अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 10
ऋषिः - आत्मा
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
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मनो॑ अस्या॒ अन॑आसी॒द्द्यौरा॑सीदु॒त च्छ॒दिः। शु॒क्राव॑न॒ड्वाहा॑वास्तां॒ यदया॑त्सू॒र्या पति॑म्॥
स्वर सहित पद पाठमन॑: । अ॒स्या॒: । अन॑: । आ॒सी॒त् । द्यौ: । आ॒सी॒त् । उ॒त । छ॒दि: । शु॒क्रौ । अ॒न॒ड्वाहौ॑ । आ॒स्ता॒म् । यत् । अया॑त् । सू॒र्या । पति॑म् ॥१.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
मनो अस्या अनआसीद्द्यौरासीदुत च्छदिः। शुक्रावनड्वाहावास्तां यदयात्सूर्या पतिम्॥
स्वर रहित पद पाठमन: । अस्या: । अन: । आसीत् । द्यौ: । आसीत् । उत । छदि: । शुक्रौ । अनड्वाहौ । आस्ताम् । यत् । अयात् । सूर्या । पतिम् ॥१.१०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विवाह संस्कार का उपदेश।
पदार्थ
(मनः) मन (अस्याः) इस [ब्रह्मचारिणी] का (अनः) रथ [समान] (आसीत्) होवे, (उत) और (द्यौः) सूर्य काप्रकाश (छदिः) छत्तर [समान] (आसीत्) होवे। (शुक्रौ) दोनों वीर्यवान् [वधूवर] (अनड्वाहौ) रथ चलानेवाले दो बैल [के समान] (आस्ताम्) होवें, (यत्) जब (सूर्या)प्रेरणा करनेवाली [वा सूर्य की चमक के समान तेजवाली] कन्या (पतिम्) पति को (अयात्) प्राप्त होवे ॥१०॥
भावार्थ
जब कन्या वेद आदिशास्त्र पढ़कर, मननशील, ताप आदि सहने योग्य हो और जब वैसा ही सुयोग्य पति हो, तबगृहाश्रम के चलाने में समर्थ होकर दोनों प्रीतिपूर्वक विवाह करें ॥१०॥
टिप्पणी
१०−(मनः)मननम्। अन्तःकरणम् (अस्याः) कन्यायाः (अनः) रथः (आसीत्) स्यात् (द्यौः)सूर्यप्रकाशः (आसीत्) (उत) अपि (छदिः) छत्रम्। आतपत्रम् (शुक्रौ) शुक्र-अर्शआद्यच्। वीर्यवन्तौ दम्पती (अनड्वाहौ) रथवाहकौ वृषभौ यथा (आस्ताम्) स्याताम्।अन्यद्-गतम्-म० ६ ॥
विषय
वधू का रथ
पदार्थ
१. (यत्) = जब (सूर्या) = सावित्री (पतिं अयात्) = पति को प्राप्त हुई तब (अस्याः) = इस सूर्या का (मन:) = मन ही (अनः आसीत्) = रथ था। यह अपने मनोरथ पर आरूढ़ होकर पतिगृह को गई, इच्छापूर्वक यह पति को प्राप्त हुई। इसका सम्बन्ध माता-पिता ने इसकी इच्छा के बिना नहीं किया। उस समय मन तो रथ था, (उत) = और (द्यौः) = मस्तिष्क (छदिः आसीम्) = छत थी। उस रथ का रक्षक मस्तिष्क था। केवल हृदय की भावुकता के कारण यह सम्बन्ध नहीं हुआ था, यह सम्बन्ध मस्तिष्क से, अर्थात् सब बातें सोच-विचारकर किया गया था। २. इस मनोमय रथ की छत मस्तिष्क बना तो (शुक्रौ) = गतिशील कर्मेन्द्रियाँ [शुक् गतौ] तथा दीप्त ज्ञानेन्द्रियाँ [शुच दीप्ती], इस रथ के (अनड्वाहौ आस्ताम्) = वृषभ थे। इसकी कर्मेन्द्रियों कर्मनिपुण होती हुई इसे सशक्त बना रही थी और ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञानप्राप्ति में कुशल होती हुई इसे ज्ञानदीस कर रही थी। यह शक्ति व ज्ञान ही इस रथ के संचालक थे।
भावार्थ
पति के चुनाव में सूर्या भी सहमत थी। यह सम्बन्ध भावुकता के कारण न होकर सोच-समझकर किया गया था। सूर्या की कर्मेन्द्रियों व ज्ञानेन्द्रियाँ गृहस्थ की गाड़ी को खेंचने में सशक्त बनी थीं।
भाषार्थ
(अस्याः) इस सूर्याब्रह्मचारिणी का (अनः) रथ (मनः) मन था (उत) और (छदिः) छत्त (द्यौः) सिर दिमाग, विचार शक्ति (आसीद्) थी, (अनड्वाहौ) मनरूपी रथ का वहन करने वाले दो बैल (शुक्रौ) बलशाली ज्ञानेन्द्रियवर्ग तथा कर्मेन्द्रियवर्ग (आस्तास्) थे, (यद्) जबकि (सूर्या) सूर्या ब्रह्मचारिणी (पतिम्) पति की ओर (अयात्) गई।
टिप्पणी
[व्याख्या- मन्त्र में सूर्या ब्रह्मचारिणी के गुणों पर प्रकाश डाला गया है। सूर्या जब पति की ओर चली तब इस का मन ही रथरूप था। विना मनोवाञ्छा के किसी चेतन का चलना नहीं हो सकता। सूर्या निज इच्छापूर्वक पति की ओर चली,-यह अभिप्राय "मनः, अनः" द्वारा प्रकट किया है। मनरूपी रथ की छत्त थी द्यौः। वेदों में आध्यात्मिक दृष्टि में शीर्ष अर्थात् सिर को द्यौः कहा है। यथा "शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत" (यजु० ३१।१३) अर्थात् सिर द्युलोक का प्रतिनिधि है। सिर या दिमाग विचार का केन्द्र है। मन तो इच्छा का द्योतक है, और द्यौः या सिर अथवा दिमाग विचार का द्योतक है। सूर्या के मनरूपी रथ पर अर्थात् उसकी मनोवाञ्छा पर द्यौः अर्थात् विचार की छत्त थी। अभिप्राय यह कि सूर्या की इच्छा, उसके विचार द्वारा सुरक्षित थी, प्रेरित थी। सूर्या की इच्छाशक्ति के रथ पर सुविचार की छदिः अर्थात् छत्त थी। छदिः का काम है रथ को धूप, सरदी और वर्षा आदि से बचाना। छद अपवारणे। इसी प्रकार सुविचार की छदिः, सूर्या की मनोवाञ्छा को कुमार्ग से बचाने वाली हुई। विचाररहित अनियन्त्रित इच्छा कुमार्गगामिनी हो सकती है। सूर्या की इच्छा जो पति की ओर जाने की हुई वह उस के सुविचारपूर्वक हुई, यह अभिप्राय है। अनड्वाहौ = अनस् = रथ, वाहौ= वहन करनेवाले दो बैल। मन्त्र १४।१।११ में अनड्वाहौ के स्थान में "गावौ" पठित है। वेद में गो शब्द इन्द्रिय वाचक भी है। गौः का अर्थ महर्षि दयानन्द ने "इन्द्रिय" भी किया है (उणा० २।६८)। इसीलिये इन्द्रियों के विषयों को 'गोचर' कहते हैं। अर्थात् जिन में गौएं अर्थात् इन्द्रियां विचरती हैं। इन्द्रियां अर्थात् ज्ञानेन्द्रियां और कर्मेन्द्रियां मनरूपी रथ को विषयों की ओर खींचे ले जाती हैं। सूर्या के विवाह में, सूर्या की इन्द्रियां१, सूर्या के मनरूपी रथ का वहन करने वाली बनीं] तथा [आधिभौतिक दृष्टि में मन्त्र सूर्या के भौतिक-रथ का भी वर्णन करता है। विवाह के पश्चात् सूर्या जब पतिगृह की ओर चली तब सूर्या का रथ "मनः" अर्थात् मननीय था, मनोरम था। इस रथ की छत्त "छदिः" द्युलोक के सदृश थी, अर्थात् द्युलोक जैसे सितारों से सजा हुआ है, वैसे रथ की छत्त कृत्रिम सितारों द्वारा सुसज्जित थी या होनी चाहिये। अथर्व० १४।१।६१ में सूर्या के रथ को "सुकिंशुक" कहा है, टेसु अर्थात् ढाक के फूलों से सजा हुआ कहा है। तथा इस भौतिक रथ के वहन करने वाले दो बैल थे, जोकि वीर्यवान् अर्थात् बलशाली थे (शुक्रौ, अनड्वाहौ)।] [१. इन इन्द्रियों को शुक्रौ कहा है। शुक्र का अर्थ होता है,—वीर्य। सूर्या के ब्रह्मचर्य के कारण सूर्या की इन्द्रियां वीर्यवती। अर्थात् बलवती थीं। शुक्र= शुक्र + अच् (अर्शआदिभ्योऽच; अष्टा० ५।२। १२७)। अतः शुक्र= शुक्रवान्]
विषय
गृहाश्रम प्रवेश और विवाह प्रकरण।
भावार्थ
(यद्) जब (सूर्या) कन्या (पतिम्) पति के पास (अयात्) जावे तब (अस्याः) इस कन्या का पति के पास जाने के लिये (मनः अनः आसीत्) मन अर्थात् चित्त या संकल्प ही रथ हो। (उत) और (द्यौः) द्यौः, आकाश या वाग् वाणी ही उस पूर्वोक्त संकल्पमय मनोरथ की (च्छदिः) ऊपर की छत के समान् आवरण (आसीत्) हो। (अनड्वाही) उस मनोरथरूप रथ को ढाने वाले बैलों के स्थान पर (शुक्रौ) दोनों स्त्री पुरुष के शुक्र और रज हों। अथवा ब्रह्मचर्य से सञ्चित वीर्य ही उस मनोरथ के पूर्ण करने वाला हो जिससे अगला गृहस्थ सम्पन्न हो। या दोनों स्वयं ही (शुक्रौ) शुद्ध चित्त, कान्तिमान् होकर उस गृहस्थ रथ के उठाने वाले हों।
टिप्पणी
‘सूर्या गृहम्’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
The mind is her bridal chariot, bright sky its canopy, the sun and moon, the motive powers, when the bride like the glorious dawn goes to the house of her husband.
Translation
The bride goes to her husband’s home, her mind is her chariot, and heaven is her covering; the two shining (orbs) (i.e., the sun and moon) are the oxen that draw it. (Rg. X.85.10)
Translation
The mind becomes the bridal car, the heavenly region becomes canopy, the two hot months of summer become the bullocks (to draw the car) when Surya goes to her husband.
Translation
Her spirit was the bridal car, the canopy thereof was heaven: Two stout oxen to draw the chariot of domestic life were husband and wife, when the girl came unto her lord.
Footnote
See Rig, 10-85-10.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१०−(मनः)मननम्। अन्तःकरणम् (अस्याः) कन्यायाः (अनः) रथः (आसीत्) स्यात् (द्यौः)सूर्यप्रकाशः (आसीत्) (उत) अपि (छदिः) छत्रम्। आतपत्रम् (शुक्रौ) शुक्र-अर्शआद्यच्। वीर्यवन्तौ दम्पती (अनड्वाहौ) रथवाहकौ वृषभौ यथा (आस्ताम्) स्याताम्।अन्यद्-गतम्-म० ६ ॥
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