अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 25
ऋषिः - विवाह मन्त्र आशीष, वधुवास संस्पर्शमोचन
देवता - सोम
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
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परा॑ देहिशामु॒ल्यं ब्र॒ह्मभ्यो॒ वि भ॑जा॒ वसु॑। कृ॒त्यैषा॑ प॒द्वती॑ भू॒त्वा जा॒यावि॑शते॒ पति॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठपरा॑ । दे॒हि॒ । शा॒मु॒ल्य᳡म् । ब्र॒ह्मऽभ्य॑: । वि। भ॒ज॒ । वसु॑ । कृ॒त्या । ए॒षा । प॒त्ऽवती॑ । भू॒त्वा । आ । जा॒या । वि॒श॒ते॒ । पति॑म् ॥१.२५॥
स्वर रहित मन्त्र
परा देहिशामुल्यं ब्रह्मभ्यो वि भजा वसु। कृत्यैषा पद्वती भूत्वा जायाविशते पतिम् ॥
स्वर रहित पद पाठपरा । देहि । शामुल्यम् । ब्रह्मऽभ्य: । वि। भज । वसु । कृत्या । एषा । पत्ऽवती । भूत्वा । आ । जाया । विशते । पतिम् ॥१.२५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विवाह संस्कार का उपदेश।
पदार्थ
[हे वर !] (शामुल्यम्) [हृदय की] मलीनता (परा देहि) दूर कर दे, (ब्रह्मभ्यः) विद्वानों को (वसु) सुन्दरवस्तु (विभज) बाँट। (एषा) यह (कृत्या) कर्तव्यकुशल (जाया) पत्नी (पद्वती)ऐश्वर्यवती (भूत्वा) होकर (पतिम्) पति में (आ विशते) आकर प्रवेश करती है ॥२५॥
भावार्थ
गृहपति शुद्ध अन्तःकरणसे विदुषी स्त्रियों और विद्वानों का यथावत् आदर सत्कार करे, जिन के शिक्षा आदिप्रयत्न से स्त्रीरत्न उसको मिली है ॥२५॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।८५।२९ ॥
टिप्पणी
२५−(परा देहि) दूरं कुरु (शामुल्यम्) सानसिवर्णसिपर्णसितण्डुला०। उ०४।१०७। शमु उपशमे-उलच्, शमुलं शमलम्, अशुद्धम्, तस्य भावः−ष्यञ्।चित्तमालिन्यम् (ब्रह्मभ्यः) वेदज्ञेभ्यः (वि भज) सांहितिको दीर्घः। प्रयच्छ (वसु) श्रेष्ठं वस्तु (कृत्या) विभाषा कृवृषोः। पा० ३।१।१२०। करोतेः-क्यप्।मत्वर्थे अर्शआद्यच्। टाप्। कृत्यायां क्रियायां कुशला (एषा) (पद्वती) पतऐश्वर्ये-क्विप्, मतुप्। ऐश्वर्यवती (भूत्वा) (जाया) पत्नी (आ विशेत्) प्रविशेत् (पतिम्) पतिहृदयम् ॥
विषय
अतिथियज्ञ व मानस पवित्रता
पदार्थ
१.हे नवविवाहित पुरुष! तु (शामुल्यम्) = शमन करने योग्य मानस दुर्भाव को-मलिनता को (परादेहि) = दूर कर दे, (ब्रह्मभ्यः) = ज्ञानी ब्राह्मणों के लिए (वसु विभजा) = निवास के लिए अवश्यक धन देनेवाला बन, यही तेरा ब्रह्मयज्ञ हो। तेरे घर पर विद्वान् ब्राह्मण आते रहे, उनसे तुझे उचित प्रेरणा मिलती रहे। तेरा यह अतिथियज्ञ नववधू को भी उत्तम प्रेरणाएँ प्राप्त कराएगा। तुझे भी सदा मानस दुर्भावों को दूर करने में सहायक होगा। २. (एषा जाया) = यह पत्नी (कृत्या) = [कृती छेदने] काम-क्रोधादि शत्रुओं का छेदन करनेवाली होती हुई (पद्वती भूत्वा) = [पद् गतौ] प्रशस्त चरणोंवाली-उत्तम क्रियाओंवाली होकर (पतिं विशते) = पति के साथ एक हो जाती है। पति पत्नी में द्वैत न रहकर ऐक्य उत्पन्न होता है। पत्नी उसकी अर्धाङ्गिनी ही हो जाती है।
भावार्थ
गृहपति को चाहिए कि मन को सदा पवित्र बनाने के लिए यत्नशील हो। अतिथियज्ञ करता हुआ ज्ञानी ब्राह्मणों से सदा उत्तम प्रेरणा प्राप्त करे, ऐसा होने पर पत्नी भी काम-क्रोधादि का छेदन करती हुई क्रियाशील बनकर पति के साथ एक हो जाती है।
भाषार्थ
(एषा) यह (जाया) पत्नी जब मानो (पद्वती) पैरों वाली (कृत्या) कृतिशक्ति (भूत्वा) हो कर (पतिम्) पति [के घर में या हृदय] में (विशते) प्रवेश करती है, तब हे पति ! तू (शामुल्यम्) शान्तिदाहक व्यवहारों को (परादेहि) त्याग दे, और (ब्रह्मभ्यः) वेद-तथा-ब्रह्म के ज्ञाताओं के प्रति (वसु) धन का (विभजा) विभाग किया कर।
टिप्पणी
[शामुल्यम्=शम् (शान्ति) + उल् (दाहे)। कृत्या = Action, Deed (आप्टे)। व्याख्या - पत्नी को गृहकार्यों में कृतिशक्तिरूप होना चाहिये। गृहकार्यों में सुस्ती और आलस्य न होने चाहियें। तभी वह पति के हृदय में प्रवेश पा सकती है। पतिगृह में पत्नी के आ जाने पर पति को चाहिये कि वह शान्तिदाहक व्यवहारों को सर्वथा त्याग दे, ताकि पति-पत्नी में प्रेम बढ़ता जाए। कटुभाषण, असहिष्णुतापूर्ण व्यवहार, तथा कठोर शासन आदि व्यवहार से गृहस्थ जीवन में शान्ति दग्ध हो जाती है। ऐसे व्यवहारों की अधिकतर सम्भावना पति की ओर से हुआ करती है। इस लिये मन्त्र में यह उपदेश पति को दिया है। गृहस्थ जीवन में पति, वेदवेत्ताओं तथा ब्रह्मज्ञानियों का सत्कार धन द्वारा किया करे। इस निमित्त पति, निज आय का यथोचित भाग, सत्पात्रों की सेवा के निमित्त विभक्त कर दिया करे। यह सामाजिक धर्म है।]
विषय
गृहाश्रम प्रवेश और विवाह प्रकरण।
भावार्थ
हे नवविवाहित पुरुष ! तू (शामुल्यम्) शमन करने योग्य मानस दुर्भाव या मलिनता को (परा देहि) दूर करदे। और (ब्रह्मभ्यः) विद्वान् ब्राह्मणों को (वसु) धन का (वि भज) विविध रूपों में दान कर। (एषा जाया) यह जाया, स्त्री साक्षात् (पद्वती) चरणों वाली (कृत्या) सेना के समान हिंसाकारिणी (भूत्वा) होकर (पतिम्) पति के गृह में (विशते) प्रवेश करती है। विद्वानों को गृह पर बुलाकर उनके ज्ञानोपदेशों द्वारा चित्त के मलिन भावों को दूर करे। नहीं तो गृहों में नववधू ही कलह का कारण हो जाती है।
टिप्पणी
(तृ०) ‘भूत्वी’ इति ऋ०। (प्र०) ‘परादेहि शाबल्यं’ इति आप०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
Shed away the sense of sin and shame or impurity of mind, share the wealth, knowledge and joy of life with and from the holy and wise. When the bride has taken the seven steps to matrimony for conjugal life, she joins the husband heart and soul.
Subject
Marriage Ceremonies
Translation
(O wife), put away the garment soiled by the body; give wealth to the learned priests. The Krttaipa, the feeling of uncertainty has become active; it has gone to the husband's heart as his wife. (Rg. X.85.29)
Translation
O bride-groom, remove away the dirt of mind, distribute wealth amongst priests, this bride accomplished with attainments and becoming strong with power and strength goes you, her husband.
Translation
O newly married person, eradicate the impurity of your heart, give money to the Vedic scholars. This wife cognizant of her duty, being prosperous enters the house of her lord.
Footnote
Just as the Moon contributes to the growth of crops, vegetables and trees, so should husband and wife pass their life in the service of humanity.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२५−(परा देहि) दूरं कुरु (शामुल्यम्) सानसिवर्णसिपर्णसितण्डुला०। उ०४।१०७। शमु उपशमे-उलच्, शमुलं शमलम्, अशुद्धम्, तस्य भावः−ष्यञ्।चित्तमालिन्यम् (ब्रह्मभ्यः) वेदज्ञेभ्यः (वि भज) सांहितिको दीर्घः। प्रयच्छ (वसु) श्रेष्ठं वस्तु (कृत्या) विभाषा कृवृषोः। पा० ३।१।१२०। करोतेः-क्यप्।मत्वर्थे अर्शआद्यच्। टाप्। कृत्यायां क्रियायां कुशला (एषा) (पद्वती) पतऐश्वर्ये-क्विप्, मतुप्। ऐश्वर्यवती (भूत्वा) (जाया) पत्नी (आ विशेत्) प्रविशेत् (पतिम्) पतिहृदयम् ॥
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