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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 35
    ऋषिः - अथर्वा देवता - मन्त्रोक्ताः छन्दः - सूक्तम् - ओदन सूक्त
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    तत॑श्चैनम॒न्येन॒ मुखे॑न॒ प्राशी॒र्येन॑ चै॒तं पूर्व॒ ऋष॑यः॒ प्राश्न॑न्। मु॑ख॒तस्ते॑ प्र॒जा म॑रिष्य॒तीत्ये॑नमाह। तं वा अ॒हं ना॒र्वाञ्चं॒ न परा॑ञ्चं॒ न प्र॒त्यञ्च॑म्। ब्रह्म॑णा॒ मुखे॑न। तेनै॑नं॒ प्राशि॑षं॒ तेनै॑नमजीगमम्। ए॒ष वा ओ॑द॒नः सर्वा॑ङ्गः॒ सर्व॑परुः॒ सर्व॑तनूः। सर्वा॑ङ्ग ए॒व सर्व॑परुः॒ सर्व॑तनूः॒ सं भ॑वति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत॑: । च॒ । ए॒न॒म् । अ॒न्येन॑ । मुखे॑न । प्र॒ऽआशी॑: । येन॑ । च॒ । ए॒तम् । पूर्वे॑ । ऋष॑य: । प्र॒ऽआश्न॑न् ॥ मु॒ख॒त: । ते॒ । प्र॒ऽजा । म॒रि॒ष्य॒ति॒ । इति॑ । ए॒न॒म् । आ॒ह॒ ॥ तम् । वै । अ॒हम् । न । अ॒र्वाञ्च॑म् । न । परा॑ञ्चम् । न । प्र॒त्यञ्च॑म् ॥ ब्रह्म॑णा । मुखे॑न ॥ तेन॑ । ए॒न॒म् । प्र । आ॒शि॒ष॒म् । तेन॑ । ए॒न॒म् । अ॒जी॒ग॒म॒म् ॥ ए॒ष: । वै । ओ॒द॒न: । सर्व॑ऽअङ्ग: । सर्व॑ऽपरु: । सर्व॑ऽतनू: ॥ सर्व॑ऽअङ्ग: । ए॒व । सर्व॑ऽपरु: । सर्व॑ऽतनू: । सम् । भ॒व॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥४.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ततश्चैनमन्येन मुखेन प्राशीर्येन चैतं पूर्व ऋषयः प्राश्नन्। मुखतस्ते प्रजा मरिष्यतीत्येनमाह। तं वा अहं नार्वाञ्चं न पराञ्चं न प्रत्यञ्चम्। ब्रह्मणा मुखेन। तेनैनं प्राशिषं तेनैनमजीगमम्। एष वा ओदनः सर्वाङ्गः सर्वपरुः सर्वतनूः। सर्वाङ्ग एव सर्वपरुः सर्वतनूः सं भवति य एवं वेद ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत: । च । एनम् । अन्येन । मुखेन । प्रऽआशी: । येन । च । एतम् । पूर्वे । ऋषय: । प्रऽआश्नन् ॥ मुखत: । ते । प्रऽजा । मरिष्यति । इति । एनम् । आह ॥ तम् । वै । अहम् । न । अर्वाञ्चम् । न । पराञ्चम् । न । प्रत्यञ्चम् ॥ ब्रह्मणा । मुखेन ॥ तेन । एनम् । प्र । आशिषम् । तेन । एनम् । अजीगमम् ॥ एष: । वै । ओदन: । सर्वऽअङ्ग: । सर्वऽपरु: । सर्वऽतनू: ॥ सर्वऽअङ्ग: । एव । सर्वऽपरु: । सर्वऽतनू: । सम् । भवति । य: । एवम् । वेद ॥४.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 3; मन्त्र » 35
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मविद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे जिज्ञासु !] (च) यदि (एनम्) इस [ओदन नाम परमेश्वर] को (ततः) उस [मुख] से (अन्येन) भिन्न (मुखेन) मुख से (प्राशीः) तूने खाया [अनुभव किया] है, (येन) जिस [मुख] से (च) ही (एनम्) इस [परमेश्वर] को (पूर्वे) पहिले (ऋषयः) ऋषियों [वेदार्थ जाननेवालों] ने (प्राश्नन्) खाया [अनुभव किया] था। (मुखतः) मुख के बल (ते) तेरे (प्रजा) [राज्य की] प्रजा (मरिष्यति) मरेगी−(इति) ऐसा (एनम्) इस [जिज्ञासु] से (आह) वह [आचार्य] कहे ॥[जिज्ञासु का उत्तर]−(अहम्) मैंने (वै) निश्चय करके (न) अब (तम्) उस (अर्वाञ्चम्) पीछे वर्तमान रहनेवाले, (न) अब (पराञ्चम्) दूर वर्तमान, और (न) अब (प्रत्यञ्चम्) प्रत्यक्ष वर्तमान [परमेश्वर] को [खाया अर्थात् अनुभव किया है], (तेन) उस (ब्रह्मणा) वेदरूप (मुखेन) मुख से (एनम्) इस [परमेश्वर] को (प्र आशिषम्) मैंने खाया [अनुभव किया] है, (तेन) उस [मुख] से (एनम्) इसको (अजीगमम्) मैंने पाया है ॥(एषः वै) यही.... म० ३२ ॥३५॥

    भावार्थ

    मन्त्र ३२ के समान ॥३५॥

    टिप्पणी

    ३५−(ततः) तस्माद् मुखात् (मुखेन) (मुखतः) मुखबलात् (ते) तव (प्रजा) राज्यजनता (मरिष्यति) विनङ्क्ष्यति (ब्रह्मणा) वेदरूपेण। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    ब्रह्मणा मुखेन

    पदार्थ

    १. (तत: च) = और तब (येन च मुखेन) = जिस मुख से (एतम्) = इस ब्रह्मौदन को (पूर्वे ऋषयः) = अपना पालन व पूरण करनेवाले, वासनाओं का संहार करनेवाले तत्त्वद्रष्टा ज्ञानियों ने (प्राश्नन्) = ग्रहण किया, (अन्येन) = उससे भिन्न मुख से (प्राशी:) = तू इस ओदन को खाता है, तो (एनं आह) = इसे वह तत्वद्रष्टा कहता है कि (मुखतः ते प्रजा मरिष्यति इति) = [अभिमुखप्रदेशे-सा०] तेरे सामने ही तेरी प्रजा मरेगी। (अहं वै तम्) = मैं तो निश्चय से उस ब्रह्मौदन को (न अर्वाञ्चम्) = न केवल नीचे पृथिवी आदि पदार्थों को ज्ञान देनेवाला, (न पराञ्चम्) = न ही दूरस्थ धुलोक के पदार्थों का ज्ञान देनेवाला और (न प्रत्यञ्चम्) = न सम्मुखस्थ अन्तरिक्ष के पदार्थों का ज्ञान देनेवाला समझता हूँ। मैंने तो (तेन ब्रह्मणा मुखेन) = उस ब्रह्मरूप मुख से ही (एनं प्राशिषम्) = इस ब्रह्मौदन को खाया है, (तेन) = उस ब्रह्म-मुख से ही (एनं अजीगमम्) = इसे पाया है। परमात्मा से दिये गये मुख से मैंने वेदवाणियों का उच्चारण करते हुए उस ब्रह्म को जाना है। २. (एषः वा ओदन:०)[शेष पूर्ववत्]

    भावार्थ

    हम ज्ञान को ही ब्रह्मौदन के विराट् शरीर का मुख स्थानीय समझते हुए ज्ञान प्राप्ति के लिए यनशील हों। अन्यथा हम विषय-प्रवण होकर मुख से अशुभ शब्दों को बोलते हुए अपनी प्रजाओं को ही नष्ट करनेवाले बनेंगे।

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    भाषार्थ

    (पूर्वे ऋषयः) पूर्व काल के या सद्गुणों से पूरित ऋषियों ने (येन मुखेन) जिस मुख से (एतम्) इस ओदन का (प्राश्नन्) प्राशन किया है, (ततः) उस से (च = चेत्) यदि (अन्येन) भिन्न प्रकार के (मुखेन) मुख से (एनम्) इस ओदन का (प्राशीः) तू प्राशन करता है, तो (मुखतः१) मुख से प्रारम्भ कर के (ते प्रजा) तेरा प्रत्येक उत्पन्न हुआ अङ्ग-प्रत्यङ्ग (मरिष्यति) प्राण हीन हो जायेगा। (इति) यह (एनम्) इस प्राशन कर्त्ता को विज्ञ (आह) कहे। (तम्) उस को (न अर्वाञ्चम्) न कुत्सित हो कर याचित किये, (न पराञ्चम्) न दूसरे के लिये याचित किये, (न प्रत्यञ्चम्) न प्रतिकूल व्यक्ति से याचित किये ओदन को, (वै) निश्चय से, (अहम्) मैंने (प्राशिषम्) प्राशित किया है। (तेन ब्राह्मणा मुखेन) उस ब्रह्मरूपी मुख से (एनम्) इस ओदन को (प्राशिषम्) मैंने प्राशित किया है, (तेन) उस ब्रह्मरूपी मुख से (एनम्) इस ओदन को (अजीगमम्३) मैंने उदरादि अङ्गों में पहुंचाया है। (एष वा ओदनः सर्वाङ्गः सर्वपरुः सर्वतनूः) यह ओदन [पुष्टि के लिये] सर्वथा सम्पूर्ण है। (यः एवम् वेद) जो प्राशनकर्ता इस प्रकार ओदन को जानता है वह (सर्वाङ्ग एव सर्वपरुः सर्वतनूः सं भवति) सर्वाङ्ग सम्पुष्ट हो जाता है।

    टिप्पणी

    [मन्त्र ३५ से मुख्यरूप में प्राकृतिक-ओदन के प्राशन का वर्णन हुआ है, ब्रह्मौदन का नहीं। प्राशनकर्ता ब्रह्मरूपीमुख द्वारा प्राकृतिक-ओदन का प्राशन करता है। ब्रह्म अन्नाद है, जगत् रूपी अन्न का वह भक्षण करता है, नियम से बद्ध हो कर भक्षण करता है, स्वाद, लोभ और लालच से नहीं। इसी प्रकार व्यक्ति को ओदन का प्राशन करना चाहिये, स्वाद, लोभ और लालच से नहीं, और नियत समय में प्राशन करना चाहिये। यतः ३५ वें मन्त्र से प्राकृतिक-ओदन का वर्णन हुआ है, अतः तदनुसार "अर्वाञ्चम् , पराञ्चम् और प्रत्यञ्चम्", के अर्थ भी तदनुरूप ही किये गए हैं। अर्वाचञ्म् = अर्वः (कुत्सित हो कर, दाता द्वारा अपमानित हो कर) + अञ्चम् (याचितः "अचि" याचने, भ्वादि)। पराञ्चम्=पर (दूसरे व्यक्ति के लिये) + अञ्चम् (याचित)। प्रत्यञ्चम् =प्रति (प्रतिकूल व्यक्ति से) + अञ्चम् (याचित)। अभिप्राय यह है कि अपने आप को हीनावस्था में दर्शा कर मांगे ओदन को, दूसरे के निमित्त मांगे ओदन को, प्रतिकूल अर्थात् जो विरोधी व्यक्ति है उस से मांगे ओदन को प्राशन कर्त्ता प्राशित न करे, अपितु उदारता पूर्वक धर्म भावना से दिये गये, या स्वोपार्जित ओदन का प्राशन ही सर्वश्रेष्ठ प्राशन है। तथा यह भी जानना चाहिये कि ओदन का प्राशन सात्विक प्राशन है। आध्यात्मिक व्यक्ति को इस सात्विक-ओदन का सेवन करना चाहिये, और इसे सर्वाङ्ग सम्पूर्ण भोजन जानना चाहिये। यह भोजन प्राणापान को व्यवस्थित करता है "प्राणापानौ व्रीहियवौ" (अथर्व० ११।४।१३)। तथा "शिवौ ते स्तां व्रीहियवावबलासावदो मधौ। एतौ यक्ष्मं वि बाधेते एतौ मुञ्चतो अंहसः" (अथर्व० ८।२।१८), अर्थात् व्रीहि और यव कल्याणकारी, अबलास अर्थात् बलक्षय को दूर करते, खाने में मधुर, यक्ष्म-विनाशक तथा अंहम् की प्रवृत्ति के विरोधी हैं। "व्रीहिर्यवश्च भेषजौ" (अथर्व० ८।७।२०), अर्थात् व्रीहि और यव भेषज हैं। "व्रीहिमत्तं यवमत्तमथो माषमथो तिलम्। एष वां भागो निहितो रत्नधेयाय दन्तौ मा हिंसिष्टं पितरं मातरं च ॥" (अथर्व० ६।१४०।२), अर्थात व्रीहि और यव का भोजन दान्तों के लिये हितकर है]। [१. मन्त्र ३२ में "ज्येष्ठतः" और मन्त्र ३५ में "मुखतः"। इन भिन्न पदों द्वारा दो स्थानों में प्राश्यों में भेद दर्शाया है। २. अर्वः= कुत्सितः (उणाः ५।५४)। अथवा अर्वाञ्चम् = अवर + अञ्चम्। नीचा होकर याचित। ३. गमेर्ण्यन्तात् लुङि चङि रूपम् (सायण)।]

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    विषय

    ब्रह्मोदन के उपभोग का प्रकार।

    भावार्थ

    (एनम् आह। येन च एतं पूर्वे ऋषयः प्राश्नन् ततः च एनम् अन्येन मुखेन प्राशीः, मुखतः ते प्रजा मरिष्यति इति) गुरु विद्वान् जिज्ञासु को उपदेश करे कि जिस मुख से इस ओदन को पूर्व काल के ऋषि भोग करते थे उससे अतिरिक्त सुख से यदि तू भोग करेगा तो तेरी प्रजा सुख से मरेगी। (तं वा०) इत्यादि पूर्ववत्। (ब्रह्मणा मुखेन। तेन एनं प्राशिषं तेन एनम् अजीगमम्) ब्रह्म रूप मुख से उस ओदन को भोग करूं और उससे ही उसको अन्यों को प्राप्त कराऊं। (एष वा०) इत्यादि पूर्ववत्।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्तो ब्रह्मौदनो देवता। ३२, ३८, ४१ एतासां (प्र०), ३२-३९ एतासां (स०) साम्नी त्रिष्टुभः, ३२, ३५, ४२ आसां (द्वि०) ३२-४९ आसां (तृ०) ३३, ३४, ४४-४८ आसां (पं०) एकपदा आसुरी गायत्री, ३२, ४१, ४३, ४७ आसां (च०) दैवीजगती, ३८, ४४, ४६ (द्वि०) ३२, ३५-४३, ४९ आसां (पं०) आसुरी अनुष्टुभः, ३२-४९ आसां (पं०) साम्न्यनुष्टुभः, ३३–४९ आसां (प्र०) आर्च्य अनुष्टुभः, ३७ (प्र०) साम्नी पंक्ति:, ३३, ३६, ४०, ४७, ४८ आसां (द्वि०) आसुरीजगती, ३४, ३७, ४१, ४३, ४५ आसां (द्वि०) आसुरी पंक्तयः, ३४ (च०) आसुरी त्रिष्टुप् ४५, ४६, ४८ आसां (च०) याजुष्योगायत्र्यः, ३६, ४०, ३७ आसां (च०) दैवीपंक्तयः, ३८, ३९ एतयोः (च०) प्राजापत्यागायत्र्यौ, ३९ (द्वि०) आसुरी उष्णिक्, ४२, ४५, ४९ आसां (च०) दैवी त्रिष्टुभः, ४९ (द्वि०) एकापदा भुरिक् साम्नीबृहती। अष्टादशर्चं द्वितीय पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Odana

    Meaning

    For that reason, if you eat, speak of, this Odana by any other tongue than that by which the ancient Rshis ate, internalised and spoke of it, then by word and mouth your people would be lost for words, so said the master to the disciple. And so I eat, speak of, this Odana neither greedily as it is closest, nor desperately as it is farthest, nor of necessity as it is within and discordant. I have received it from the divine mouth. By divine mouth I have experienced and spoken of it, from that and by that I have obtained it. And this Odana is complete in all aspects, perfect in all parts, and perfect whole in body form. And he that knows this and thus receives it becomes complete in all limbs, perfect in all parts, and perfect whole in body, mind and soul.

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    Translation

    If thou hast eaten it with another mouth than that with which the ancient seers ate this, thy progeny will die fro in front; thus one says to him; it verily (have) I not (eaten) coming hither, nor retiring, nor coming on; with Brahman as mouth, there-with have I etc. etc.

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    Translation

    Wise man tell..............etc,............with a different mouth, you offspring will die reckoning from the head…..with the mouth called Brahma………etc.

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    Translation

    The preceptor should say to the seeker after truth, "If thou wilt try to realize God with a tongue different from that of the ancient sages, thy tongue will become dry and lifeless. Verily have I now realized God, Who exists after the dissolution of the universe, is far from the ignorant, and near the learned. Like the ancient sages with a tongue full of fervour and brilliance like fire, have I realized God and acquired Him. Verily this God is Resourceful, Nourishing, Serviceable. He who thus knows God becomes resourceful, Nourishing and serviceable.

    Footnote

    One should sing the praise of God with a tongue full of fervour and lustre like fire.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३५−(ततः) तस्माद् मुखात् (मुखेन) (मुखतः) मुखबलात् (ते) तव (प्रजा) राज्यजनता (मरिष्यति) विनङ्क्ष्यति (ब्रह्मणा) वेदरूपेण। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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