अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 61
ऋषिः - आत्मा
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
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सु॑किंशु॒कंव॑ह॒तुं वि॒श्वरू॑पं॒ हिर॑ण्यवर्णं सु॒वृतं॑ सुच॒क्रम्। आ रो॑ह सूर्येअ॒मृत॑स्य लो॒कं स्यो॒नं पति॑भ्यो वह॒तुं कृ॑णु॒ त्वम् ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒ऽकिं॒शु॒कम् । व॒ह॒तुम् । वि॒श्वऽरू॑पम् । हिर॑ण्यऽवर्णम् । सु॒ऽवृत॑म् । सु॒ऽच॒क्रम् । आ । रो॒ह॒ । सू॒र्ये॒॑ । अ॒मृत॑स्य । लो॒कम् । स्यो॒नम् । पति॑ऽभ्य: । व॒ह॒तुम् । कृ॒णु॒ । त्वम् ॥१.६१॥
स्वर रहित मन्त्र
सुकिंशुकंवहतुं विश्वरूपं हिरण्यवर्णं सुवृतं सुचक्रम्। आ रोह सूर्येअमृतस्य लोकं स्योनं पतिभ्यो वहतुं कृणु त्वम् ॥
स्वर रहित पद पाठसुऽकिंशुकम् । वहतुम् । विश्वऽरूपम् । हिरण्यऽवर्णम् । सुऽवृतम् । सुऽचक्रम् । आ । रोह । सूर्ये । अमृतस्य । लोकम् । स्योनम् । पतिऽभ्य: । वहतुम् । कृणु । त्वम् ॥१.६१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विवाह संस्कार का उपदेश।
पदार्थ
(सूर्ये) हे प्रेरणाकरनेवाली [वा सूर्य की चमक के समान तेजवाली] वधू ! (सुकिंशुकम्) अच्छे चमकनेवाले [अग्नि वा बिजुलीवाले] वा बहुत प्रशंसनीय चालवाले, (विश्वरूपम्) नाना रूपोंवाले [शुक्ल, नील, पीत, रक्त आदि वर्णवाले, अथवा ऊँचे-नीचे मध्यम स्थानवाले], (हिरण्यवर्णम्) सुवर्ण के लिये चाहने योग्य, (सुवृतम्) अच्छे घूमनेवाले [सब ओरमुड़ जानेवाले] (सुचक्रम्) सुन्दर [दृढ़, शीघ्रगामी] पहियोंवाले (वहतुम्) रथ पर [गृहाश्रमरूप गाड़ी पर] (त्वम्) तू (आ रोह) चढ़, और (पतिभ्यः) पतिकुलवालों केलिये (वहतुम्) [अपने] पहुँचने को (अमृतस्य) अमरपन [पुरुषार्थ] का (स्योनम्)सुखदायक (लोकम्) लोक [संसार का स्थान] (कृणु) बना ॥६१॥
भावार्थ
जैसे चतुर महारथी धन-धान्य से परिपूर्ण सुदृढ़ रथ पर अपने साथियों सहित चढ़ कर इच्छानुसार विचर करकार्य सिद्धि करता है, वैसे ही समझदार स्त्री तथा पुरुष गृहाश्रम में प्रवेश करके सुप्रबन्ध से अपने कुटुम्बियों सहित सुख भोगें ॥६१॥यह मन्त्र कुछ भेद सेऋग्वेद में है−१०।८५।२०, तथा महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि विवाहप्रकरण मेंरथ पर वधू को वर के चढ़ा ले जाने में विनियुक्त है, और निरुक्त १२।८ मेंव्याख्यात है ॥
टिप्पणी
६१−(सुकिंशुकम्) सुकिंशुकम्=सुकाशनम्, किंशुकं कंशतेःप्रकाशयतिकर्मणः-निरु० १२।८। यद्वा, कायतेर्डिमिः। उ० ४।१५८। सु+कैशब्दे-डिमि+शुक गतौ-क। अतिशयेन प्रकाशमानमग्निविद्युत्प्रयोगेण। अतिशयेनप्रशंसनीयगतिमन्तम् (वहतुम्) वहनसाधनं रथम् (विश्वरूपम्)शुक्लनीलपीतरक्तादिवर्णयुक्तम्, अथवा, उच्चनीचमध्याकारयुक्तम् (हिरण्यवर्णम्)हिरण्याय सुवर्णाय वरणीयं स्वीकरणीयम् (सुवृतम्) सर्वतो वर्तनशीलम् (सुचक्रम्)दृढशीघ्रगामिचक्रयुक्तम् (आरोह) आतिष्ठ (सूर्ये) हे प्रेरणशीले !सूर्यदीप्तिवत्तेजोयुक्ते (अमृतस्य) अमरणस्य। पुरुषार्थस्य (लोकम्) संसारम्।स्थानम् (स्योनम्) सुखप्रदम् (पतिभ्यः) पतिपक्षेभ्यः (वहतुम्) वहनम्−स्वप्रापणम् (कृणु) कुरु (त्वम्) ॥
विषय
गृहस्थ-रथ
पदार्थ
१. हे सूर्य-सविता की पुत्री सूर्यसम दीस जीवनवाली सरणशीले! तू (आरोह) = इस गृहस्थ रथ पर आरूढ़ हो, जो रथ (सुकिंशुकम्) = उत्तम प्रकाशवाला है, जिसे तूने स्वाध्याय के द्वारा उत्तम प्रकाश से युक्त करना है। (वहतुम्) = जो हमें उद्दिष्ट स्थल की ओर ले-जानेवाला है। (विश्वरूपम्) = जो सर्वत्र प्रविष्ट प्रभु का निरूपण करनेवाला है, चमकता है। यहाँ सबका स्वास्थ्य उत्तम होने से सब चमकते हैं। (सवृतम्) = यह रथ उत्तम वर्तनवाला है। यहाँ सबकी वृत्ति उत्तम है तथा (सुचक्रम्) = यह रथ उत्तम चक्रवाला है, अर्थात् सब उत्तम कर्मों में प्रवृत्त हैं। २. हे सूर्ये! (त्वम्) = तू इस (बहतुम्) = रथ को पतिभ्यः सब पतिकुलवालों के लिए (अमृतस्य लोकम्) = नीरोगता का स्थान तथा स्योनं कृणु-सुखप्रद कर । तेरे उत्तम व्यवहार व प्रबन्ध से यहाँ सब नीरोग और सुखी रहें।
भावार्थ
गृहपत्नी ने घर में ऐसी व्यवस्था करनी है कि वहाँ सभी स्वाध्यायशील हों, प्रभु स्तवन की वृत्तिवाले हों, स्वास्थ्य की ज्योति से चमकते हों, उत्तम वृत्तिवाले व उत्तम कौवाले हों, घर में नीरोगता व सुख हो।
भाषार्थ
(सुकिंशुकम्) पलाश= अर्थात ढाक के सुन्दर फूलों से सुसज्जित, या सुन्दर सुसज्जित, प्रकाशमान, (विश्वरूपम्) नानाविधरूपों वाले, (हिरण्यवर्णम्) सुवर्ण की नक्काशी वाले, (सुवृतम्) सुघड़ या उत्तम रीति से चलने वाले (सुचक्रम्) उत्तम पहियों वाले (वहतुम्) रथ के सदृश वर्तमान (वहतुम्) गृहस्थ-रथ पर (सूर्ये) हे सूर्या-ब्रह्मचारिणी! तू (आ रोह) आरूढ़ हो, यह गृहस्थ-रथ (अमृतस्य लोकम्) अमृत का स्थान है, इस गृहस्थ-रथ को (त्वम्) तू (पतिभ्यः) पति और अन्य अपने रक्षकों के लिए (स्योनम्) सुखकारी (कृणु) कर।
टिप्पणी
[सुकिंशुकम् = सुन्दर किंशुक अर्थात् ढाक, टेसु, पलाश के फूलों द्वारा सुसज्जित। ढाक के फूलों को किंशुक कहते हैं। आकृति में ये फूल "शुक" अर्थात् तोतों जैसे होते हैं, इन्हें देखते ऐसा प्रतीत होता है कि मानो छोटे-छोटे तोते डालियों पर बैठे हैं। ये फूल बसन्त काल में खिलते हैं। ऋ० १०।८५।२० में सुकिंशुकम् के साथ शल्मलिम् पाठ भी है। शल्मलि का अर्थ है सिम्बल। सिम्बल के फूल भी लालवर्ण और सुन्दर होते हैं, और वसन्त में खिलते हैं। अथर्व० १४।१।१३ में "फल्गुनीषु व्यूह्यते" द्वारा विवाह के लिए आदर्श काल फाल्गुन-मास माना है, जो कि वसन्तकाल है। इसी वसन्तकाल की परिपुष्टि सुकिंशुकम्, तथा शल्मलिम् शब्द कर रहे हैं। (निरु० १२।१।८) में सुकिंशुक और शल्मलि के अर्थ निम्नलिखित दिये हैं सुकाशनम् अर्थात् सुन्दर-प्रकाश वाला, तथा शल्मलिम् अर्थात् शन्नमलम्, नष्टमल, निर्मल। निरुक्त में "अपि वोपमार्थे स्यात्" द्वारा "सुकिंशुकमिव शल्मलिमिति” को उपमार्थक कहते हुए "किंशुक" का वृक्षरूप तथा पुष्परूप होना भी स्वीकृत किया है। इसी प्रकार "शल्मलिः सुशरो भवति, शरवान् वा" द्वारा शल्मलि का वृक्षरूप तथा पुष्परूप होना भी स्वीकृत किया है। स्योनम् सुखनाम (निघं० ३।६)] [व्याख्या - पत्नी जब पितृगृह से पतिगृह की ओर जाने लगे तब पत्नी जिस रथ पर आरूढ़ हो वह पुष्पमालाओं द्वारा सुसज्जित होना चाहिए, तथा विविध रूपों से रूपित, सुघड़, तथा सुन्दर और साफ पहियों वाला होना चाहिये। सूर्या ब्रह्मचारिणी विवाह के अनन्तर पतिगृह को जाने के लिए जब रथ पर आरोहण करे तब उसे कहना चाहिये कि अब तू इस रथ पर आरूढ़ होती हुई मानो गृहस्थ रथ पर आरूढ़ हुई है। यह गृहस्थरथ अमृत का स्थान है (अथर्व० १४।१।४२), इसे नरक धाम न बनाना। तथा गृहस्थ में ऐसा व्यवहार करना जिस से कि तेरा पति इस गृहस्थ को सुखधाम अनुभव कर सके। तथा पतिगृह में रहने वाले जो तेरे अन्य रक्षक हैं, यथा सास, श्वशुर, देवर आदि उन के साथ भी सद्व्यवहार द्वारा उन्हें भी सुखी रखना। वेदों के अनुसार यतः पत्नी गृह की सम्राज्ञी है, और गृह का प्रबन्ध इसी के हाथ में है, इस लिये सम्भावित हो सकता है कि बुजुर्गों आदि के साथ व्यवहार में कहीं यह उच्छृङ्खल न हो जाए, इस लिये पिता का सदुपदेश समयोचित प्रतीत होता है।]
विषय
गृहाश्रम प्रवेश और विवाह प्रकरण।
भावार्थ
हे (सूर्ये) सावित्रि ! सूर्ये ! कन्ये ! (सुकिंशुकम्) उत्तम उत्तम बनावटी तोते आदि पक्षियों की आकृति से सुसज्जित, (विश्वरूपं) नाना प्रकार के, (हिरण्यवर्णम्) सुवर्ण के रंग के सुनहरे, (सुवृतम्) सुंदर बने हुए (सुचक्रम्) उत्तम चक्रों से युक्त (वहतुम्) रथ पर (आरोह) चढ़। और (पतिभ्यः) पतियों और देवरों के लिये (त्वम्) तू (वहतुम्) इस रथको (अमृतस्य लोकं) अमृत के लोक के समान (स्योनम्) सुखकारी बना।
टिप्पणी
(प्र०) ‘सुकिंशुकं शल्मलीम्’ (च०) ‘पतये वहतुं कृणुष्व’ इति पैप्प० सं०। (द्वि०) ‘सुवर्णवर्ण सुकृतं’, ‘अमृतस्य नाभिम्’ इति मै० ब्रा०। (तृ०) ‘सुकृतस्य लोके’ इति पैप्प० सं।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
O bride, ascend the chariot of Grhastha, decked with flowers, versatile in form and role, of golden beauty, well cultured and moving forward in a well controlled manner. O Surya, sunny light of a new dawn for the new home, ascend to the new world of freedom and immortality through Grhastha, and make the life of your husband and family beautiful and comfortable as an earthly paradise.
Translation
O maiden of marriageable age (Surya), mount this chariot, decked with beautiful flowers, painted in all the hues, golden-coloured, strong wheeled and rolling smoothly, which is like the abode of immortality. Make this chariot comfortable for your husband.
Translation
O bride! you mount on this chariot which is decorated with good flowers, which have various colors, which is goldenhued which is strongly bound, good wheeled and which moves comfortably. Mount the Loka, the house-hold life which is the source of immortality and make the marriage auspicious for your husband and other members of the family.
Translation
O bride, glittering like the Sun, mount this, all hued, gold-tinted, strong-wheeled highly, brilliant, chariot lightly rolling, bound for the world of life immortal. Make for the relatives of thy husband a happy bride’s procession.
Footnote
Chariot: Domestic life, Grihastha Ashrama. See Rig, 10-85-20, and Nirukta, 12-8. This verse has been commented upon by Maharshi Dayananda in the Sanskar Vidhi in the chapter on marriage.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६१−(सुकिंशुकम्) सुकिंशुकम्=सुकाशनम्, किंशुकं कंशतेःप्रकाशयतिकर्मणः-निरु० १२।८। यद्वा, कायतेर्डिमिः। उ० ४।१५८। सु+कैशब्दे-डिमि+शुक गतौ-क। अतिशयेन प्रकाशमानमग्निविद्युत्प्रयोगेण। अतिशयेनप्रशंसनीयगतिमन्तम् (वहतुम्) वहनसाधनं रथम् (विश्वरूपम्)शुक्लनीलपीतरक्तादिवर्णयुक्तम्, अथवा, उच्चनीचमध्याकारयुक्तम् (हिरण्यवर्णम्)हिरण्याय सुवर्णाय वरणीयं स्वीकरणीयम् (सुवृतम्) सर्वतो वर्तनशीलम् (सुचक्रम्)दृढशीघ्रगामिचक्रयुक्तम् (आरोह) आतिष्ठ (सूर्ये) हे प्रेरणशीले !सूर्यदीप्तिवत्तेजोयुक्ते (अमृतस्य) अमरणस्य। पुरुषार्थस्य (लोकम्) संसारम्।स्थानम् (स्योनम्) सुखप्रदम् (पतिभ्यः) पतिपक्षेभ्यः (वहतुम्) वहनम्−स्वप्रापणम् (कृणु) कुरु (त्वम्) ॥
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