अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 4
ऋषिः - अथर्वा
देवता - बार्हस्पत्यौदनः
छन्दः - साम्न्यनुष्टुप्
सूक्तम् - ओदन सूक्त
0
दितिः॒ शूर्प॒मदि॑तिः शूर्पग्रा॒ही वातोऽपा॑विनक् ॥
स्वर सहित पद पाठदिति॑: । शूर्प॑म् । अदि॑ति: । शू॒र्प॒ऽग्रा॒ही । वात॑: । अप॑ । अ॒वि॒न॒क् ॥३.४॥
स्वर रहित मन्त्र
दितिः शूर्पमदितिः शूर्पग्राही वातोऽपाविनक् ॥
स्वर रहित पद पाठदिति: । शूर्पम् । अदिति: । शूर्पऽग्राही । वात: । अप । अविनक् ॥३.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सृष्टि के पदार्थों के ज्ञान का उपदेश।
पदार्थ
(दितिः) [परमेश्वर की] खण्डन शक्ति (शूर्पम्) सूप [समान] है, (अदितिः) [उसकी] अखण्डन शक्ति ने (शूर्पग्राही) सूप पकड़नेवाले [के समान] (वातः-वातेन) पवन से (अप अविनक्) [शुद्ध और अशुद्ध पदार्थ को] अलग-अलग किया है ॥४॥
भावार्थ
जैसे लोग सूप से वायु द्वारा अशुद्ध वस्तु को निकालकर शुद्ध वस्तु को ले लेते हैं, वैसे ही परमेश्वर अपने सामर्थ्य से प्रकृति द्वारा परमाणुओं का संयोग-वियोग करके जगत् को रचता है और वैसे ही विवेकी पुरुष विद्या द्वारा अवगुण छोड़कर गुण ग्रहण करता है ॥४॥
टिप्पणी
४−(दितिः) दो अवखण्डने-क्तिन्। खण्डनशक्तिः परमेश्वरस्य (शूर्पम्) सुशॄभ्यां निच्च। उ० ३।२६। शॄ हिंसायाम्-प प्रत्ययः। यद्वा, शूर्प माने-घञ्। धान्यस्फोटकपात्रम् (अदितिः) अ० २।२९।४। नञ्+दो अवखण्डने-क्तिन्। अखण्डनशक्तिः (शूर्पग्राही) ग्रह उपादाने-णिनि। शूर्पग्राहकः पुरुषः (वातः) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। विभक्तेः सु। वातेन, वायुना (अप अविनक्) विचिर् पृथग्भावे-लङ्। पृथक् पृथक् कृतवान् शुद्धाशुद्धवस्तूनि ॥
विषय
'बृहस्पति: शिरा'
पदार्थ
१. (तस्य ओदनस्य) = उस ब्रह्मौदन के विराट् शरीर का (बृहस्पतिः शिर:) = महान् लोकों का स्वामी प्रभु ही शिर:स्थानीय है, अर्थात् वह बृहस्पति ही इसका मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। (ब्रह्म) = ज्ञान (मुखम्) = मुख है-इस ओदन के मुख से ब्रह्म [ज्ञान] की वाणियौं उच्चरित होती हैं। इस ओदन के विराट् शरीर के (द्यावापृथिवी) = द्युलोक व पृथिवीलोक (श्रोत्रे) = कान हैं। इसमें युलोक से पृथिवीलोक तक सब लोक-लोकान्तरों का ज्ञान सुनाई पड़ता है। (सूर्याचन्द्रमसौ) = सूर्य और चाँद इस ओदन-शरीर की (अक्षिणी) = आँखें हैं। सूर्य व चन्द्र द्वारा ही यह ज्ञान प्राप्त होता है। दिन का अधिष्ठातृदेव सूर्य है, रात्रि का चन्द्र। हमें दिन-रात इस ज्ञान को प्रास करना है। (सप्तऋषयः) = शरीरस्थ सप्तऋषि ही (प्राणापाना:) = इसके प्राणापान हैं। ('कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्') = दो कानों, दो नासिका-छिद्रों, दो आँखों व मुख के द्वारा ही इस ओदन-शरीर का जीवन धारित होता है। २. इस ओदन को तैयार करने के लिए (चक्षुः मुसलम्) = आँख मूसल का कार्य करती है, (काम:) = इच्छा ही इसके लिए (उलूखलम्) = ओखली है। प्रत्येक वस्तु को आँख खोलकर देखने पर वह वस्तु उस ब्रह्म की महिमा का प्रतिपादन कर रही होती है। इच्छा के बिना यह ज्ञान प्राप्त नहीं होता। (दितिः) = यह खण्डनात्मक जगत्-जिस जगत् में प्रतिक्षण छेदन-भेदन चल रहा है, वह कार्यजगत्-इस ओदन के लिए (शूर्पम्) = छाज होता है। (अदिति:) = मूल प्रकृति शर्पग्राही उस छाज को मानो पकड़े हुए है। (वात:) = यह वायु ही (अपाविनक्) = धान से तण्डलों को पृथक् करनेवाला होता है। (अश्वा: कणा:) = इस ओदन के कण अश्व' है, (गावः तण्डुला:) = ओदन के उपादानभूत तण्डुल गौवें हैं। (मशका: तुषा:) = अलग किये हुए तुष [भूसी] मशक आदि क्षुद्र जन्तु हैं। (कब्रू) = [कब to colour] चित्रित प्राणी या जगत् इस ओदन के (फलीकरणा:) = [Husks separated from the grain] छिलके हैं तथा (अभ्रम् शर:) = मेघ ऊपर आई हुई पपड़ी [Cream] की भाँति हैं।
भावार्थ
प्रभु ने वेदज्ञान दिया। इसका मुख्य प्रतिपाद्य विषय ब्रह्म है। इसमें 'हलोक, पृथिवीलोक, सूर्य-चन्द्र, सप्तर्षि, चक्षु, काम, दिति, अदिति, वात, अश्व, गौ, मशक, चित्रित जगत् [प्राणी] व मेघ' इन सबका वर्णन उपलभ्य है।
भाषार्थ
(दितिः) अवखण्डित और क्षीण होने वाला कार्यजगत् (शूर्पम्) छाजस्थानी है, (अदितिः) न अवखण्डित और न क्षीण होने वाला प्रकृति (शुर्पग्राही) छाज को पकड़न वाले व्यक्ति का स्थानी है, (वातः) वायु (अपाविनक्) तुषों से तण्डुलों के विवेचयिता अर्थात् पृथक् करने वाले व्यक्ति का स्थानी है।
टिप्पणी
[दिति = दो अवखण्डने, या दीङ्क्षयै (कार्यजगत्), जो कार्य जगत् में लीन रहते हैं वे दिति के पुत्र दैत्य है। अदिति = न अवखण्डित या क्षीण होने वाली प्रकृति। जो कारणरूपा प्रकृति में योगाभ्यास द्वारा लीन होते हैं, उन्हें प्रकृति कहते हैं। यथा "भव प्रत्ययो विदेह "प्रकृति लयानाम्" (योग १।१९)। ये कार्यजगत् विरक्त होते हैं, अतः दैत्य नहीं होते। दिति, अदिति और वायु- परमेश्वर सम्बन्धी तत्त्व हैं, और शूर्प, शूर्पग्राही तथा अपाविनक् कृष्योदन सम्बन्धी हैं। अपाविनक् = अप + अट् + विचिर् पृथग्भावे। लङि श्नम् “ति" इत्यस्य इकार लोपे, "हल्ङ्याब्भ्यः" इति तकार लोपे, "चोः कुः" इति कुत्वम्]।
विषय
विराट् प्रजापति का बार्हस्पत्य ओदन रूप से वर्णन।
भावार्थ
(दितिः) खण्डन-कारिणी विभाग शक्ति (शूर्पम्) शूप या छाज है। (शूर्पग्राही) उस शूप को लेने वाली ‘अदिति’ अर्थात् ‘पृथ्वी’ है (वातः अप-अविनक्) वायु पूर्वोक्त ब्रह्मौदन के चावलों के तुषों से पृथक् करने वाला है
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। बार्हस्पत्यौदनो देवता। १, १४ आसुरीगायत्र्यौ, २ त्रिपदासमविषमा गायत्री, ३, ६, १० आसुरीपंक्तयः, ४, ८ साम्न्यनुष्टुभौ, ५, १३, १५ साम्न्युष्णिहः, ७, १९–२२ अनुष्टुभः, ९, १७, १८ अनुष्टुभः, ११ भुरिक् आर्चीअनुष्टुप्, १२ याजुषीजगती, १६, २३ आसुरीबृहत्यौ, २४ त्रिपदा प्रजापत्यावृहती, २६ आर्ची उष्णिक्, २७, २८ साम्नीबृहती, २९ भुरिक्, ३० याजुषी त्रिष्टुप् , ३१ अल्पशः पंक्तिरुत याजुषी। एकत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Odana
Meaning
Diti, Prakrti in the mutable state of existence, is the winnowing basket, Aditi, Prakrti as the constant base of mutability,is the winnower, and wind is the agent that separates the grain from the chaff.
Translation
Diti the winnowing basket, Aditi the basket-holder; the wind winnowed (apa-vic).
Translation
Dite, the disintegration is like winnowing basket and aditi, the integration is like that which holds it. The air is like sister.
Translation
The destructive power of God, is like the winnowing basket. Earth is the recipient of unclean material of the winnowing basket, air separates the pure from the impure substance.
Footnote
Just as people, separate the pure from the impure substance by means of the winnowing basket through air, so does God create the world through His power by uniting and separating the atoms. Similarly do discerning people, through knowledge give up sins and acquire virtues.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(दितिः) दो अवखण्डने-क्तिन्। खण्डनशक्तिः परमेश्वरस्य (शूर्पम्) सुशॄभ्यां निच्च। उ० ३।२६। शॄ हिंसायाम्-प प्रत्ययः। यद्वा, शूर्प माने-घञ्। धान्यस्फोटकपात्रम् (अदितिः) अ० २।२९।४। नञ्+दो अवखण्डने-क्तिन्। अखण्डनशक्तिः (शूर्पग्राही) ग्रह उपादाने-णिनि। शूर्पग्राहकः पुरुषः (वातः) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। विभक्तेः सु। वातेन, वायुना (अप अविनक्) विचिर् पृथग्भावे-लङ्। पृथक् पृथक् कृतवान् शुद्धाशुद्धवस्तूनि ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal