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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 22
    ऋषिः - आत्मा देवता - आत्मा छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
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    इ॒हैव स्तं॒ मावि यौ॑ष्टं॒ विश्व॒मायु॒र्व्यश्नुतम्। क्रीड॑न्तौपु॒त्रैर्नप्तृ॑भि॒र्मोद॑मानौ स्वस्त॒कौ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒ह । ए॒व । स्त॒म् । मा । वि । यौ॒ष्ट॒म् । विश्व॑म् । आयु॑: । वि । अ॒श्नु॒त॒म् । क्रीड॑न्तौ । पु॒त्रै: । नप्तृ॑ऽभि: । मोद॑मानौ । सु॒ऽअ॒स्त॒कौ ॥१.२२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इहैव स्तं मावि यौष्टं विश्वमायुर्व्यश्नुतम्। क्रीडन्तौपुत्रैर्नप्तृभिर्मोदमानौ स्वस्तकौ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इह । एव । स्तम् । मा । वि । यौष्टम् । विश्वम् । आयु: । वि । अश्नुतम् । क्रीडन्तौ । पुत्रै: । नप्तृऽभि: । मोदमानौ । सुऽअस्तकौ ॥१.२२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 22
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    विवाह संस्कार का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे वधू-वर !] (इव एव)यहाँ [गृहाश्रम के नियम में] ही (स्तम्) तुम दोनों रहो, (मा वि यौष्टम्) कभी अलगमत होओ, और (पुत्रैः) पुत्रों के साथ तथा (नप्तृभिः) नातियों के साथ (क्रीडन्तौ)क्रीड़ा करते हुए, (मोदमानौ) हर्ष मनाते हुए और (स्वस्तकौ) उत्तम घरवाले तुम दोनों (विश्वम् आयुः) सम्पूर्ण आयु को (वि अश्नुतम्) प्राप्त होओ ॥२२॥

    भावार्थ

    स्त्री-पुरुष दोनोंदृढ़ प्रतिज्ञा करके प्रसन्नतापूर्वक पुत्र-पौत्र आदि के साथ धर्म से रहकरपूर्ण आयु भोगकर यशस्वी होवें ॥२२॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।८५।४२, और महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि गृहाश्रमप्रकरण यथाऋग्वेदादिभाष्यभूमिका विवाहविषय पृष्ठ २०८ में व्याख्यात है ॥

    टिप्पणी

    २२−(इह) अस्मिन्गृहाश्रमनियमे (एव) अवश्यम् (स्तम्) भवतम् (मा वि यौष्टम्) वियुक्तौ मा भवेताम् (विश्वम्) सम्पूर्णम् (आयुः) जीवनम् (वि) विविधम् (अश्नुतम्) प्राप्नुतम् (क्रीडन्तौ) धर्मेण खेलन्तौ (पुत्रैः) (नप्तृभिः) पौत्रैः (मोदमानौ) आनन्दंकुर्वन्तौ (स्वस्तकौ) शोभनगृहयुक्तौ ॥

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    विषय

    वर-वधू को आशीर्वाद

    पदार्थ

    १. हे वर-वधू! तुम दोनों (इह एव स्तम्) = यहाँ गृहस्थ में सुन्दर जीवनवाले होओ (मा वि यौष्टम्) = एक-दूसरे से पृथक् मत होओ, किसी एक का अल्पायुष्य तुम्हें वियुक्त करनेवाला न हो जाए। (विश्वम् आयुः व्यश्नुतम्) = तुम पूर्ण आयु को प्राप्त करनेवाले बनो। २. (पुत्रैः नतृभिः) = पुत्रों व नातियों से (क्रीडन्तौ) = खेलते हुए (मोदमानौ) = आनन्द का अनुभव करते हुए (स्वस्तकौ) = [सु+अस्तक] उत्तम गृहवाले बनो।

    भावार्थ

    पति-पत्नी गृह पर ही सारे अतिरिक्त समय को बिताएँ और अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए पूर्ण जीवन को प्राप्त करें। घर में सन्तानों की क्रीड़ा, वृद्धि का व घर के सौभाग्य का कारण बने।

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    भाषार्थ

    (इह) इस गृहस्थजीवन में (एव) ही (स्तम्) रहो, (मा)(वियौष्टम्) परस्पर वियोग को प्राप्त होओ। (पुत्रैः) पुत्रों के साथ, (नप्तृभिः) पौत्रों और दौहित्रों के साथ (क्रीडन्तौ) खेलते हुए, (मोदमानौ) आनन्द प्रसन्न होते हुए, (स्वस्तकौ) घर के जीवन को उत्तम बनाते हुए, (विश्वम्, आयुः) पूर्ण आयु को (व्यश्नुतम्) भोगो या प्राप्त करो।

    टिप्पणी

    [व्याख्या - कन्या का पिता वर-वधू दोनों को आशीर्वाद देता हुआ कहता है कि (१) तुम दोनों गृहस्थ जीवन में पति-पत्नीभाव से बने रहो। (२) परस्पर पति-पत्नीभाव के सम्बन्ध का विच्छेद न करो, न परस्पर तलाक दो, और न एक दूसरे से चिरकाल तक अलग रहो। (३) गृहस्थ में जीवनों को नियमपूर्वक रखो ताकि तुम अपनी १०० वर्षों की पूर्ण आयु भोग सको। (४) पुत्रों, पौत्रों, दौहित्रों के साथ खेला करो, और परस्पर आनन्द-प्रसन्न रहो। (५) घर को शिष्टाचार आदि द्वारा उत्तम बनाओ तथा उसे साफ-सुथरा और रम्य बनाओ।]

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    विषय

    गृहाश्रम प्रवेश और विवाह प्रकरण।

    भावार्थ

    हे वरवधू ! तुम दोनों (इह एव) इस गृहस्थ आश्रम में (स्तं) रहो। (मा वियौष्टम्) कभी वियुक्त न हुआ करो। (पुत्रैः) पुत्रों (नप्तृभिः) नातियों से (क्रीड़न्तौ) खेलते हुए (मोदमानौ) आनन्द प्रसन्न रहते हुए (सु-अस्तको) उत्तम गृह से सम्पन्न होकर (विश्वम् आयुः) अपनी पूर्ण आयु का (वि अश्नुतम्) विशेष रूप से या विविध प्रकार से भोग करो।

    टिप्पणी

    (च०) ‘स्वे गृहे’ (द्वि०) ‘दीर्घमायु’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Surya’s Wedding

    Meaning

    Be here, stay together in this home in happy conjugality, never separate, live and enjoy a full life in your own home, playing, celebrating and living with children and grand children a higher and happier home life.

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    Translation

    May both of you stay just here. May you not be seperated. May you enjoy the whole span of your life playing with children and grand-children, (of sons and daughters, both) rejoicing in your comfortable house. (Rg. X.85.42; Variation)

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    Translation

    O Women and men, I, the Almightily God issue this command to you that you both abide by the vows have taken previously in your marriage. You never deviate from these vows. You attain a long life, not short of hundred years obeying the rules of disciplined co-habitation without spoiling the semen in vain and according to the law of Dharma play your role accompanied by sons, grand-sons and owning own good house, lead the life of house-hold with delight and happiness.

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    Translation

    Be not divided; dwell ye here: reach the fulltime of human life. With sons and grandsons sport and play, rejoicing in your happy home.

    Footnote

    See Rig, 10-85-42.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २२−(इह) अस्मिन्गृहाश्रमनियमे (एव) अवश्यम् (स्तम्) भवतम् (मा वि यौष्टम्) वियुक्तौ मा भवेताम् (विश्वम्) सम्पूर्णम् (आयुः) जीवनम् (वि) विविधम् (अश्नुतम्) प्राप्नुतम् (क्रीडन्तौ) धर्मेण खेलन्तौ (पुत्रैः) (नप्तृभिः) पौत्रैः (मोदमानौ) आनन्दंकुर्वन्तौ (स्वस्तकौ) शोभनगृहयुक्तौ ॥

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