful, nourishing, and serviceable.
Footnote
Connection between the sea and abdomen is not clear.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४२−(ततः) तस्मादुदरात् (उदरेण) उद्+ऋ गतौ-अप्। जठरेण (उदरदारः) उदर+दॄ विदारणे-णिच्, अच्। उदरविदारकः। अतीसारादिरोगः (हनिष्यति) मारयिष्यति (सत्येन) यथार्थकथनरूपेण। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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