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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 31
    ऋषिः - अथर्वा देवता - बार्हस्पत्यौदनः छन्दः - अल्पशः पङ्क्तिरुत याजुषी सूक्तम् - ओदन सूक्त
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    ओ॑द॒न ए॒वौद॒नं प्राशी॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ओ॒द॒न: । ए॒व । ओ॒द॒नम् । प्र । आ॒शी॒त् ॥३.३१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ओदन एवौदनं प्राशीत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ओदन: । एव । ओदनम् । प्र । आशीत् ॥३.३१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 3; मन्त्र » 31
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    हिन्दी (4)

    विषय

    सृष्टि के पदार्थों के ज्ञान का उपदेश।

    पदार्थ

    (ओदनः) ओदन [सुख बरसानेवाले अन्नरूप परमेश्वर] ने (एव) हि (ओदनम्) ओदन [सुखवर्षक स्थूल जगत्] को (प्र आशीत्) खाया है ॥३१॥

    भावार्थ

    परमेश्वर अपने सामर्थ्य से सृष्टि के समय स्थूल जगत् को उत्पन्न करता और प्रलय के समय सबको सूक्ष्म कारण में लीन कर देता है। जीवात्मा के लिये स्थूल जगत् में स्थूल शरीर मुक्ति का साधन है ॥३१॥

    टिप्पणी

    ३१−(ओदनः) सुखवर्षकोऽन्नरूपः परमात्मा (एव) (ओदनम्) सुखवर्षकमन्नरूपं स्थूलं जगत् (प्राशीत्) भक्षितवान् ॥

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    विषय

    पराञ्चं+प्रत्यञ्चम् [न अहम्, न माम्]

    पदार्थ

    १. (ब्रह्मवादिनः) = ज्ञान का प्रतिपादन करनेवाले (वदन्ति) = प्रश्न करते हुए कहते हैं कि तुने (पराञ्चम्) = [पर अञ्च] परोक्ष ब्रह्म में गतिवाले (ओदनम्) = ज्ञान के भोजन को (प्राशी:) = खाया है, अर्थात् पराविद्या को ही प्राप्त करने का यन किया है अथवा (प्रत्यञ्बम् इति) = [प्रति अञ्च] अपने अभिमुख-सामने उपस्थित इन प्रत्यक्ष पदाथों का ही, अर्थात् अपराविद्या को ही जानने का यत्न किया है? एक प्रश्न वे ब्रह्मवादी और भी करते हैं कि यह जो तू संसार में भोजन करता है तो क्या (त्वम् ओदन प्राशी:) = तूने भोजन खाया है, या (ओदनः त्वाम् इति) = इस ओदन ने ही तुझे खा डाला है? २. प्रश्न करके वे ब्रह्मवादी ही समझाते हुए (एनं आह) = इस ओदनभोक्ता से कहते हैं कि (पराञ्चं च एनं प्राशी:) = [च-एव] यदि तू केवल परोक्ष ब्रह्म का ज्ञान देनेवाले इस ज्ञान के भोजन को ही खाएगा तो (प्राणा: त्वा हास्यन्ति इति) = प्राण तुझे छोड़ जाएंगे, अर्थात् तू जीवन को धारण न कर सकेगा और वे (एनं आह) = इसे कहते हैं कि (प्रत्यञ्च च एनं प्राशी:) = केवल अभिमुख पदार्थों का ही ज्ञान देनेवाले इस ओदन को तू खाता है तो (अपाना: त्वा हास्यन्ति इति) = दोष दूर करने की शक्तियाँ तुझे छोड़ जाएँगी, अर्थात् केवल ब्रह्मज्ञानवाला मृत ही हो जाएगा, और केवल प्रकृतिज्ञानवाला दूषित जीवनवाला हो जाएगा। ३. इसी प्रकार सांसारिक भोजन के विषय में वह कहता है कि (न एव अहम् ओदनम्) = न तो मैं ओदन को खाता हैं और (न माम् ओदनः) = न ओदन मुझे खाता है। अपितु (ओदनः एव) = यह अन्न का विकार अन्नमयकोश ही (ओदनं प्राशीत्) = अन्न खाता है, अर्थात् जितनी इस अन्नमयकोश की आवश्यकता  होती है, उतने ही अन्न का यह ग्रहण करता है। मैं स्वादवश अन्न नहीं खाता। इसीलिए तो यह भी मुझे नहीं खा जाता। स्वादवश खाकर ही तो प्राणी रोगों का शिकार हुआ करता है।

    भावार्थ

    हम परा व अपराविद्या दोनों को प्राप्त करें। अपराविद्या के अभाव में जीवनधारण सम्भव न होगा और पराविद्या के अभाव में जीवन दोषों से परिपूर्ण हो जाएगा, क्योंकि तब हम प्राकृतिक भोगों में फंस जाएंगे। इसी बात को इसप्रकार कहते हैं कि शरीर की आवश्यकता के लिए ही खाएँगे तब तो ठीक है, यदि स्वादों में पड़ गये तो इस अन्न का ही शिकार हो जाएंगे।

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    भाषार्थ

    (ओदनः एव) ओदन ने ही (ओदनम्) ओदन का (प्राशीत्) प्राशन किया है।

    टिप्पणी

    [प्राशीत् = प्र + अश (भोजने) + लुङ्। अभिप्राय यह है कि शरीर ओदन है, क्योंकि यह ओदन का ही विकृतरूप है। यथा "अन्नाद् रेतः, रेतसः पुरुषः, स वा एष पुरुषः अन्नरसमयः" (तैत्तिरीयोपनिषद्)। ओदन है अन्न, अन्न से उत्पन्न होता है रेतस् [वीर्य], रेतस् से उत्पन्न होता है पुरुष [शरीर], इसलिये पुरुष [शरीर] अन्नरसमय है। इस अन्न या ओदन रूपी शरीर ने [निज आवश्यकतानुसार, न कि भोग भावना से] ओदन अर्थात् प्राकृतिक-ओदन का प्राशन किया है। इसलिये ओदन ने ही ओदन का प्राशन किया है; अतः इस प्राशन में कोई दोष नहीं। और आत्मस्वरूप मैं ने तो आध्यात्मिक "ब्रह्मौदन" का ही प्राशन किया है; "ब्रह्मौदन" (अथर्व० ११/१/२०)। यथा "ब्रह्मौदनं विश्वजितं पचामि शृण्वन्तु मे श्रद्दधानस्य देवाः" (अथर्व० ४/३५/७) प्राकृतिक ओदन का नहीं]।

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    विषय

    विराट् प्रजापति का बार्हस्पत्य ओदन रूप से वर्णन।

    भावार्थ

    तो तत्व यह है कि (ओदनः एव ओदनं प्राशीत्) ओदन ही ओदन को भोग करता है। अर्थात् आत्मारूप देहस्थ प्रजापति ही विराट् प्रजापति का आनन्द प्राप्त करता है।

    टिप्पणी

    भोक्तृभोक्तव्य प्रपञ्चात्मक ओदन इति सायणः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। बार्हस्पत्यौदनो देवता। १, १४ आसुरीगायत्र्यौ, २ त्रिपदासमविषमा गायत्री, ३, ६, १० आसुरीपंक्तयः, ४, ८ साम्न्यनुष्टुभौ, ५, १३, १५ साम्न्युष्णिहः, ७, १९–२२ अनुष्टुभः, ९, १७, १८ अनुष्टुभः, ११ भुरिक् आर्चीअनुष्टुप्, १२ याजुषीजगती, १६, २३ आसुरीबृहत्यौ, २४ त्रिपदा प्रजापत्यावृहती, २६ आर्ची उष्णिक्, २७, २८ साम्नीबृहती, २९ भुरिक्, ३० याजुषी त्रिष्टुप् , ३१ अल्पशः पंक्तिरुत याजुषी। एकत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Odana

    Meaning

    In fact Odana itself has eaten Odana. (The question of the eater and the eaten remains as long as the duality of the two, subject and object, remains. In the state of communion and union, the duality goes away. Brahma which, in the state of duality, was the Odana, or food of the Yogi for the spirit, now, in the state of union, has taken up the meditative soul as its own self or child (Yogasutras, 1, 3 and 41; and Gita, 4, 24 and 9, 16. The two are one, indistinguishable, the duality is gone.) Paryaya 2 In this part, from mantra 32 to 49, the symbolic correspondence between Brahmaudana, spiritual food, and physical food for the body is obvious, and yet subtle because it points out how physical food too should be taken in the wide perspective of nature and the lord of nature, the Supreme Brahma. The correspondence follows from mantra 31 which says that Odana itself eats Odana, i.e., the subject and the object are in communion, not separate. Therefore the communion should be essential and spontaneous, not out of greed, desperation, aversion or necessity. If the human receives the food, physical or divine, out of compulsion, the human is not fully human, there is something wanting. Completion, perfection and fulfilment of the human is only in the union with divine.

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    Translation

    The rice-dish itself hath eaten thé rice-dish.

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    Translation

    Really, the Odana has eaten the Odana.

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    Translation

    The preceptor should say to the seeker after truth, 'If thou wilt try to realize God, with a mental vision different from that adopted by the ancient sages, thy offspring, reckoning from the eldest, will die.' Verily have I now realized God, who exists after the dissolution of the universe, is far from the ignorant, and near the learned. Like the ancient sages, with a brain full of knowledge, have I visualized God, and acquired Him. Verily, this God is Resourceful, Nourishing, serviceable. He, who thus knows God, becomes resourceful, nourishing, and serviceable.

    Footnote

    I: A seeker after truth, who thus replies.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३१−(ओदनः) सुखवर्षकोऽन्नरूपः परमात्मा (एव) (ओदनम्) सुखवर्षकमन्नरूपं स्थूलं जगत् (प्राशीत्) भक्षितवान् ॥

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