अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 39
तत॑श्चैनम॒न्येन॒ व्यच॑सा॒ प्राशी॒र्येन॑ चै॒तं पूर्व॒ ऋष॑यः॒ प्राश्न॑न्। रा॑जय॒क्ष्मस्त्वा॑ हनिष्य॒तीत्ये॑नमाह। तं वा अ॒हं ना॒र्वाञ्चं॒ न परा॑ञ्चं॒ न प्र॒त्यञ्च॑म्। अ॒न्तरि॑क्षेण॒ व्यच॑सा। तेनै॑नं॒ प्राशि॑षं॒ तेनै॑नमजीगमम्। ए॒ष वा ओ॑द॒नः सर्वा॑ङ्गः॒ सर्व॑परुः॒ सर्व॑तनूः। सर्वा॑ङ्ग ए॒व सर्व॑परुः॒ सर्व॑तनूः॒ सं भ॑वति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतत॑: । च॒ । ए॒न॒म् । अ॒न्येन॑ । व्यच॑सा । प्र॒ऽआशी॑: । येन॑ । च॒ । ए॒तम् । पूर्वे॑ । ऋष॑य: । प्र॒ऽआश्न॑न् ॥ रा॒ज॒ऽयक्ष्म॒: । त्वा॒ । ह॒नि॒ष्य॒ति॒ । इति॑ । ए॒न॒म् । आ॒ह॒ ॥ तम् । वै । अ॒हम् । न । अ॒र्वाञ्च॑म् । न । परा॑ञ्चम् । न । प्र॒त्यञ्च॑म् ॥ अ॒न्तरि॑क्षेण । व्यच॑सा ॥ तेन॑ । ए॒न॒म् । प्र । आ॒शि॒ष॒म् । तेन॑ । ए॒न॒म् । अ॒जी॒ग॒म॒म् ॥ ए॒ष: । वै । ओ॒द॒न: । सर्व॑ऽअङ्ग: । सर्व॑ऽपरु: । सर्व॑ऽतनू: ॥ सर्व॑ऽअङ्ग: । ए॒व । सर्व॑ऽपरु: । सर्व॑ऽतनू: । सम् । भ॒व॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥४.८॥
स्वर रहित मन्त्र
ततश्चैनमन्येन व्यचसा प्राशीर्येन चैतं पूर्व ऋषयः प्राश्नन्। राजयक्ष्मस्त्वा हनिष्यतीत्येनमाह। तं वा अहं नार्वाञ्चं न पराञ्चं न प्रत्यञ्चम्। अन्तरिक्षेण व्यचसा। तेनैनं प्राशिषं तेनैनमजीगमम्। एष वा ओदनः सर्वाङ्गः सर्वपरुः सर्वतनूः। सर्वाङ्ग एव सर्वपरुः सर्वतनूः सं भवति य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठतत: । च । एनम् । अन्येन । व्यचसा । प्रऽआशी: । येन । च । एतम् । पूर्वे । ऋषय: । प्रऽआश्नन् ॥ राजऽयक्ष्म: । त्वा । हनिष्यति । इति । एनम् । आह ॥ तम् । वै । अहम् । न । अर्वाञ्चम् । न । पराञ्चम् । न । प्रत्यञ्चम् ॥ अन्तरिक्षेण । व्यचसा ॥ तेन । एनम् । प्र । आशिषम् । तेन । एनम् । अजीगमम् ॥ एष: । वै । ओदन: । सर्वऽअङ्ग: । सर्वऽपरु: । सर्वऽतनू: ॥ सर्वऽअङ्ग: । एव । सर्वऽपरु: । सर्वऽतनू: । सम् । भवति । य: । एवम् । वेद ॥४.८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्मविद्या का उपदेश।
पदार्थ
[हे जिज्ञासु !] (च) यदि (एनम्) इस [ओदन नाम परमेश्वर] को (ततः) उस [व्यापकपन] से (अन्येन) भिन्न (व्यचसा) व्यापकपन से (प्राशीः) तूने खाया [अनुभव किया] है, (येन) जिससे (च) ही (एतम्) इस [परमेश्वर] को (पूर्वे) पहिले (ऋषयः) ऋषियों [वेदार्थ जाननेवालों] ने (प्राश्नन्) खाया [अनुभव किया] था। [तब] (राजयक्ष्मः) राजरोग [व्यापक क्षयरोग] (त्वा) तुझे (हनिष्यति) मारेगा−(इति) ऐसा (एनम्) इस [जिज्ञासु] से (आह) वह [आचार्य] कहे ॥[जिज्ञासु का उत्तर]−(अहम्) मैंने (वै) निश्चय करके (न) अब (तम्) उस (अर्वाञ्चम्) पीछे वर्तमान रहनेवाले, (न) अब (पराञ्चम्) दूर वर्तमान और (न) अब (प्रत्यञ्चम्) प्रत्यक्ष वर्तमान [परमेश्वर] को [खाया अर्थात् अनुभव किया है]। (अन्तरिक्षेण) आकाशरूप (तेन) उस (व्यचसा) व्यापकपन से (एनम्) इस [परमेश्वर] को (प्र आशिषम्) मैंने खाया [अनुभव किया] है, (तेन) उससे (एनम्) इसको (अजीगमम्) मैंने पाया है ॥(एषः वै) यही.... म० ३२ ॥३९॥
भावार्थ
मन्त्र ३२ के समान ॥३९॥
टिप्पणी
३९−(ततः) तस्माद् व्यचसः (व्यचसा) अ० ४।१९।६। सम्बन्धेन व्यापकत्वेन (राजयक्ष्मः) अ० ३।११।१। यक्ष्माणां राजा। क्षयरोगः (हनिष्यति) मारयिष्यति (अन्तरिक्षेण) आकाशरूपेण। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
अन्तरिक्षेण व्यचसा
पदार्थ
१. (तत: च) = और तब (येन च व्यचसा) = जिस विस्तार [Expance, vastness] के हेतु से निश्चयपूर्वक (एतम्) = इस ब्रह्मौदन को (पूर्वे ऋषयः) = पालन व पूरण करनेवाले तत्वद्रष्टाओं ने (प्राश्नन्) = खाया, (अन्येन) = उससे भिन्न विस्तार के दृष्टिकोण से (पनं प्राशी:) = इसे तू खाता है, तो वह ज्ञानी (एनम् आह) = इससे कहता है कि (राजयक्ष्मः त्वा हनिष्यति इति) = राजयक्ष्मा तुझे नष्ट कर डालेगा। (अहम्) = मैंने तो (तं वै) = उस ब्रह्मौदन को निश्चय से (न अर्वाञ्चं न पराञ्चं न प्रत्यञ्चम्) = न केवल यहाँ-नीचे पृथिवी के पदार्थों का ज्ञान देनेवाला, न सुदूर धुलोक के पदार्थों का ज्ञान देनेवाला और न ही केवल सम्मुखस्थ अन्तरिक्ष के पदार्थों का ज्ञान देनेवाला जाना है। मैंने (एनम्) = इसे (तेन अन्तरिक्षेण व्यचसा) = उस हृदयान्तरिक्ष के विस्तार के हेतु से (प्राशिषम्) = खाया है. (तेन एनं अजीगमम्) = उसी के हेतु से प्राप्त किया है। २. (एषः वा ओदनः०) = [शेष पूर्ववत्]
भावार्थ
हम वेदज्ञान को हृदयान्तरिक्ष के विस्तार के हेतु से प्राप्त करें। यदि हमारा उद्देश्य केवल ऐश्वर्य व विलास के विस्तार का बना, तो हम ऐश्वर्य-विस्तार के साथ विलास-पंक में डूबकर राजयक्ष्मा आदि रोगों के शिकार हो जाएंगे।
भाषार्थ
(पूर्वे ऋषयः) पूर्वकाल के या सद्गुणों से पूरित ऋषियों ने (येन व्यचसा) जिस विस्तार द्वारा (एनम्) इस ओदन का (प्राश्नन्) प्राशन किया है, (ततः) उस से (च = चेत) यदि (अन्येन) अन्य प्रकार के (व्यचसा) विस्तार द्वारा (एनम्) इस ओदन का (प्राशीः) तू ने प्राशन किया है, तो (राजयक्ष्मः) यक्ष्मों का राजा तपेदिक [T. B; थाइसिस ] (त्वा हनिष्यति) तेरी हत्या करेगा, (इति) यह (एनम्) इस प्राशनकर्ता को विज्ञ (आह) कहे। (तं वा अहं नार्वाञ्चं न पराञ्चं न प्रत्यञ्चम्) अर्थ पूर्ववत् मन्त्र ३५। (तेन अन्तरिक्षेण व्यचसा) उस अन्तरिक्षरूपी विस्तार द्वारा (एनम्) इस ओदन का (प्राशिषम्) मैंने प्राशन किया है, (तेन) उस द्वारा (एनम्) इस ओदन को (अजीगमम्) मैंने अन्य अङ्गों में पहुंचाया है। (एष वा ओदन••••• वेद) अर्थ पूर्ववत् मन्त्र ३५।
टिप्पणी
[अन्तरिक्षेण व्यचसा=अन्तरिक्ष में वायु और मेघ होते हैं। इस दृष्टि से वक्षोगत फेंफड़े तथा हृदय "अन्तरिक्ष व्यचस्" द्वारा अभिप्रेत प्रतीत होते हैं। राजयक्ष्म रोग भी बक्षोगत रोग है, फेफड़ों का रोग है। अन्तरिक्ष के सम्बन्ध में निरुक्त में कहा है कि "शरीरेष्वन्तरक्षयमिति१ वा" (२।३।१०) अर्थात् शरीरों के भीतर यह अक्षय है, क्षीण नहीं होता "अन्तः + अक्षयम्= अन्तरिक्षम्"। "अक्षय" पद श्लिष्टपद है। इस के दो अर्थ सम्भव हैं, जो स्वयं क्षीण नहीं होता, तथा जो क्षयरोग नहीं होने देता। विस्तृत तथा स्वच्छ अन्तरिक्ष में निवास तथा रहने-सहने से यक्ष्म तथा क्षय रोग नहीं होने पाता। गन्दी हवा यक्ष्म और क्षय को उत्पन्न करती है। इसीलिये मन्त्र में "अन्तरिक्षेण व्यचसा" पद द्वारा "विस्तृत अन्तरिक्ष" को राजयक्ष्म नाशक दर्शाया है]।[१. शरीर तथा शरीरावयवों के अन्तर अर्थात् अभ्यन्तर अन्तरिक्षाय शुद्ध वायु, क्षयरोग होने नहीं देती। यह शुद्ध वायु फेफड़ों में जा कर, रक्त को शुद्ध करके, समग्र शरीर तथा शरीरावयवों को स्वस्थ करती है।]
विषय
ब्रह्मोदन के उपभोग का प्रकार।
भावार्थ
(एनम् आह) गुरु जिज्ञासु को उपदेश करता है (येन च एतं पूर्व ऋषयः प्राश्नन्) जिस ‘व्यचस्’ अन्तराकाश भाग से पूर्व ऋषियों ने इस ओदन का भोग किया (ततः च एनम् अन्येन व्यचसा प्राशीः) यदि तू उससे अतिरिक्त दूसरे अन्तराकाश भाग से भोग करेगा तो (राज यक्ष्माः त्वा हनिष्यती इति) राजयक्ष्मा तुझे मार देगा। (तं वा० इत्यादि) पूर्ववत्। पूर्व ऋषियों ने अन्तरिक्ष रूप ‘व्यचस्’ अन्तराकाश से भोग किया। मैं भी (तेन एनं प्राशिषं) उससे ही भोग करता हूं दूसरों को भी (तेन एनम् अजीगमम्) उससे ही इसको प्राप्त कराता हूं। (एष वा०) इत्यादि पूर्ववत्।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्तो ब्रह्मौदनो देवता। ३२, ३८, ४१ एतासां (प्र०), ३२-३९ एतासां (स०) साम्नी त्रिष्टुभः, ३२, ३५, ४२ आसां (द्वि०) ३२-४९ आसां (तृ०) ३३, ३४, ४४-४८ आसां (पं०) एकपदा आसुरी गायत्री, ३२, ४१, ४३, ४७ आसां (च०) दैवीजगती, ३८, ४४, ४६ (द्वि०) ३२, ३५-४३, ४९ आसां (पं०) आसुरी अनुष्टुभः, ३२-४९ आसां (पं०) साम्न्यनुष्टुभः, ३३–४९ आसां (प्र०) आर्च्य अनुष्टुभः, ३७ (प्र०) साम्नी पंक्ति:, ३३, ३६, ४०, ४७, ४८ आसां (द्वि०) आसुरीजगती, ३४, ३७, ४१, ४३, ४५ आसां (द्वि०) आसुरी पंक्तयः, ३४ (च०) आसुरी त्रिष्टुप् ४५, ४६, ४८ आसां (च०) याजुष्योगायत्र्यः, ३६, ४०, ३७ आसां (च०) दैवीपंक्तयः, ३८, ३९ एतयोः (च०) प्राजापत्यागायत्र्यौ, ३९ (द्वि०) आसुरी उष्णिक्, ४२, ४५, ४९ आसां (च०) दैवी त्रिष्टुभः, ४९ (द्वि०) एकापदा भुरिक् साम्नीबृहती। अष्टादशर्चं द्वितीय पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Odana
Meaning
For that reason, if you eat of this odana with any other view of self-expansion than that which the ancient Rshis had for eating it, then cancerous suffering will destroy you, so said the master to the disciple. And so I eat of this Odana neither greedily as it is closest, nor desperately as it is farthest, nor of necessity as it is within and discordant. I take it with the vastness of the spaces in view as was the sages’ view. With that I eat it, by that I obtained it. And this Odana is complete in all respects, perfect in all parts, and perfect whole in body form. He that knows this and thus obtains it becomes complete in all respects, perfect in all parts, and perfect whole in body form.
Translation
If thou hast eaten it with another bulk (vyacas) than that with which the ancient seers ate this, the king-yaksma will slay thee: thus one says to him; it verily (have) I not (eaten) coming hither, nor retiring, nor coming on; with atmosphere as bulk, therewith have I etc. etc.
Translation
Wise man etc......With different expanse......tuberculosis will destroy you...... with the expanse known as firmament.........
Translation
The preceptor should say to the seeker after truth, 'If thou wilt try to realize God, in a manner different from that of the ancient sages, without yogic practices of Sashumna artery in the back, lightning will kill thee.' Verily have I now realized God, Who exists after the dissolution of the universe, is far from the ignorant and near the learned. Like the ancient sages, with divine yogic power of arteries in the back, have I realized God and acquired Him. Verily this God is Resourceful, Nourishing and Serviceable. He who thus knows God becomes resourceful, nourishing, and serviceable.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३९−(ततः) तस्माद् व्यचसः (व्यचसा) अ० ४।१९।६। सम्बन्धेन व्यापकत्वेन (राजयक्ष्मः) अ० ३।११।१। यक्ष्माणां राजा। क्षयरोगः (हनिष्यति) मारयिष्यति (अन्तरिक्षेण) आकाशरूपेण। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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